‘भाषा हमेशा नई होती रहती है’

अलका सरावगी से हरि कार्की की बातचीत

अलका सरावगी (जन्म : 1960) हिंदी की अत्यंत प्रतिष्ठित उपन्यासकार हैं। वह साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित हैं। यह पुरस्कार उन्हें उनके पहले ही उपन्यास ‘कलि-कथा : वाया बाइपास’ के लिए साल 2001 में मिला। तब से अब तक हिंदी संसार उनके नए उपन्यासों का बेसब्री से इंतिज़ार करता है। यहाँ प्रस्तुत संवाद उनसे ई-मेल के ज़रिए संभव हुआ है।

अलका सरावगी │ स्रोत : गूगल

आपका पहला कहानी-संग्रह वर्ष 1996 में ‘कहानियों की तलाश में’ शीर्षक प्रकाशित हुआ था। पहला सवाल इस शीर्षक के इशारे से ही अगर करें तो आप क्या मानती हैं : एक गंभीर रचनाकार कहानियों को तलाशता है या कहानियाँ स्वयं अपना रचनाकार तलाशती हैं?

ये दोनों काम एक साथ होते रहते हैं! इस कहानी के मूल में यह प्रश्न ही था कि क्या कहानी सिर्फ़ संघर्षरत पात्रों पर ही लिखी जा सकती है या किसी ऐसे पात्र पर भी, जिसने एक सफल किंतु एकरस या नीरस जीवन जिया है। इस तलाश में यह सफल पात्र भी शामिल था क्योंकि वह अपनी कहानी को देखते ख़ुद भी बदलकर जीवन को नए सिरे से समझ रहा था।

आपके अनुसार इस कोरोना-काल में रचनाकारों की सबसे बड़ी चुनौतियाँ क्या रहीं?

रचनाकार के लिए एक तरफ़ यह समय अपने अंदर गहरे उतरने का और ग्लोबल धरती की विडंबना को जाँचने का मौक़ा था, तो दूसरी तरफ़ पैदल घर लौटते प्रवासी मज़दूरों की तकलीफ़, नौकरी छूटने से बच्चों की स्कूल की फ़ीस न भर पाने वाले मध्यवर्ग और खाने की क़िल्लत झेलते ग़रीबों की परेशानियों से मन त्रस्त रहा।

‘नई वाली हिंदी’ को लेकर आप क्या सोचती हैं?

सच तो यह है कि भाषा हमेशा नई होती रहती है। भारतेंदु ने सवा सौ साल पहले लिखा था—‘हिंदी नई चाल में ढली।’

अब अगर हम कुछ हल्के-फुलके स्तर की बोलचाल की भाषा में लिखे साहित्य को ‘नई हिंदी’ के नाम से चलाना चाहते हैं, तो इसमें क्या परेशानी है? मुझे लगता है कि लोकप्रिय साहित्य की एक धारा वैसे भी हिंदी में हमेशा से रही है।

इन दिनों आप क्या पढ़ रही हैं?

इन दिनों मैं महात्मा गांधी की शख़्सियत को समझने के लिए पढ़ रही हूँ।

हिंदी की कौन-सी साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं जिन्हें आप पढ़ना पसंद करती हैं?

सच कहूँ तो मैं पत्रिकाएँ कम पढ़ती हूँ। ऑनलाइन ज़रूर कुछ नया पढ़ने मिल जाता है। हाल में ‘समालोचन’ वेब पत्रिका में अम्बर पांडेय की कहानियाँ पढ़कर बहुत आनंद आया।

वाणी प्रकाशन से आपका नवीनतम उपन्यास ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ पाठकों को किस साहित्यिक यात्रा पर ले जाएगा?

आपका उत्तर इस पुस्तक का यह छोटा-सा ब्लर्ब का हिस्सा बेहतर दे सकता है :

डेढ़ चप्पल पहनकर घूमता यह काला, लंबा, दुबला शख़्स कौन है? हर बात पर वह इतना ख़़ुश कैसे दिखता है? उसे भूलने का बटन देने वाला श्यामा धोबी कहाँ छूट गया? कुलभूषण को कुरेदेंगे, तो इतिहास का विस्फोट होगा और कथा-गल्प-आपबीती-जगबीती के तार निकलते जाएँगे।

कुलभूषण पिछली आधी सदी से पूर्व बंगाल से उजड़ा हुआ है। देश-घर-नाम-जाति-गोत्र तक छूट गया उसका, फिर भी अर्ज कर रहा है, माँ-बाप का दिया कुलभूषण जैन नाम दर्ज कीजिए। इस किरदार के आस-पास के संसार में कोई दरवाज़ा-ताला नहीं है, लेकिन फिर भी इसके पास कई तिजोरियों के रहस्य दफ़्न हैं। एक लाइन ऑफ़ कंट्रोल, दो देश, तीन भाषाएँ, पाँच से अधिक दशक… कुलभूषण ने सब देखा, जिया, समझा है।

उपन्यास-लेखन की आपकी प्रक्रिया क्या है?

किसी पात्र की तरफ़ ध्यान खिंचता है, क्योंकि उसका जीवन अलग-सा है; मन में कुछ कौतुक पैदा करता है। इतिहास ने, समाज ने, समय ने उसके जीवन को जिस तरह तोड़ा-मरोड़ा है या गढ़ा है, उसने अक्सर हमारे समय के मूल प्रश्न और मुद्दे छिपे रहते हैं। जब आप वहाँ गहराई में जाते हैं, तो हज़ारों कहानियाँ जागृत हो जाती हैं और एक वृहत कथा बनती जाती है। पर चूँकि मैं क़रीब दो सौ पन्नों से ज़्यादा बड़ी कथा नहीं लिखना चाहती, उसका फ़ॉर्म बहुत कसा हुआ, कम शब्दों वाला होता है। कथाएँ बहती हैं, और एक कथा का सिरा उपन्यास के किसी दूर हिस्से में बहता हुआ मिल जाता है।

आपका उपन्यास ‘कलि-कथा : वाया बाइपास’ विस्थापन से जुड़ी उम्मीद और पीड़ा की कहानी कहता है। आज इस प्रसंग को आप कैसे देखती हैं?

इक्कीसवीं सदी में भी विस्थापन बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। मारवाड़ी जाति का राजस्थान से विस्थापन अपनी इच्छा से था, किंतु पार्टिशन के दौरान जो विस्थापन हुआ, उसकी मानवीय पीड़ा का आकलन मेरे नए उपन्यास में आता है। आप उसे आज सीरिया में या रोहिंग्या मुसलमानों के होते विस्थापन से जोड़कर पढ़ सकते हैं।

इन दिनों के लेखक के ऊपर मार्केटिंग का ज़िम्मा भी होता है। इसके लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सक्रिय होना पड़ता है। आप इसे कितना सही मानती हैं?

हिंदी लेखक के लिए तो यह वरदान की तरह है। वरना लेखक को पता ही नहीं होता था कि उसके पाठक कौन हैं। प्रकाशक को उसकी किताब के प्रमोशन में दिलचस्पी लेते हुए देखना कम ही संभव होता था।

आपके तीन सबसे पसंदीदा हिंदी लेखक?

विनोद कुमार शुक्ल, उदय प्रकाश और गीतांजलिश्री।