हिंदी का पहला मुसलमान कवि

हिंदी साहित्य को 11वीं-12वीं सदी का एक मुसलमान कवि मिला, जिसे नाम दिया गया—महाकवि अब्दुल रहमान। अब्दुल रहमान को ‘हिंदी का पहला मुसलमान कवि’ मानते हैं। हिंदीवालों के हिसाब से अब्दुल रहमान के बाद हिंदी के दूसरे बड़े कवि अमीर ख़ुसरो हुए। अब्दुल रहमान ने ‘संदेश रासक’ नामक प्रसिद्ध काव्य की रचना की है, जिस पर हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे हिंदी के बड़े लेखकों ने किताब लिखी है। अब महाकवि अब्दुल रहमान पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं।

अब्दुल रहमान ने अपनी इस प्रसिद्ध काव्य-रचना में अपना नाम ‘अद्दहमाण’ लिखा है, जिसे अब्दुल रहमान के रूप में पहचाना गया। इसमें कोई विवाद नहीं है। गुजरात के पाटण ज़िले में जैन साहित्य के ढेर में अचानक इनकी रचना की मूल प्रति हाथ लगी और मुनि जिनविजय इसे पहली दफ़ा दुनिया के सामने लाए। अब्दुल रहमान की पैदाइश के साल के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं मिला, पर उनके लिखने के अंदाज़ से नतीजा निकाला गया कि वह अमीर ख़ुसरो से कोई दो सौ साल पहले भारत में जन्मे थे।

11वीं सदी में ‘संदेश रासक’ में अब्दुल रहमान ने ख़ुद बताया कि उनके हिंदू पिता मीर सेन जुलाहा जाति के थे। वह मुल्तान में रहते थे, जिसे मलेच्छ प्रदेश कहा जाता है। वह मज़हब बदलकर ‘मीर सेन’ से ‘मीर हुसैन’ हो गए और मुल्तान छोड़कर गुजरात के पाटण में बस गए। हिंदुओं तथा जैनों के बीच में रहने की वजह से उन्होंने संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश सीख ली। अब्दुल रहमान के बारे में इससे ज़्यादा और कुछ नहीं पता चल पाया। उर्दू की तारीख़ में अब्दुल रहमान एक अहम कड़ी इसलिए हैं कि मुस्लिम होने के बावजूद उनकी किताब में फ़ारसी-अरबी का एक भी लफ़्ज़ नहीं है। उनका साहित्य उस प्राकृत-अपभ्रंश ज़बान का है, जिसे हिंदी के विद्वान पुरानी हिंदी कहते हैं।

अब्दुल रहमान के ‘संदेश रासक’ में 12वीं सदी के भारतीय जीवन की एक पूरी तस्वीर दिखती है। वह मुल्तान में पैदा हुए, फिर उत्तर भारत आ गए। अपने काव्य में वह अन्य हिंदुओं की तरह मुल्तान को ‘मलेच्छ देश’ कहते हैं, क्योंकि वहाँ मुसलमानों का क़ब्ज़ा बहुत पहले हो चुका था।

यह सच है कि शुरू-शुरू में इस्लाम क़बूल करने वाले ज़्यादातर हिंदू कारीगर थे, जिन्हें हिंदू समाज में बहुत अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। दूसरे नंबर पर इस्लाम क़बूल करने वाले बुनकर जाति के लोग थे, जो मलमल और सिल्क के कपड़ों पर बेल-बूटे की शानदार नक़्क़ाशी करते थे। यह स्वाभिमानी क़ौम थी। लेकिन उन्हें हिंदू समाज में बराबरी का दर्जा नहीं था। न ही इनके काम का बहुत सम्मान था। लेकिन इनके हाथ के बुने कपड़ों की ऊँचे राजघारानों में ज़बरदस्त माँग बनी रहती थी। (हिंदी काव्य, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ-31)

वे जो इस काम से ऊब गए, मुस्लिम हमलावरों की फ़ौज में शामिल हो गए और बड़े शौ‌क़ से उनकी लूट में हिस्सेदार हो गए। महमूद ग़ज़नवी ने अपनी सेना में जमकर छोटी जातियों के हिंदुओं को भर्ती किया—वह भी उनका धर्म-परिवर्तन किए बिना। यह एक बड़ी बात थी। छोटी जात के हिंदू भी मुस्लिम फ़ौज में भर्ती के लिए उतावले हुए। सिवंदराय भी इनमें एक था जिसे अश्वारोही सेना का सरदार बनाया गया। महमूद की सेना ने नीची जातियों के योग्य हिंदुओं के लिए उच्च पदों के रास्ते खोले। जो अब तक संभव नहीं था। तिलक इसी में एक था। वह जात का नाई था। लेकिन बहादुर और गुणी। वह हिंदी और फ़ारसी लिख, पढ़ और बोल सकता था। बहुत जल्द वह महमूद का भरोसेमंद हो गया। वह महमूद का निजी सचिव, दुभाषिया और दूत हो गया। दूत के रूप में उसे शाही वस्त्र, सोने की मोटी माला, रत्नजड़ित छत्र और शामियाना दिया गया था। उच्च सरकारी पद मिलने पर उसके गाँव में सेना भेजकर नगाड़े बजाए गए और सुनहरे ध्वज लहराए गए। भारत पर हमला करने से पहले वह महमूद के संदेसे लेकर हिंदू राजाओं के पास जाता कि वे महमूद के लिए अपने राज्य का रास्ता दे दें, उन्हें कोई नुक़सान नहीं पहुँचेगा।

जारी…

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