एक उपन्यास जो आज भी बेचैन कर देता है

Last night I dreamt I went to Manderley again.

‘रात मैंने सपना देखा कि मैं फिर मैन्डर्ले गई हूँ।’—दाफ्न द्यू मोरिये के उपन्यास ‘रेबेका’ की यह पहली पंक्ति विश्व साहित्य में अमर हो चुकी है। इसे पढ़ने के साथ ही हम एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करते हैं, जहाँ हवाओं में अनिश्चय, दुविधा और कोई अज्ञात भय तैर रहा है। अस्सी बरस से ऊपर हो गए मगर इस उपन्यास का जादू ख़त्म नहीं होता। आज भी इसे पढ़ते हुए आपको सहसा यक़ीन हो जाता है कि इस धरती और मानव मन में कई अँधेरे कोने हैं, जिसमें आज भी जाने कितनी अनसुलझी गुत्थियाँ हैं। ‘रेबेका’ को पढ़ते हुए पाठक एक साथ दो सतहों से गुज़रता है, एक में हमारी रोज़मर्रा की दुनिया की छोटी-छोटी घटनाएँ, बातें और चिंताएँ हैं, वहीं दूसरी तरफ़ कुछ ऐसा है जो मनुष्य के देखने की सीमाओं से परे है। ‘रेबेका’ आपको यक़ीन दिलाती है कि मनुष्य उतना ही रहस्यमय है, जितना कि इस अपरिमित सृष्टि में उसका अस्तित्व।

मैंने क़रीब 17-18 साल की उम्र में जब पहली बार इस उपन्यास को पढ़ा था तो हर पन्ने को पलटते हुए एक अजीब-सी बेचैनी मन में उठती जाती थी। गोरखपुर की लाइब्रेरी में बहुत-सी पुरानी दुर्लभ किताबों का ज़ख़ीरा था, जिसमें रेनॉल्ड्स की ‘लंदन रहस्य’ सीरीज़ और मोरिये की ‘रेबेका’ का हिंदी अनुवाद भी मौजूद था। ‘रेबेका’ के इस अनुवाद की चर्चा अब नहीं मिलती, यह 1961 में सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित हुआ था और इसका अनुवाद शांति भटनागर ने किया था। यह उपन्यास ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में धारावाहिक भी छपा था। निःसंदेह यह अनुवाद बहुत ही शानदार था। जब मैंने इसे पढ़ना शुरू किया तो ब-मुश्किल इस उपन्यास को रख पाता था। जब रखता था तब भी उसकी घटनाएँ और किरदार मन में घुमड़ते रहते थे। पिछले दिनों मैंने दुबारा इस उपन्यास को पढ़ा। किशोरवय या युवावस्था में पढ़ी-देखी गई रचनाएँ और फ़िल्में बहुत बार बाद में अपना जादू खो देती हैं। इस उपन्यास के साथ ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ़ मेरे साथ है। पाठकों की कई पीढ़ियाँ धुँध में खोई उस रहस्यमय महल मैन्डर्ले की भूल-भुलैया में उसी तरह धड़कते दिल के साथ भटकती रही हैं, जैसे कि इस उपन्यास के प्रकाशित होने के बाद पढ़ने वाले भटके होंगे।

यह विचित्र है कि इस उपन्यास की नायिका का नाम हमें अंत तक नहीं पता चलता। वही इस पूरी कहानी को अपने नज़रिए से कह रही है। पहली नज़र में यह उपन्यास शॉर्लट ब्रांटी के नॉवेल ‘जेन आयर’ से प्रभावित लगता है—एक निम्न मध्यवर्गीय परिवेश से आई लड़की की कहानी, जिसे अपने भविष्य के बारे में कुछ पता नहीं है। वह एक थोड़ी स्वार्थी और बदमिज़ाज महिला मिसेज हॉपर की सेविका बनकर अपने दिन गुज़ार रही है। मोंटे कार्लो के एक होटल में उनकी मुलाक़ात मैक्सिम द विंटर से होती है, जो एक अमीर आदमी है और अपनी पारिवारिक विरासत की बदौलत मैन्डर्ले जैसे शानदार महल का मालिक है। मिसेज हॉपर अपनी आदत के मुताबिक मैक्सिम से जान-पहचान बनाना चाहती हैं। कुछ स्वाभाविक-सी घटनाएँ होती हैं और मैक्सिम हमारी नायिका में दिलचस्पी लेने लगता है। इस बीच मिसेज हॉपर बीमार हो जाती हैं तो मिलने-जुलने का वक़्त और ज़्यादा मिलने लगता है। कुछ समय के लिए नायिका के जीवन में छाई उदासी की बदली छँट जाती है।

