‘क़र्ज़ किस-किस नज़र के हम पर हैं’

सुधांशु फ़िरदौस से हरि कार्की की बातचीत

सुधांशु फ़िरदौस (जन्म : 1985) इस सदी में सामने आई हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। गत वर्ष उनकी कविताओं की पहली किताब ‘अधूरे स्वाँगों के दरमियान’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक पर एक आलेख यहाँ प्रकाशित हो चुका है। इसके साथ ही सुधांशु फ़िरदौस इसक-2021 के कवि भी हैं। यहाँ प्रस्तुत संवाद उनसे ई-मेल के ज़रिए संभव हुआ है।

सुधांशु फ़िरदौस │ स्रोत : प्रियंका दुबे

आपको हिंदी वाले फ़िरदौस कहते हैं और उर्दू वाले सुधांशु। इस तरह मिलकर आप सुधांशु फ़िरदौस होते हैं। सवाल यह है कि आपने सुधांशु शेखर को सुधांशु फ़िरदौस में कब और क्यों बदला?

हाई स्कूल के दिनों में ही यह ख़याल आया था। मेरे पास बारहवीं क्लास में एक डायरी हुआ करती थी। इस डायरी में मैंने कुछ तुकबंदियाँ लिखी थीं—फ़िरदौस नाम से। कुछ आगे चलकर यह नाम मेरे अस्ल नाम में ही जुड़ गया। शुरू में इतना सोचा नहीं था। शायद शाइरों की तरह तख़ल्लुस रखने के लिए किया होगा या शायद अपनी कविता को सबसे छुपाने के लिए किया होगा, क्योंकि घर-परिवार में कभी भी मेरे कवि होने को अच्छे ढंग से नहीं लिया गया।

कविता और गणित दो अलग नावें हैं। दोनों की यात्राएँ और पड़ाव भी अलग हैं। इस तरह दो नावों पर एक साथ यात्रा करना कितना मुश्किल है? संख्याओं और शब्दों दोनों के प्रति ईमानदारी आप कैसे ला पाते हैं?

दो नावों में यात्रा करना हमेशा दुश्वार होता है। मेरे लिए भी यह बहुत मुश्किल रहा है। कविता और गणित—दोनों में ही कम से कम जितना किया जा सकता है, उतना भी अब तक नहीं कर पाया हूँ। कविता और गणित दोनों ही साधना माँगते हैं। वैसे यह बात प्रत्येक उस माध्यम के लिए सच है जिसमें आप ईमानदारी से कुछ करना चाहते हैं।

जहाँ तक गणित का प्रश्न है, उसमें हम शब्दों का न्यूनतम इस्तिमाल करने की कोशिश करते हैं। हमारे अपने सिम्बल्स होते हैं। हम इनकी राह पर चलते हैं। इस प्रकार ही कविता में भी हमारे अपने विचार और अनुभव होते हैं। मेरी कोशिश रहती है कि मैं इनकी राह पर चलूँ और इसके साथ ही शब्दों के प्रयोग को लेकर सजग रहूँ… एक रियाज़ में रहूँ।

आपका पहला कविता-संग्रह ‘अधूरे स्वाँगों के दरमियान’ गत वर्ष राजकमल प्रकाशन से आया। एक कवि या कहें एक कलाकार का अधूरेपन से इतना प्रेम! क्या अधूरे स्वाँग ही कवि-जीवन की संपूर्णता का पैमाना हैं?

अधूरेपन से प्रेम का तो पता नहीं! कोई क्यों ही अधूरेपन को चाहेगा भला! लेकिन कहीं न कहीं कुछ न कुछ कम पड़ ही जाता है। प्रेम के लिए प्रेम कम पड़ जाता है। ख़याल को सामने उतारने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। गीत गाओ तो साँसें कम पड़ने लगती हैं। अब तो लगता है कि जो स्वप्न है, उसे जीने के लिए कहीं जीवन ही न कम पड़ जाए।

साहिब-ए-किताब होना कैसा रहा या इससे क्या बदला?

बेहतर ही रहा। अब तक की बेचैनियों को और सफ़र को एक घर मिल गया है—किताब के रूप में। इस वजह से नई बेचैनियों और नए सफ़र के लिए तैयार हूँ। एक उधेड़बुन है। कुछ सार्थक रच पाऊँ—यह आकांक्षा है।

कविता आप तक कैसे आती है या आप कविता तक कैसे जाते हैं?

कविता किसी भी तरह से और कहीं भी आ जाती है। हमें बस कविता के लिए ख़ुद को बराबर तैयार रखना-रहना पड़ता है। यह न हो तब आपकी अपात्रता, प्रेम की ही तरह कविता को भी ख़राब कर देती है।

अपनी परंपरा, अपनी पीढ़ी और आपके बाद आए कवियों को आप इस मौजूदा साहित्य-समय में कैसे देखते हैं?

अभी मैं ख़ुद बहुत संकट और ऊहापोह में हूँ। परंपरा और पीढ़ी और बाद आए साथियों को उस तरह से विलगा कर नहीं देख पा रहा हूँ। शाइर लखनवी का एक शे’र याद आ रहा है :

दिल जो ठहरे तो कुछ सुराग़ मिले
क़र्ज़ किस-किस नज़र के हम पर हैं

आजकल कौन-सी किताबें आपके नज़दीक हैं?

‘बीइंग एंड इवेंट’ (एलेन बाद्यू), ‘द हार्ट ऑफ़ द बुद्धाज टीचिंग’ (तिक न्यात हन्ह) और सीजर पावेसी की किताबें।

हिंदी की और हिंदी से इतर वे कौन-सी साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं जिन्हें आप पढ़ना पसंद करते हैं?

अब हिंदी में पत्रिकाएँ पाना और उन्हें पढ़ पाना संघर्ष का विषय है। लेकिन ‘पहल’, ‘तद्भव’ और ‘सदानीरा’ के नए अंकों को लेकर उत्सुक रहता हूँ। इंटरनेट पर ‘समालोचन’, रेख़्ता फ़ाउंडेशन की वेबसाइट्स और अरबी साहित्य के अनुवाद की ई-पत्रिका ‘बानीपाल’ पर नज़र बनाए रखता हूँ।

क्या लिख रहे हैं?

कुछ गद्य।

हिंदी में आपके लिए पुरस्कार क्या है?

मुझे कोई पुरस्कार नहीं मिला है तो मुझसे यह सवाल नहीं किया जाना चाहिए था। लेकिन मुझे लगता है कि पुरस्कार जितनी देर से मिले उतना अच्छा है। क्योंकि मैंने पाया है कि पुरस्कार पाकर ज़्यादातर ख़राब कवि-लेखक और ख़राब और अच्छे कवि-लेखक और ‘अच्छे’ हो जाते हैं। अगर कोई रचनाकार अपना स्वाभाविक विकास चाहता है तो उसे पुरस्कारों को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। हिंदी में वैसे भी सारे पुरस्कार साहित्येतर वजहों से दिए जाते हैं। कई बार निर्णायक ख़ुद की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए भी पुरस्कार देते हैं और निर्लज्जता से कहते भी हैं कि देखो मैंने दलित को पुरस्कार दिया, मैंने आदिवासी को पुरस्कार दिया, मैंने स्त्री को पुरस्कार दिया, मैंने मुसलमान को पुरस्कार दिया है। इस तरह हिंदी में एक तरह की औसत राजनीति और रचनाशीलता हमेशा हावी और केंद्र में रहती है।