जो हमें प्यारा लगता है

नवीन सागर की हस्तलिपि

प्रिय पांडू,

तुम्हारे पत्र बहुत मज़ेदार होते हैं, लेकिन फ़ोन पर तुम्हारी भारी-भरकम गंभीर आवाज़ सुनकर मुझे लगता है जैसे अपने ग़ुस्सैल और असंतुष्ट अंकल से बात कर रहा हूँ। आवाज़ कानों को तो अच्छी लगती है, लेकिन दो टूक बोलने की तुम्हारी शैली से मैं थोड़ा हड़बड़ा जाता हूँ—ऐसी ही हड़बड़ाहट चिरगाँव से फ़ोन करते समय सुनकर तुमने नतीजा निकाल लिया कि मैं पिए हुए हूँ। भाई जी, उस दिन इंडिया अचानक हारते-हारते जीती थी, दशहरा था, पप्पी के बरामदे में तरह-तरह के लोगों की भीड़ थी, हल्ला-गुल्ला था। उस हंगामे में से निकलकर मेरी आवाज़ अगर थोड़ी बदल गई थी तो उसका दोष उस एकमात्र पैग को मत दो जो त्यौहार की दुहाई देकर इसरार करने वाले दोस्तों के आगे विवश होकर मैंने पी लिया था।

कल मम्मी से तुमने अपनी नाराज़ी ज़ाहिर की—अब कभी नहीं सुनोगे कि पापा ने एक पैग तो क्या एक बूँद भी ली। सिगरेट-बीड़ी मैं छोड़ ही चुका हूँ। महीने-पंद्रह दिन में भूल से एकाध बीड़ी के दो-चार कश मारकर पछताता हुआ उसे अपने से बहुत दूर फेंक देता हूँ। मैं ही जानता हूँ कि इन दोनों चीज़ों से मैंने कैसे पीछा छुड़ाया है! क़सम से, मैं कभी भोपाल में ड्रिंक नहीं करता, चिरगाँव में एकाध पैग के बग़ैर जीना हराम हो जाता था, इसलिए ले लेता था। तुम्हारी नाराज़ी जानकर अब उससे भी तौबा! अब ख़ुश हो जाओ और पापा को माफ़ कर दो।

मैं जो तुमसे इन चीज़ों से दूर रहने की गुज़ारिश करता रहता हूँ, सो इसलिए क्योंकि मैं जानता हूँ कि तुम भी मेरे जैसे हो, जिस चीज़ ने पकड़ लिया वह बिना नुक़सान पहुँचाए छूटने वाली नहीं। मैं अब से तुम्हारी सब बातें मानूँगा। तुम मेरी माना करो।

उस दिन फ़ोन पर वहाँ के काम आदि को लेकर तुम्हारा उत्साह इतना अच्छा लगा कि तीन-चार दिन की बोझिल उदासी एकदम छँट गई और मेरा मन होने लगा कि किसी ऊँचाई पर खड़ा होकर हद तक फ़ैली दूरियों को देखते-देखते ख़ुद को भूल जाऊँ! तुम्हारा काम देखने की इतनी उतावली है कि लगता है—अचानक वहाँ पहुँच कर तुम्हें चौंका दूँ! लेकिन अब 5 दिसंबर ज़्यादा दूर नहीं है। हम लोग 4 दिसंबर को पहुँच जाएँगे, लेकिन लौटती डाक से पक्की तारीख़ लिखो, एक्ज़ीबिशन की जगह लिखो 5 तारीख़ को कितने बजे उसके द्वार खुलेंगे, यह भी लिखो। यह सब इसलिए पूछ रहा हूँ ताकि गैलरी के पास के किसी होटल में छाया और राजा के साथ डेरा डाल लूँ। इस समय दरोज़ सर के यहाँ उनके कई अंतरंग लोग पहुँचेंगे, इसलिए वहाँ भीड़ बढ़ाने का मेरा कोई इरादा नहीं है। हाँ, वहाँ सर से मिलने 4 तारीख़ की शाम को पहुँचूँगा ज़रूर, लेकिन रुकूँगा होटल में ताकि उन्हें दिक़्क़त न हो।