उनके बीच लगाव बढ़ता जाता है और एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में मैक्सिम द विंटर उपन्यास की नायिका से शादी का प्रस्ताव रख देते हैं। अब तक हमें भी यह पता लग चुका है कि एक साल भी नहीं बीते हैं, मैक्सिम की पहली पत्नी रेबेका का एक दुर्घटना में निधन हो गया है और वह उसके सदमे से उबरने की कोशिश में है। रेबेका के अस्तित्व से हमारी नायिका का साक्षात् उसकी लिखावट के माध्यम से होता है। मैक्सिम की कार में पड़ी एक किताब जो कभी उसने अपने पति को उपहार में दी होगी। मोरिये लिखती हैं, “मैंने पुस्तक फिर से उठा ली, इस बार उसका पहला पृष्ठ खुल गया, जिस पर ये शब्द एक विचित्र तिरछी लिपी में लिखे हुए थे—मैक्स को रेबेका की भेंट—17 मई। स्याही के धब्बे से साथ वाला पन्ना कुछ ख़राब हो गया था। ऐसा लगता था कि लिखने वाली ने जल्दी से स्याही बाहर निकालने के लिए क़लम को झटक दिया था और निब पर ज़्यादा स्याही आ जाने के कारण रेबेका कुछ गहरा लिखा गया था। टेढ़े और लंबे आर के सामने दूसरे शब्द बौने लग रहे थे।”

दोनों की शादी हो जाती है और हम नायिका के साथ मैक्सिम के पारिवारिक महल मैन्डर्ले के भीतर दाख़िल होते हैं। यह किसी भूल-भुलैया जैसा है, जहाँ विशाल कमरे हैं, लंबे गलियारे, सीढ़ियाँ, बाहर फूलों के बाग़ीचे, कई मील में फैला जंगल और महल के पश्चिमी हिस्से की ओर उफनता सागर। मैक्स की पहली पत्नी रेबेका को हमने कुछ समय पहले एक टेढ़े और लंबे आर के रूप में पहचाना था, हम पाते हैं कि मृत्यु के बाद भी उसका अस्तित्व हर जगह है। नैपकिन, लेटरपैड, लिफ़ाफ़े और विजटिंग कार्ड पर उसी तिरछी लिपि में लिखा हुआ ‘आर’। और यहीं पर नायिका की मुलाक़ात घर की मुख्य सहायिका मिसेज डैनवर्स से होती है, जो अँग्रेज़ी उपन्यासों के कुछ सबसे यादगार नकारात्मक चरित्रों में से एक है। यक़ीनन अल्फ़्रेड हिचकॉक को सबसे ज़्यादा मुश्किल मिसेज डैनवर्स के लिए अभिनेत्री का चुनाव करते वक़्त हुई होगी। पहली ही मुलाक़ात में हमारी बेनाम नायिका यह भाँप जाती है कि मिसेज डैनवर्स उसे पसंद नहीं करती। ‘रेबेका’ के हिंदी अनुवाद में इस पहली मुलाक़ात का कुछ इस तरह से वर्णन है, “आदमियों की उस भीड़ में से एक लंबी-पतली सूरत मेरी ओर बढ़ी। गहरे काले रंग के कपड़े, गाल की हड्डियाँ ऊँची और उभरी हुई, आँखें गढ़े में धँसी हुईं। ऐसा लग रहा था जैसे किसी कंकाल पर सफ़ेद खोपड़ी टाँग दी गई हो। वह मेरी ओर बढ़ी और मैंने मन ही मन में उसकी शान और धैर्य पर ईर्ष्या करते हुए उसकी ओर अपना हाथ बढ़ाया और जब उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया तब मैंने ऐसा अनुभव किया जैसे एक थुलथुली मुर्दे जैसी ठंडी चीज़ मेरे हाथ में आ गई हो। उसका हाथ मेरे हाथ में बिल्कुल निर्जीव पड़ा था।”

