‘जो मनुष्य से परे है, वह भी मनुष्य में शामिल है’

अरुण कमल से अंचित की बातचीत

हैरल्ड ब्लूम ने एक एन्थॉलॉजी संपादित की है—“टिल आइ एंड माय सॉन्ग”—जिसमें वह कहते हैं कि तीन तरह की आख़िरी कविताएँ होती हैं; एक तो जो लिखने के बाद कवि नहीं रहा, एक जिसमें कवि तो रहा : लेकिन आगे कुछ लिखा नहीं, और तीसरे जिनको किसी के लिए काल्पनिक अंत मान लिया गया। आपके कविता-संग्रह ‘योगफल’ के बारे में कई जगह इस फ़िनैलिटी को पढ़ा जा रहा है।

यह तो ऐसे मुश्किल है। हैरल्ड ब्लूम ने जो कहा होगा, मैंने वह संग्रह नहीं देखा; लेकिन वह शायद उन कविताओं के बारे में होगा जो किसी कवि ने अपने जीवन-काल के बिल्कुल आख़िर में या लेखन-काल के बिल्कुल आख़िर में लिखी होंगी। मान लीजिए कि जैसे : महादेवी वर्मा, निराला, दिनकर की अंतिम कविताएँ। पर यह मुझको ऐसा लगता है, ऐसा नहीं है। मेरी समझ से यह मध्यबिंदु है। अचानक कुछ हो जाने की बात दूसरी है, तब भी जो लेखन की रेखा होगी उसका यह मध्यबिंदु होगा।

जहाँ तक उस अकेली कविता का सवाल है—‘योगफल’—यह पूरी कविता जो उत्तर आधुनिकता के सिद्धांत हैं, उनका खंडन करती है, उनका प्रत्याख्यान करती है; एक अर्थ में। इस अर्थ में यह योगफल है।

इसे आप ग्रांड नैरेटिव भी कह सकते हैं।

बिना सब कुछ के समाहार के, समावेश के, आप जीवन के एक कण को भी नहीं समझ सकते, सब कुछ मिलकर जीवन बनता है। यहाँ तक कि जो सजीव नहीं है, जैसे वज्र और इसके लिए योग के आसनों के जिन नामों का उपयोग किया गया है, वज्रासन, वह तो निर्जीव है; लेकिन कुछ भी निर्जीव नहीं है। यहाँ तक कि शव, उसको आप किस श्रेणी में रखेंगे, शवासन होता है। तो एक इसमें जो ऊपर का जीवन है, उसके अंदर का जीवन और संपूर्ण सृष्टि के प्रत्येक तृण गुल का जीवन, एक जीव अथवा जो जीव नहीं हैं प्रत्यक्षतः, उन सबको मिलाकर यह जीवन होता है। एक अर्थ दार्शनिक स्तर पर आप अद्वैत का भी ले सकते हैं। आप इसको राजनीतिक अर्थ में भी ले सकते हैं कि हमसे इतर, जिसको ‘द अदर’ कहते हैं कि जो हमसे भिन्न है, वह हमारा शत्रु है, लेकिन हमसे भिन्न कुछ नहीं है और इसीलिए वह सब एक साथ मिलकर ही जीवन बिता सकते हैं, या फिर नहीं बिता सकते हैं।

इसमें एक गोरखनाथ की भी पंक्ति आती है कि जब अन्न को भूख लगेगी और पानी को प्यास, और अंत होता है उसका, ‘‘भिक्षा दो माँ, भिक्षा दो।’’ जो इस संप्रदाय में दीक्षित होने वाले लोग हैं, वह पहली भिक्षा, अपनी माँ से माँगते हैं; क्योंकि तब ऐसा लगता है कि अपनी साधना के लिए वे प्रस्तुत हैं।

इसमें बहुत सारी बातें हैं। भारतीय परंपरा के मिथकों का भी इस अकेली कविता में ज़िक्र है।

‘योगफल’ को फ़िनैलिटी की तरह देखना उसका एक कुपाठ हो सकता है। इस संग्रह की ही जो आख़िरी कविता है—‘प्रलय’—वह रेखा का मध्य नहीं, रेखा की शुरुआत लगती है।