इस बीच तुम किताबें पढ़ रहे हो, यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई। प्रयाग (शुक्ल) जी के संपर्क में बराबर रहना, वह बहुत अच्छे व्यक्ति और अद्भुत अंतर्दृष्टि वाले कवि-लेखक और कला-पारखी हैं। उनके संसर्ग मात्र से तुम्हें बहुत कुछ ऐसा मिल जाएगा जो बहुत सारा पढ़ने पर भी कई बार नहीं मिलता, तुम्हें उनकी कविताओं की सारी पुस्तकें माँगकर पढ़ना चाहिए। तुम देखोगे कि वह बहुत थोड़े से हार्दिक शब्दों से बहुत गहरे उतरने वाले अर्थों-बिम्बों की रचना करने में कितने दक्ष हैं। उनका माध्यम शब्द हैं—साथ ही, शब्दों के आस-पास का वह मौन भी उनका माध्यम है—जो शब्दों से भी अधिक के गहरे अंतस्तल में झलक उठता है। मिट्टी भी एक माध्यम है, क्या मिट्टी के आस-पास ‘मिट्टी न होने का’ कोई माध्यम नहीं हो सकता जो मिट्टी के न होने को एक अर्थ, एक सौंदर्य दे सके! काफ़ी हवाई-सी बात है, लेकिन कभी-कभी लगता है कि जब हम ख़ुद को बेलगाम छोड़ देते हैं या शायद भूल जाते हैं कि क्या सोच या लिख रहे हैं; तब शायद ऐसी बातें आती हैं जिनके हवाईपन में कुछ होता है—लगभग ना-कुछ-सा, लेकिन जो हमें प्यारा लगता है, उसका आशय अगर कोई होता है तो बाद में कभी हम उसे जान लेते हैं।

तुम दिवाली पर नहीं आ रहे हो, यह सोचकर ही पूरे घर में रोशनी कुछ मद्धिम और उस पर फैली उदासी कुछ और बोझिल लग उठती है।

वहाँ बानी के होने से मैं तुम्हारी और से लगभग निश्चिंत-सा रहता हूँ। बानी यहाँ आई और मैं न जाने क्यों-कैसे मिल नहीं पाया, शायद तभी बाहर चला गया या बीमार पड़ गया। क्या सोचती होगी? बानी को मेरी और से स्नेह कहना और न मिल जाने के लिए खेद व्यक्त कर देना।

सर्दियाँ आ रही हैं। लगता है कि इस बार दिल्ली में भी बर्फ़ जमेगी। तुम्हारे पास बचाव के क्या साधन हैं! बिना संकोच के मुझे लिख भेजो ताकि मैं दिसंबर में जब आऊँ तो तुम्हारी व्यवस्था कर दूँ या पहले ही पैसे भेज दूँ ताकि तुम नवंबर की ठंड से ख़ुद को बचा सको।

अब तुम्हारा शरीर थोड़ा भरना चाहिए। 28 की कमर वाले पैंट बाज़ार में कब तक तलाशते फिरोगे? ख़ूब खाओ, और यदि, ख़ूब खाने में मेरी मदद की ज़रूरत है तो लिखो। मुझे हमेशा लगता है कि तुम हम लोगों से अपनी तकलीफ़ें और अभाव छिपाते हो। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, हम लोगों को दुख होता है। तुमने रघु मामा को फ़ोन करके बहुत अच्छा किया, दुबारा फ़ोन करके वहाँ का डाक पता मालूम कर लेना और एग्ज़ीबिशन का कार्ड उनके नाम अपनी चिट्ठी के साथ भेज देना। वह तुम्हारा फ़ोन पाकर बहुत ख़ुश थे। वह तुमसे मिलने को उत्सुक हैं और उस बात से प्रसन्न हैं कि तुम वहाँ कड़ी मेहनत कर रहे हो। वह जब दिल्ली में हों, उनसे ज़रूर मिल लेना।

गुड़िया आई थी चली गई। इंदौर के रास्ते गई तो राजा को इंदौर तक साथ लेती गई। हम लोग अकेले रह गए। तीनों बच्चे दूर। राजा दो-चार दिन में उनके पास जाएगा।

पत्रोत्तर जल्दी लेना। एग्ज़ीबिशन के बारे में स्थान-दिनांक-समय साफ़-साफ़ लिखना।

दरोज़ सर को मेरा नमस्कार कहना।

पापा

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नवीन सागर (1948-2000) हिंदी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि-कथाकार हैं। यहाँ प्रस्तुत पत्र उन्होंने अपने पुत्र अनिरुद्ध सागर को 28 अक्टूबर 1996 को भोपाल से लिखा था। अनिरुद्ध उन दिनों (1995-96) दिल्ली में सेरेमिक कलाकार पांडू रंगैया दरोज़ के पास बतौर प्रशिक्षु काम कर रहे थे। अनिरुद्ध अभी दिल्ली में ही रहते हैं और सिरेमिक माध्यम में ही काम कर रहे हैं। नवीन सागर की प्रसिद्ध और प्रतिनिधि कविताओं के लिए देखें : नवीन सागर का रचना-संसार