महल का पश्चिमी हिस्सा बंद रहता है, जहाँ रेबेका रहा करती थी। महल के पश्चिमी हिस्से में बाहर समुद्र की तरफ़ एक छोटा-सा बोट-हाउस होता है, जिसके आस-पास एक रहस्यमय पागल-सा व्यक्ति मंडराता रहता है। रेबेका नहीं होती है, मगर जैसे उसकी आहट इस महल के विशाल लंबे गलियारों में गूँजती रहती है, तूफ़ानी रातों में इस महल की खिड़कियों पर उसकी यादें दस्तक देती हैं, हर किसी की आँखों में रेबेका की अतीत में देखी गई परछाईं मौजूद है… और हमारी नायिका विचलित होती चलती जाती है। उसके और मिसेज डैनवर्स के बीच गहन मनोवैज्ञानिक टकराव जारी रहता है। रेबेका के इस आतंक से हमारी नायिका हर पृष्ठ हर अगले अध्याय में दरकती जाती है और उस वक़्त वह लगभग टूटकर बिखरने को होती है जब डैनवर्स के रचे एक जाल की वजह से मैक्सिम भी उससे नाराज़ हो जाता है।

इस तनाव का बयान उपन्यास के हिंदी अनुवाद में कुछ इस तरह है, “फ्रैंक ने मुझसे कहा था कि मैं अतीत को भूल जाऊँ और मैं भूलना चाहती भी थी, लेकिन फ्रैंक भला मेरी स्थिति को क्या समझ सकते थे, उन्हें न तो मेरी तरह रोज़ाना सुबह वाले कमरे में बैठना पड़ता था, न ही उस क्रम से लिखना पड़ता था, जिसे कभी रेबेका अपनी उँगलियों बीच पकड़ा करती थी। फ्रैंक को मेज़ पर रखे हुए स्याह-सोख पर कुहनी टेककर पत्रों के उस डिब्बे को भी दिन-प्रतिदिन नहीं देखना पड़ता था, जिस पर रेबेका ने अपने हाथों से कुछ लिख रखा था। उन्हें कार्निस पर रखी हुई मोमबत्ती-दानी, घड़ी, फूलदान और दीवार पर टँगी हुई तस्वीरें भी देखनी नहीं पड़ती थीं, न ही इन चीज़ों को देखकर उन्हें यह याद करने की ज़रूरत पड़ती थी कि ये चीज़ें रेबेका की थीं और उन्हें उसी ने ही वहाँ चुन-चुनकर सजाया था। फ्रैंक को खाने की मेज़ पर बैठकर वे काँटे-छुरी भी नहीं पकड़ने पड़ते थे, जिन्हें रेबेका पकड़ा करती थी और न उन्हें उस गिलास में पानी पीना पड़ता था, जिसमें रेबेका पिया करती थी फ्रैंक ने कभी अपने कंधों पर वह बरसाती नहीं डाली थी, जो रेबेका की थी और जिसमें उसका रूमाल था। न ही फ्रैंक को रोज़ाना यह देखना पड़ता था कि किस तरह वह कानी कुतिया मेरे पैरों एक स्त्री के पैरों की आवाज़ सुनकर अपने कान खड़े कर लेती थी, लेकिन फिर हवा को सूँघकर अपना सिर नीचे को छिपा लेती थी, क्योंकि मैं वह नहीं थी, जिसकी वह तलाश में थी।”