अलग-अलग तरह से होता है। अस्ल में एक बड़ी दिक़्क़त यह हो गई है कि आजकल ख़ासतौर से, पहले भी, यह दिक़्क़त थी, और ये शुरू से रही है कि कविता पढ़ने की आदत, संस्कार और कविता पढ़ने की ट्रेनिंग ख़त्म हो गई है या कम हो गई है कि हम कविता को कैसे पढ़ें। हम आमतौर पर यह समझते हैं कि जो शब्द हैं और जो उसके तत्काल अर्थ मेरे मस्तिष्क में आ गए, जो तत्कालीन प्रसंगों से आ जाते हैं, तत्कालीन प्रचलित मुहावरों से आ जाते हैं, हम उससे उसको जोड़ देते हैं, लेकिन कविता, जो श्रेष्ठ कविता होती है, उसको ऐसा करना पड़ता है कि वहाँ से आपको अलग कर दे और यह करने में एक जो पाठक है उसको धक्का लगता है, क्योंकि उसके बने-बनाए संस्कारों, अभ्यस्त भाव-भंगिमाओं, इन सबको धक्का लगता है जिसको वह बर्दाश्त नहीं करता, इसीलिए वह वापस लौटता है। इसलिए कविता पढ़ने की एक आदत, उसका संस्कार, उसका एक तरीक़ा होता है।

क्या यह तात्कालिकता, उत्पादन-संस्कृति, ब्रेकिंग न्यूज़ आदि से प्रभावित है?

नहीं, इसका संबंध उससे बहुत गहरा है। यह शुरू से है, जब से काव्यशास्त्र बना तब से है। इस पर चर्चा होती रही कि हम कविता कैसे पढ़ें, लगातार कवियों और आलोचकों ने इस पर विचार किया, क्योंकि आपके पढ़ने पर ही निर्भर है कि आप कैसे उसका मूल्यांकन करेंगे। अगर आपने उसे ठीक से नहीं पढ़ा, ठीक से पढ़ने का यही मतलब नहीं है कि आप सभी शब्दों के अर्थ जान लें, नहीं, आपको यह मानकर चलना पड़ेगा कि यह नई चीज़ है और इस पर आपको नए ढंग से सोचना पड़ेगा।

‘योगफल’ में एक जगह एक हायरार्की-सी बनती दिखती है—कविता के ऊपर विचारधारा और उसके ऊपर जीवन-दृष्टि…

वह हायरार्की नहीं है, जो बड़ा कवि होगा उसको हम विचारधारा से नहीं मापेंगे। विचारधारा से भी बड़ी चीज़ है दर्शन, लेकिन उससे भी नहीं मापते हैं। विचारधारा तो सबकी होगी। जो वोट देने जा रहा है उसकी भी होगी और हो सकता है वही विचारधारा हो जो मेरी है या हम दोनों की एक न हो, अलग-अलग हो। लेकिन विचारधारा होगी। दर्शन भी, जो दार्शनिक हैं उनका भी होगा और वह दर्शन विभिन्न इतिहासों में भी आ सकता है। लेकिन हर कवि अपनी जीवन-दृष्टि को अर्जित करता है। कविता का विषय मनुष्य है। मनुष्य ही कविता के केंद्र में है और मनुष्य का जीवन।

एक दार्शनिक और वैचारिक व्यक्ति से अलग है कवि?

जो एक कवि करता है, वह दूसरा नहीं कर सकता है।

जो भाव की पवित्रता है—वह मनुष्य की है, या मनुष्येतर…

जो भी है मनुष्य के बारे में है। जो मनुष्य से परे है, वह भी मनुष्य में शामिल है और मनुष्य से संबंध में है।

आपकी कविताओं की तरफ़ लौटते हैं। वहाँ बदलता हुआ देश है—शहर की ओर गाँव से आता हुआ—विस्थापन। इन सारे प्रसंगों में कवि का स्वर इन पात्रों, प्रसंगों से जुड़ा हुआ है, कहीं भी disassociated नहीं है, वह इंवाल्व्ड है। साथ में अगर समकालीन हिंदी कविता और उदात्तता के संदर्भों में बात कर लें…

ये अनुभव बहुत जगह से आते हैं, बहुत तरह से आते हैं। समकालीन हिंदी कविता का भी अलग से कोई व्याकरण नहीं होगा। जो कविता का व्याकरण और शास्त्र है, वही होगा। हाँ, अगर समकालीन हिंदी कविता उसमें कुछ बढ़ोतरी करेगी, समृद्ध करेगी उसको तो फिर अलग बात है। वरना होता यह है कि जब आप कुछ वर्णन करते हैं, तो आपका स्वर अलग होता है। जब आप अपने केवल भाव प्रकट करते हैं तो आपका स्वर अलग होता है। नाटक में जाकर के दोनों स्वर मिलते हैं और तीसरे स्वर का जन्म होता है।

जहाँ तक इंवॉल्व्मेंट की बात है, यह तो है ही कि जो दुःख है उसमें वह कवि भोक्ता होता है। दुनिया के सभी कवियों के साथ होता है, लेकिन कभी-कभी कवि सामने भी होता है; जैसे रोमांटिसिज्म में या छायावाद में होता है।

