आओ पहल करें

‘पहल’ नहीं रही। हिंदीसाहित्यसंसार में शोक की लहर है। मन मानने को राज़ी नहीं हो रहे हैं कि ‘पहल’ अब नहीं है, क्योंकि वह पहले भी एक बार अपनी राख से पुनर्जीवित हो चुकी है।

‘पहल’ 1973 में शुरू हुई और 2021 में अपने 125वें अंक के साथ समाप्त हुई। 47 बरस और 125 अंक। राजकुमार केसवानी के शब्दों में :

47 बरस पहले कथाकार ज्ञानरंजन ने एक वैचारिक महायज्ञ की योजना बनाई। हर काल और हर समय में सामाजिक विषमताओं से जूझने के लिए ऐसे यज्ञ की आवश्यकता होती ही है। इस यज्ञ में पहली आहुति ख़ुद ज्ञानरंजन ने दी—अपने कथाकार की। उसके बाद उनकी तलाश शुरू हुई, उन लोगों की जिनके भीतर सामाजिक प्रतिबद्धता और संवेदना की लौ लगी हो या उसका स्पर्श हो। अपने जाने-सुने और निज अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि ज्ञानरंजन ने कई सारे मामलों में अपने आपसे बेख़बर लोगों को अलादीन के चराग़ की तरह रगड़-रगड़कर उनके भीतर के जिन को बाहर निकाल दिखाया।

हिंदी में ज़्यादातर प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ 90 प्रतिशत ख़राब रचनाओं से भरी रही आई हैं। ‘पहल’ भी कभी इसका अपवाद नहीं रही। प्रगतिशील वामाग्रह रखते हुए वह सर्वसंग्रहवाद और संतुलनवाद के सिद्धांत का विस्तार वर्तनी की भरपूर अशुद्धियों के साथ बराबर और बख़ूबी करती रही। ‘पहल’ ने संपादक को सत्ता की तरह और अफ़सरों को रचयिता की तरह स्थापित किया। उसने एक सौंदर्यहीन सौंदर्यशास्त्र विकसित किया। एक शैलीहीन शैली। उसने एक ऐसा सांस्कृतिक स्पंदन उत्पन्न किया, जो भाषाओं और स्थानिकताओं के आर-पार चला गया। एक कथाकार द्वारा संचालित होने के बावजूद ‘पहल’ मूलतः कवियों का अड्डा रही। कवियों के लिए यह सुख और किसी पत्रिका में नहीं था। वे अपनी कविताएँ ही नहीं, अपना सब कुछ ‘पहल’ के साथ बाँटते थे—कभी-कभी कवि होने की इच्छा भी।

‘पहल’ पत्रिका होने के साथ-साथ एक मॉडल भी बनी। मॉडल—सहयोग और पारस्परिकता का। कुछ इस प्रकार का एक मॉडल जिसके लिए संस्थान, बड़ी पूँजी और रंगीनियाँ अप्रासंगिक और ग़ैरज़रूरी हैं। इसकी चमक इनकार में है और अपने सरीखे व्यक्तियों को अपने साथ जोड़ते चले जाने में। लेकिन यह मॉडल जैसा कि ऊपर भी उद्धृत है : आहुति माँगता है। यह आपको रचनाकार नहीं रहने देता। कभी-कभी कुछ समझौते करने पर भी विवश करता है।

‘पहल’ के आख़िरी अंक के लिए ‘कुछ अतिरिक्त पंक्तियाँ’ लिखते हुए ज्ञानरंजन ने स्वीकारा है :

पहल’ के मंच का एक बैक स्टेज भी है, जो सामने आया नहीं और संभवत: कभी नहीं आएगा। वह एक बहुत बड़ी दुनिया है जो आती-जाती रही, बदलती रही, घूमती रही।

जब हमने ‘पहल’ शुरू की, हम संपादक नहीं थे। उसकी कलाओं और मशक़्क़तों से अवगत नहीं थे। आज भी हम पूरा-पूरी संपादक नहीं हैं, एक समूह है जो मिल-जुलकर गाड़ी चलाता रहा। हम संपादन की मुख्यधाराओं के अगल-बग़ल से निकलते रहे, पर पारंगत नहीं हो सके। बस एक पंक्ति हमारी ज़रूर थी; उस पर जोश, जज़्बे और आवेग के साथ चलते रहे। हमारी शैली यही थी, जिसमें ताज़ा और आज़ादख़याल बने रहे। एक ज़रूरी सुचारु व्यवस्था न होने के कारण हम अब थक भी रहे हैं। हमने कभी ‘पहल’ को एक संस्था या सत्ता की व्यवस्था नहीं दी। चीज़ें आती रहीं, हम निपटते रहे, अपने को भ्रष्ट होने से बचाते रहे।

इस स्वीकार के बावजूद इस तकलीफ़देह घड़ी में ‘पहल’ के वास्तविक शुभचिंतकों को यह प्रश्न बार-बार परेशान कर रहा है कि आख़िर ‘पहल’ को बचाया क्यों नहीं जा सकता? ‘पहल’ के कुछ अंकों का ज्ञानरंजन के साथ मिलकर संपादन करने वाले आग्नेय इस पर कहते हैं :

किसी ऐसी पत्रिका का अस्तित्व उसके संचालक पर कैसे निर्भर हो सकता है, जो सामूहिक सहयोग की पूँजी से 125 अंकों और 47 साल तक निकली? दरअस्ल, संकट यह है कि ज्ञानरंजन ‘पहल’ के संपादक नहीं तो और कोई संपादक कैसे हो सकता है… इस सोच ने ही ‘पहल’ का अंत कर दिया।

बहरहाल, इस कथ्य का अंत कुमार विकल की ज्ञानरंजन को संबोधित कविता ‘आओ पहल करें’ से करना समयोचित होगा :

जबसे तुम्हारी दाढ़ी में
सफ़ेद बाल आने लगे हैं
तुम्हारे दोस्त
कुछ ऐसे संकेत पाने लगे हैं
कि तुम
ज़िंदगी की शाम से डर खाने लगे हो
औ’ दोस्तों से गाहे-बगाहे नाराज़ रहने लगे हो
लेकिन, सुनो ज्ञान!
हमारे पास ज़िंदगी की तपती दुपहर के धूप-बैंक की
इतनी आग बाक़ी है
जो एक सघन फ़ेंस को जला देगी
ताकि दुनिया ऐसा आँगन बन जाए
जहाँ प्यार ही प्यार हो
और ज्ञान!
तुम एक ऐसे आदमी हो
जिसके साथ या प्यार हो सकता है या दुश्मनी
तुमसे कोई नाराज़ नहीं हो सकता
तुम्हारे दोस्त, पड़ोसी, सुनयना भाभी, तुम्हारे बच्चे
या अपने आपको हिंदी का सबसे बड़ा कवि
समझने वाला कुमार विकल
जिसकी जीवन-संध्या में अब भी
धूप पूरे सम्मान से रहती है
क्योंकि वह अब भी धूप का पक्षधर है

प्रिय ज्ञान,
आओ हम
अपनी दाढ़ियों के सफ़ेद बालों को भूल जाएँ
और एक ऐसी पहल करें
कि जीवन-संध्याएँ
दुपहर बन जाएँ।