मैंने कई बार सोचा है कि इस उपन्यास में ऐसा कौन-सा जादू है जो हर बार सिर चढ़कर बोलता है। जब यह प्रकाशित हुआ तो इसे नए पहनावे में एक गॉथिक रोमांस की संज्ञा दी गई थी। दरअसल, इसका जादू दाफ्न द्यू मोरिये की जादुई लेखनी में है। उपन्यास के नैरेटर का कोई नाम न होना एक अजीब-सा विरोधाभास रचता है, क्योंकि उसके बरअक्स एक औरत है जिसका सिर्फ़ नाम लोगों के ज़ेहन और मैन्डर्ले महल में अपनी पूरी ताक़त और हठ के साथ मौजूद है—किसी जिद्दी प्रेत की तरह। नायिका एक अंडरडॉग है। आर्थिक रूप से कमज़ोर, बिना माँ-बाप की एक लड़की, जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं। अब अगर आप ग़ौर करें तो यह उपन्यास नायिका के स्वप्न से आरंभ होता है। यानी बतौर पाठक हमारी यात्रा उसके अवचेतन से शुरू होती है। लेखिका अपने उपन्यास की पहली पंक्ति से ही हमें नायिका के साथ जोड़ लेती है। उसके संशय हमारे संशय बन जाते हैं और उसकी बेचैनी हमारी बेचैनी। यह लड़की बिल्कुल वैसे ही सोचती है जैसे कि कोई भी युवा लड़की। पल भर में ही वह सपने देखने लगती है और पल भर में उदास और हताश हो जाती है। यह सब कुछ इतना मानवीय है कि हम साँस रोककर उसके भाग्य से बँधे-बँधे घिसटते रहते हैं और कामना करते हैं कि उसके साथ कुछ अच्छा हो जाए। अंत में यही लड़की हिम्मत जुटाकर सामने आई मुश्किलों का सामना करती है।

इस उपन्यास के प्रकाशित और लोकप्रिय होने के दो साल बाद अलफ़्रेड हिचकॉक ने 1940 में इस पर फ़िल्म बनाई। अमेरिकी निर्माताओं के साथ यह उनकी पहली फिल्म थी। हिचकॉक ने इस फ़िल्म में अपनी जानी-पहचानी मोतांज शैली की बजाय ट्रैकिंग शॉट्स का प्रयोग किया था। हमेशा की तरह हिचकॉक की दिलचस्पी नायिका के मनोवैज्ञानिक भय और दबावों को उभारने में ज़्यादा रही। उन्होंने मोरिये की शैली को पहचान लिया था। इसलिए उनका कैमरा नायिका के साथ बना रहता है। नायिका के किरदार में अभिनेत्री जोन फांतेन ने दुविधा और हीन भावना से दबी एक लड़की के रूप में उपन्यास के किरदार को जीवंत कर दिया है। ‘रेबेका’ फ़िल्म में हिचकॉक ने एक गॉथिक उपन्यास को फ्रेंच नॉयर (नोआ) शैली की फ़िल्म में बदल दिया। पूरी फ़िल्म में महल के भीतर घटती-बढ़ती रोशनियों और परछाइयों का इस्तेमाल संशय का वातावरण बनाने और नायिका के पल-पल बदलते मनोभावों को दिखाने के लिए किया है। यह कुछ आरंभिक फ़िल्मों में से एक है जिसमें वायस ओवर का इस्तेमाल किया गया है। मिसेज डैनवर्स के रोल में जूडिथ एंडर्सन ने उस किरदार के सनक या पागलपन की हद तक जाते जटिल मनोभावों को बख़ूबी निभाया है। उपन्यास की तरह फ़िल्म के अंत में भी मैन्डर्ले आग की भेंट चढ़ जाता है। विचित्र तिरछी लिखावट वाली चादरें, तकिए आग की भेंट चढ़ जाते हैं और हिचकॉक बताते हैं कि रेबेका की स्मृतियाँ राख हो गई हैं। वहीं 2020 में नेटफ्लिक्स पर रिलीज निर्देशक बेन व्हीट्ली की ‘रेबेका’ एक औसत फ़िल्म बनकर रह गई। एक रोमांटिक थ्रिलर के जॉनर में तैयार की गई इस फ़िल्म भी मैन्डर्ले मौजूद है, वह भव्य और ख़ूबसूरत तो लगता है मगर वह भय या कौतूहल नहीं जगाता जो हिचकॉक की फ़िल्म का केंद्रीय असर है। न यह मोरिये के उपन्यास की तरह मन के भीतर चल रही उथल-पुथल को ही दर्शा पाता है। नतीजा, यह एक औसत फ़िल्म बनकर रह गई।