वर्ग-चेतना के संदर्भों में, उससे कितना मुक्त या ऊपर…

क्लास एक बनावटी चीज़ है, मैं तो यह मानता ही नहीं कि क्लास रहनी चाहिए। यह तो मनुष्य ने जब अपनी सामाजिक-ऐतिहासिक यात्रा शुरू की तो उसमें बहुत-सी बनावटें आईं, कृत्रिमता आई, यह सब असमानता के चलते आईं—जाति, लिंग या वर्ग की असमानताएँ जो अलग-अलग ढंग से प्रभावित करती हैं।

यहीं फिर ह्यूमन मोमेंट की बात आ जाती है—सबके लिए एक वैसा क्षण। कविता उसी की खोज करती है और इसका कोई अंत नहीं है। इतनी तरह से हमारा समाज बाँट दिया गया है, तो इसको लिखते हुए… जैसे मान लीजिए एक आदमी जो अभी सड़क पर चल रहा था रोज़ी-रोटी के बिना वह अलग है, हम अलग हैं; लेकिन उससे यह तो नहीं पूछते कि उसका धर्म क्या है, उसका वर्ग क्या है, क्योंकि ऐसे बहुत से लोगों की नौकरियाँ गई हैं जो खाते-पीते वर्ग के लोग थे। तो सवाल यहाँ वह नहीं है, वर्ग-चेतना का, वह तो कृत्रिम है। जो कुछ भी बनाया गया है और मनुष्य के स्वाभाविक जीवन के विरुद्ध है, स्वाभाविकता किसमें है कि कोई विभाजन न हो, हमने तो वहाँ शुरू किया जीवन—आदिम साम्य व्यवस्था से। फिर हम लोगों को वहीं जाना है।

टॉमस मान की एक बहुत मशहूर पंक्ति है, जो रिल्के के यहाँ भी मुझे मिली है कि उस निर्दोष अवस्था को पाने के लिए आदम को फिर से उस ज्ञान के सेब को चखना पड़ेगा। इस ज्ञान के सेब को चखते हुए हम लौटना चाहते हैं, वापस अपनी निर्दोष अवस्था में—अगर हम ईसाईयत के इस बिंब को लेकर चलें तो।

पढ़ाई आपकी अँग्रेज़ी में हुई, इतने साल आपने अँग्रेज़ी पढ़ाई। अँग्रेज़ी भाषा में कौन से प्रभाव रहे?

अँग्रेज़ी साहित्य मैंने पढ़ा है—थोड़ा-बहुत और उससे भी कम मैंने पढ़ाया। जो पढ़ाया उसमें भी अधिकतर ग़लत पढ़ाया। लेकिन जो सीखा, वह यह कि हमेशा अपनी भाषा में लिखना होगा और अपनी भाषा वह भाषा है जिसे साधारण लोग बोलते हैं। अँग्रेज़ी कविता और अँग्रेज़ी आलोचना को पढ़कर मैंने दो ही बातें सीखीं। पहली यह कि लिखना अपनी भाषा में है और दूसरी यह कि अपनी भाषा कौन सी है, उसका स्रोत कहाँ है, मुझको वहीं जाना है।

मैंने पहले भी इसका उल्लेख किया था और आप ही ने वह पूरा नाटक मुझको लाकर दिया था—जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का ‘द डार्क लेडी ऑफ़ सॉनेट्स’। वह शेक्सपीयर के कवि बनने के बारे में बताता है और उसमें जो मुख्य बात है—वह है भाषा की खोज में चलना। यही मैंने सीखा है और यह मैंने दुनिया के हर भाषा के कवि, साहित्यकार को पढ़ते हुए सीखा है कि हमेशा तुम सिर्फ़ अपनी भाषा में ही बोल सकते हो। अँग्रेज़ी के कवियों ने यही मुझको रटा दिया।

यह इस्तिमाल की भाषा तो पीढ़ी दर पीढ़ी बदलेगी।

हाँ, बिल्कुल।

मेरी पीढ़ी की जो बोलचाल की भाषा है, इसमें अँग्रेज़ी के भी कई शब्द आते हैं, उनका इस्तिमाल…

भाषा तो बनती ही है दूसरी भाषाओं से और इसमें अँग्रेज़ी नायाब है कि उसने सबसे ज़्यादा लिया है कई भाषाओं से। लेकिन कविता लिखते समय सिर्फ़ यह पर्याप्त नहीं होता और इसमें मलार्मे ने जो वाक्य कहा है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है—‘Purification of the dialect of the tribe.’ जैसे हम जल को शुद्ध करते हैं, जल हम अलग से नहीं बनाते, जैसे हम बादल को पकड़कर, जल नहीं दुहते हैं। जल तो वही है जो धरा पर है, लेकिन हम उसको शुद्ध करते हैं। कवि का भी काम यही होता है। नहीं तो फिर कविता का विकास नहीं होगा, क्योंकि कविता ही अपनी भाषा की रक्षा करती है।

