हिंदी में दाख़िला
नौकरी और पढ़ाई दोनों एक साथ करना आसान नहीं होता। आपको बहुत बार जिस जगह होना चाहिए, आप वहाँ नहीं हो पाते… और यह कोई नई बात तो नहीं है, ऐसा अक्सर बहुतों के साथ और बहुत बार होता है।
मेरे लिए यह फ़ैसला लेना आसान नहीं रहा कि मुझे रेगुलर एम.ए. (हिंदी) करना चाहिए या फिर एनसीवेब (नॉन कॉलेजिएट महिला शिक्षा बोर्ड) से… हालाँकि ओपन से परास्नातक करने का विकल्प हमेशा से मेरे पास रहा है, लेकिन मुझे यह विकल्प कभी पसंद नहीं आया। व्यक्तिगत तौर पर मैं कभी भी ओपन से पढ़ाई करने के पक्ष में नहीं रही हूँ… बाक़ी सबकी अपनी-अपनी वजह होती हैं—रेगुलर और ओपन से पढ़ाई करने को लेकर… इसलिए मैं इस विषय पर कोई विशेष टिप्पणी नहीं करना चाहती।
यहाँ जिन लोगों को पता नहीं है, उन्हें मैं यह बता दूँ कि दिल्ली विश्वविद्यालय के माध्यम से आप तीन तरह से स्नातक और परास्नातक की डिग्री प्राप्त कर सकते हैं—एक तो आप रेगुलर कॉलेज में एडमिशन ले सकते हैं, दूसरा अगर आप स्त्री हैं तो आपको नॉन कॉलेजिएट महिला शिक्षा बोर्ड के अतंर्गत दाख़िला मिल सकता है, तीसरा और आख़िरी तरीक़ा यह है कि आप स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग (एसओएल) के माध्यम से स्नातक और परास्नातक में दाख़िला ले सकते है।
मैंने जब यह सोचा कि हिंदी में परास्नातक करना चाहिए तो मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल यही था कि मैं रेगुलर से एम.ए. करूँ या फिर एनसीवेब से, क्योंकि दोनों का पाठ्यक्रम एक समान है और मुझे जितना बताया गया था उसके आधार पर दोनों डिग्री की मान्यता भी बराबर होती है। लेकिन दोनों में एक फ़र्क़ होता है कि रेगुलर में आपकी रोज़ क्लास होती है, जबकि एनसीवेब में हफ़्ते में दो दिन (शनिवार और रविवार को) क्लास होती है या जब रेगुलर कॉलेज की छुट्टी होती है, तब एनसीवेब वाले छात्राओं की रेगुलर क्लास हो जाती है।
मेरी एक बहुत ख़ास दोस्त है। हम दोनों का नाम दिल्ली विश्वविद्यालय के कई रेगुलर कॉलेज में आ चुका था और वह मुझे समझा रही थी कि मैं रेगुलर में दाख़िला ले लूँ। उसका कहना था कि मैं रेगुलर कॉलेज और नौकरी दोनों को एक साथ मैनेज कर सकती हूँ। लेकिन मुझे पता था कि मेरे लिए दोनों को एक साथ मैनेज करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसलिए मैंने उससे कहा कि एनसीवेब में दाख़िला लिया जाए, ओपन से तो सही रहेगा—कम से कम में हफ़्ते में दो दिन क्लास ले पाऊँगी और नौकरी भी नहीं छोड़नी पड़ेगी।
मैंने बहुत सोच-विचार करने के बाद एनसीवेब में दाख़िला ले लिया, क्योंकि रेगुलर में अगर मैं एडमिशन लेती तो मुझे नौकरी छोड़नी पड़ती जो कि मैं नहीं छोड़ सकती थी। नौकरी के साथ पढ़ाई करना अपने आपमें एक बड़ी बात होती है। पता नहीं लोगों को मेरी यह बात इतनी सही लगेगी या नहीं, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि नौकरी और पढ़ाई दोनों एक साथ करना सबके बस की बात नहीं है; क्योंकि एक नौकरीशुदा व्यक्ति रोज़ की भागदौड़ से इतना थक जाता है कि घर लौटकर उसे पढ़ाई भी करनी है, यह बात वह बिल्कुल भूल ही जाता है।
अब अगर कोई यह कहता है कि ऑफ़िस से घर आने के बाद बहुत समय होता है, उसमें आप आराम से अपना सिलेबस कवर कर सकते हैं, तो मैं उसे यह बता दूँ कि ऑफ़िस से घर आकर भी घर के बहुत से ऐसे काम होते हैं जो स्त्रियों को करने पड़ते हैं और इन कामों से किसी भी सूरत में इनकार नहीं किया जा सकता और न ही इन्हें कल के लिए स्थगित किया जा सकता है।
नौकरी, पढ़ाई, घर का काम एक साथ सँभालना आसान तो नहीं है; लेकिन करना पड़ता है, क्योंकि आप इनमें से किसी भी चीज़ को छोड़कर नहीं चल सकते। सबका मुझे पता नहीं, लेकिन मैं जिस तरह की इंसान हूँ—मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है कि मैं ख़ुद को समय के साथ ढाल सकूँ और अपना मानसिक विकास करती रहूँ।
मेरे लिए किसी विषय की पढ़ाई का अर्थ है—उस विषय का पूर्ण अध्ययन करना, उससे जुड़ी बातों पर तर्क-वितर्क करना… और यह मैं अकेले घर पर बैठकर नहीं कर सकती। और शायद यही कारण है कि मैं कभी ओपन से पढ़ाई करना नहीं चाहती। आपका बाहर निकलना और दुनिया को समझना बहुत ज़रूरी होता है; क्योंकि आप जिस समाज में रह रहे होते हैं, वहाँ पर क्या चल रहा है, इसका ज्ञान आपको होना चाहिए।
ख़ैर, हिंदी पत्रकारिता पढ़ते समय हमें एक हिंदी का पेपर भी पढ़ाया गया था; ग़नीमत है जिसकी वजह से मुझे हिंदी परास्नातक में दाख़िला मिल पाया। मैं जब विश्वविद्यालय दाख़िला लेने पहुँची तो वहाँ पर मेरे अलावा सभी छात्राएँ हिंदी ऑनर्स या फिर बी.ए. प्रोग्राम वाली थीं। बेहद जद्दोदहद के बाद मेरा नंबर आया, मुझे दाख़िले के लिए अंदर बुलाया गया। …और इस तरह से मैंने हिंदी परास्नातक में दाख़िला ले लिया।
जारी…
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पिछली किश्त यहाँ पढ़ें : मैंने हिंदी को क्यों चुना