इस पूरे सिलसिले में ‘रेबेका’ पर आधारित 1964 में रिलीज बीरेन नाग की फिल्म ‘कोहरा’ को भी ख़ास तौर पर याद किया जाना चाहिए। मुझे ‘रेबेका’ का यह संस्करण कई मायनों में उल्लेखनीय लगता है। इसकी पटकथा ध्रुव चटर्जी ने लिखी थी, जिन्होंने ‘बीस साल बाद’, ‘वो कौन थी?’, ‘इंतक़ाम’ और ‘कब? क्यूँ? और कहाँ?’ जैसी थ्रिलर और सस्पेंस फ़िल्मों की कथा-पटकथा लिखी। ‘कोहरा’ में विश्वजीत सामान्य रहे, मगर फ़िल्म के दो अहम किरदारों को नायिका वहीदा रहमान और मिसेज डैनवर्स का भारतीय संस्करण दाई माँ बनी ललिता पवार ने यादगार बना दिया है। उदासी में डूबी इस फ़िल्म में वहीदा के चरित्र में कोई स्थायी अवसाद बैठा नज़र आता है।

क्रमशः ‘रेबेका’ (1940), ‘कोहरा’ (1964), ‘रेबेका’ (2020)

इस फ़िल्म में वहीदा हमेशा आँसुओं के बीच मुस्कराती नज़र आती हैं। वहीं ललिता पवार ने नए सिरे से लिखे गए एक जटिल किरदार को निभाया है। बीरेन नाग चूँकि गुरुदत्त के साथ कई फ़िल्मों के कला-निर्देशक रहे तो उन्होंने मैन्डर्ले की तर्ज़ पर मेफ़ेयर महल को बड़ी ख़ूबसूरती से तैयार किया। यह अद्भुत रिहाइश मुंबई के राजकमल कला मंदिर में तैयार की गई। इस फिल्म को देखते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि उन्होंने मूल उपन्यास में मैन्डर्ले की भव्यता से ज़रा भी समझौता नहीं किया है। बिल्कुल उसी तरह महल के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से, और सागर तट के पास बना एक आउट हाउस। फ़िल्म में दो अहम बदलाव किए गए—पहला बदलाव यह है कि हम पूनम यानी रेबेका को फ़िल्म के कुछ हिस्सों में स्क्रीन पर देखते हैं, मगर कहीं भी उसका चेहरा नहीं दिखाया जाता। दूसरा, निर्देशक ने फ़िल्म का अंत बदल दिया है, इसके बारे में बताना उन लोगों के साथ अन्याय होगा जिन्होंने यह फ़िल्म नहीं देखी, मगर मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि यह अंत दाफ्न द्यू मोरिये के सोचे गए अंत से कम दिलचस्प नहीं है।