मान लीजिए, सारे हिंदी बोलने वाले ख़त्म हो जाएँ और फिर आप हिंदी को खोजें तो कहाँ मिलेगी यह भाषा? सबसे पवित्र रूप में वह कविताओं में, कवियों के पास मिलेगी। कवि का महत्त्व इसलिए भी समाज में है। हर आदमी वही भाषा बोल रहा है जो कवि की भाषा है, इसीलिए कवि हर आदमी का काम कर रहा है और हम भाषा के कारण ही, भाषा में ही हैं। इस भाषा को जो सर्वाधिक, पवित्र, संपन्न और समृद्ध करता है, आगे ले जाता है; वह कवि है। इसीलिए दुनिया की हर भाषा बोलने वाले के बीच कवि का महत्त्व है।

हमारे यहाँ भी कवि को ऋषि कहा गया है। कवि और ऋषि एक हैं। ग्रीक परंपरा में भी यही है। वहाँ कवि को Vates कहा गया है। प्रोफ़ेट भी आस-पास का शब्द है। इसीलिए कवि का इतना महत्त्व है। अब आप कहेंगे कि कहाँ कोई महत्त्व देता है, तो आप यह बताइए कि आजकल किस अच्छी चीज़ का महत्त्व समाज में है। मान लीजिए आजकल के कवियों को लोग नहीं पढ़ते हैं, लेकिन क्या वे तुलसीदास को पढ़ते हैं, क्या वे कबीर को पढ़ते हैं, वाल्मीकि का नाम भी बहुत लोगों ने नहीं सुना होगा। रामानंद सागर को जानते हैं, वाल्मीकि को नहीं जानते। बहुत बड़े क्षितिज पर, बहुत बड़े संदर्भ में यही महत्त्व है।

भाषा में ही ‘अपनी केवल धार’ से ‘प्रलय’ की ओर आते हुए, मेरी रीडिंग में ‘प्रलय’ की भाषा, मेरी पीढ़ी के पास की भाषा है। वही नहीं, पर आस-पास पहुँचती हुई। हिंदी के विमर्श में नई पीढ़ी की भाषा के संदर्भ में एक मत यह भी है कि जिस तरह से बीच में विश्व-कवियों के अनुवाद आए और उससे जो भाषा पैदा हुई, उसी भाषा को नई पीढ़ी ने अपनी कविता की भाषा बना लिया। भाषा की रीडिस्कवरी के बारे में कुछ सोचना पड़ सकता है यहाँ?

अब हर कवि तो अच्छा कवि नहीं होगा। इसलिए ख़राब कवियों के बारे में क्या राय दी जाए, क्योंकि कवियों को तो अपनी भाषा को पढ़ना है। अपनी भाषा की पूरी परंपरा को जानना है। बिना उसके कैसे होगा। अनुवाद की भाषा कोई भाषा नहीं है। यह बिल्कुल ग़लत बात है। दिनकर जी ने भी लोर्का का अनुवाद किया है। उसकी भाषा बिल्कुल दिनकरी भाषा है। रामविलास शर्मा ने भी अनुवाद किया है कई कवियों का—एकदम अलग तरह से।

जैसे नेरूदा के संदर्भ में चंद्रबली सिंह के अनुवाद, रामकृष्ण पांडेय के अनुवाद से अलग हैं।

हाँ। अनुवाद की ही एक भाषा नहीं होती। हर समय में कुछ प्रचलन होते हैं, जैसे कपड़ों में भी होते हैं, खाने में भी होते हैं। वैसे ही जो औसत कवि हैं, उनकी भाषा में भी होते हैं। हर समय की अपनी भाषा रही है। किसी कविता को देखकर बताया जा सकता है कि वह किस खंड की और किस भाव-बोध की कविता है।

क्या नए कवियों को इस एक्टिविटी में इंडल्ज होना चाहिए?

उनको अपनी पूरी परंपरा को जानना है। ज़ाहिर है कि वे कहीं से तो शुरू करेंगे, लेकिन वहाँ रुकना थोड़े ही है। आगे जाना है तो आगे जाएँगे। यह साधना तो है ही। जितना भी पुराना शब्द हो, लेकिन करना तो होगा ही। वाल्मीकि ‘रामायण’ की शुरुआत यहीं से होती है। तप से। बिना तप के कुछ नहीं होगा। बिना स्वाध्याय के कुछ नहीं होगा।

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अरुण कमल (जन्म : 1954) समादृत कवि-लेखक हैं। वह साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित हैं। अंचित (जन्म : 1990) नई पीढ़ी के महत्त्वपूर्ण कवि-लेखक और अनुवादक हैं।