फ़िल्म के रूप में देखें तो आज की फ़िल्मों मे भय की ‘किक’ देने वाले दृश्य इसमें भी बहुत सारे हैं और उन्हें बहुत अच्छे तरीक़े से फ़िल्माया गया है। ख़ास तौर पर अगर हम उस दृश्य की तुलना करें जिसमें हमारी नायिका अनभिज्ञता में रेबेका की पोशाक पहनकर पार्टी में आ जाती है तो ‘कोहरा’ का दृश्य हिचकॉक और हाल में आई फ़िल्म से ज़्यादा प्रभावशाली है। उन दोनों फ़िल्मों में नायिका सीढ़ियों से उतरती है और मैक्स देखकर हैरत में पड़ जाता है। मगर ‘कोहरा’ में नायिका पूनम की ड्रेस पहनकर नायक की तरफ़ पीठ करके कुर्सी पर बैठी होती है, जब नायक विश्वजीत उसे देखते हैं तो ड्रेस देखकर मानो यह भ्रम होता है कि रेबेका लौट आई है। इसे बहुत प्रभावशाली ढंग से दिखाया गया है। इसी तरह से ‘रेबेका’ के दोनों विदेशी संस्करणों में मिसेज डैनवर्स एक तनाव भरे क्षण में नायिका को महल की ऊँची खिड़की से कूदकर आत्महत्या के लिए उकसाती है, मगर ‘कोहरा’ की नायिका वहीदा रहमान का तनाव इस क़दर बढ़ जाता है कि उसे लगता है कि पूनम (यानी रेबेका) की अज्ञात फुसफुसाहट उसे बुला रही है और महल से नीचे गिरने वाली होती है कि विश्वजीत आकर उसे बचा लेते हैं। वहीदा रहमान की कुछ यादगार फ़िल्मों में से एक ‘कोहरा’ भी है।

‘‘ये नयन डरे डरे…’’ गीत का फ़िल्मांकन अद्भुत है, जो एक साथ प्रेम, संशय, अनिश्चय और अवसाद के भावों में डूबा हुआ है। कभी अकेले बैठकर यह गीत सुन लीजिए। बस, ये ही दाफ्न द्यू मोरिये का भी जादू है। ऊपर से गिरती लताओं की परछाइयों के बीच आगे बढ़ती वहीदा रहमान। एक पल को निगाह उठती है तो रोशनी में आँखों में भर आए आँसू चमक उठते हैं और उनके नीचे की कालिमा किसी स्याह रात की तरह मन में छा जाती है। उस कुम्हलाए चेहरे पर हँसी भी एक अवसाद-सा जगा जाती है। महल की जगमगाती रौशनी में खुले बाल और थकी आँखें लिए वहीदा रहमान किसी सवाल की तरह खड़ी नज़र आती हैं। वापस चलते हैं 1938 से पहले के सालों में जब दाफ्न द्यू मोरिये इस उपन्यास के ड्राफ़्ट पर काम कर रही होंगी। उनकी यादों में मेलाबिली का वह महल घूम रहा होगा, जहाँ कभी उनका बचपन गुजरा था और जिसकी स्मृतियों से उन्होंने मैन्डर्ले को साकार किया था। वह जगह आज भी नहीं बदली है। उस जगह की तस्वीरों में हमें आज भी हरे रंग के विशाल मैदान, उनके बीच पेड़ों की क़तार, हवा में हिलते जंगली फूल, सागर के पानी में गिरती पथरीली ढलानें और उनके आगे दूर तक फैली सागर की हरीतिमा, आसमान में हमेशा छाए रहने वाले स्लेटी बादल नज़र आते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे ये सब मिलकर आपसे कुछ ऐसा कहना चाहते हैं, जो अभी तक कहा नहीं गया है। कोई ऐसी कहानी जो अब तक अज्ञात है। हमें याद आता है कि इन्हीं ढलानों पर हमारी नायिका मौजूद थी। हमें महसूस होता है कि इन्हीं जंगली झाड़ियों और उनमें उगे फूलों से होती हुई वह उस अज्ञात बोट-हाउस की तरफ बढ़ रही है, जहाँ रेबेका से जुड़ा कोई भयानक रहस्य मौजूद है।

धीरे से आपके कानों में कोई फुसफुसाता है, मानो रेबेका समय की धुँध को चीरती हुई आज भी मौजूद है। आप किताब बंद करके रख देते हैं। मगर किताबों की यही ख़ूबसूरती है, वे ख़त्म होने के बाद भी आपके साथ रहती हैं। हमेशा…