हिंदी साहित्य का मतलब

आपकी ज़िंदगी में अगर कुछ बदलाव होते हैं तो वह एकदम नहीं हो जाते, उनके पीछे काफ़ी समय और संघर्ष लगा होता है; बस हमें पता नहीं चलता…

स्कूल और कॉलेज तक मैंने हिंदी को सिर्फ़ उतना ही पढ़ा जितना हमें पढ़ाया गया और जितने की ज़रूरत उस समय महूसस होती थी या यूँ कह लीजिए पेपर में लिखने मात्र के लिए जितने की ज़रूरत पड़ती थी।

मैंने स्कूल में जो हिंदी साहित्य पढ़ा, उसका बेहतर मतलब अब जाकर समझ में आता है। ऐसा नहीं है कि उस समय स्कूल के सिलेबस में जो कहानी, कविता, दोहे, पद आदि लगाए जाते थे; वे बहुत मुश्किल होते थे या अध्यापक उसे अच्छे से समझा नहीं पाते थे… बात यह है कि बस उस समय विद्यार्थियों का मानसिक विकास हो रहा होता है, इसलिए साहित्य को पढ़कर जो समझ बाद में बनती है; वह उस दौरान नहीं बन पाती।

हाँ कुछ कहानी, कविता, दोहे आदि की छाप दिमाग़ में ज़रूर रह जाती है जो कि उस वक़्त भी हमें कुछ सोचने पर मजबूर करती थी; जैसे : कबीर के दोहे, प्रेमचंद की कहानियाँ, सुभद्राकुमारी चौहान की कविता ‘झाँसी की रानी’ आदि ऐसा ही हिंदी साहित्य है; जिसने उस समय मुझे सोचने के लिए मजबूर किया था।

आज भी जब मैं एम.ए. हिंदी साहित्य की क्लास में बैठती हूँ, तो मुझे अपने स्कूल के दिनों के हिंदी पीरियड की याद आ जाती है। कैसे मैं क्लास में खड़ी होकर रीडिंग करती थी और पूरी क्लास का ध्यान इस ओर होता था कि मैं क्या पढ़ रही हूँ। उस समय क्लास में रीडिंग करते-करते अचानक से आँखों के सामने जो होता था, मैं उसको कुछ और पढ़ देती थी और आज भी कभी-कभी वही चीज़ मेरे साथ होती है। इस बात को मैं आज तक समझ नहीं पाई कि ऐसा क्यों होता है। शायद पढ़ते-पढ़ते ध्यान कहीं ओर चला जाता होगा। मुझे यह बात सोचकर ख़ुद पर बहुत हँसी भी आती है। अब आप लोग यह मत सोचने लग जाना कि मुझे दिखता नहीं है।

मुझे ऐसा लगता है कि आप किसी भी क्लास में बैठ जाओ, लेकिन स्कूल के दिनों की यादें कुछ ऐसी होती हैं जो आपके साथ हमेशा रहती हैं और समय-समय पर वे आती हैं और आपको एक पुरानी दुनिया में ले जाती हैं।

कॉलेज के शुरुआती दिनों में हमें एक टाइम टेबल दिया गया और साथ ही हमारे साथ एक अजीब-सी घटना घटी। मेरे लिए तो वह अजीब ही थी, लेकिन प्रोफ़ेसर का कहना था कि एम.ए. की क्लासेज़ में अध्यापक को गाइड के रूप में लेना चाहिए, क्योंकि एम.ए. के स्तर की पढ़ाई करते समय हमें ख़ुद से ही ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है। अध्यापक सिर्फ़ सलाहकार का काम कर सकते हैं।

ख़ैर, मैं इस प्रसंग को अजीब इसलिए कह रही हूँ; क्योंकि आज से पहले ऐसा कभी मेरे साथ नहीं हुआ था। जैसा कि पहले भी मैं आपको बता चुकी हूँ—पहले सेमेस्टर में हमें पाँच पेपर पढ़ने थे और सिर्फ़ तीन पेपर पढ़ाने के लिए हमें प्रोफ़ेसर मुहैया हुए थे। अब मुझे यह नहीं पता कि विश्वविद्यालय ने सिर्फ़ एन.सी. वेब के विद्यार्थियों के साथ ही ऐसा किया था या फिर रेगुलर स्टूडेंट के साथ भी यही किया गया था।

आप यक़ीन नहीं करेंगे कि आदिकाल और भक्तिकाल को पहले सेमेस्टर में मैंने ख़ुद से पढ़ा और समझा। इससे पहले मैंने कभी आदिकाल को इस रूप में नहीं पढ़ा था।

जब पहले सेमेस्टर में आदिकाल के लिए हमें प्रोफ़ेसर नहीं मिले तो क्लास के सारे बच्चों के बीच बहुत तनाव का माहौल पैदा हो गया था, क्योंकि हिंदी साहित्य का आदिकाल आसान नहीं है; उसकी भाषा खड़ी बोली हिंदी नहीं होती। उसे पढ़ने और समझने के लिए आपको एक टीचर या गाइड की ज़रूरत पड़ती ही है।

आदिकाल से ‘सरहपा का दोहाकोश’, ‘गोरखनाथ की गोरखबानी’ इन दोनों ही किताबों के बारे में मैंने पहली बार सुना था, इससे पहले मुझे पता भी नहीं था कि हिंदी साहित्य में हमें सिद्धों और नाथों को भी पढ़ना पड़ेगा।

एम.ए. की दूसरी क्लास में मुझे प्रोफ़ेसर से रूह-ब-रूह होना का मौक़ा मिला और उन्हीं में से एक प्रोफ़ेसर का व्यक्तित्व एवं पढ़ाने का तरीक़ा मुझे बहुत पसंद आया। कोई एक पेपर या विषय आपका मनपंसद इसलिए भी बन जाता है, क्योंकि उसको पढ़ाने वाला टीचर आपका प्रिय होता है।

ऐसे ही एक प्रोफ़ेसर से पढ़ने का सौभाग्य मुझे एम.ए. हिंदी फ़र्स्ट सेमेस्टर में मिला, जिनका नाम डॉ. हरनेक सिंह गिल है। सर ने दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘श्री गुरू नानक देव खालसा कॉलेज’ में 39 साल तक एम.ए. के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाई और वहीं से सेवानिवृत्त हुए। इसके साथ ही उन्होंने लगभग 15 साल तक ‘स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग’ में एम.ए. के विद्यार्थियों को हिंदी और पत्रकारिता भी पढ़ाई और साल 2019 से वह एन.सी. वेब में हिंदी पढ़ा रहे हैं।

हिंदी साहित्य के बड़े साहित्यकारों और आलोचकों के बारे में सर अक्सर क्लास में अपने अनुभव साझा करते हैं। वह बीच-बीच में पढ़ाते-पढ़ाते अपने अध्यापक डॉ. नगेन्द्र, भाषा-वैज्ञानिक डॉ भोलानाथ तिवारी, डॉ. निर्मला जैन आदि के बारे में भी बताते हैं। वह बहुत ख़ुशी से हम लोगों के साथ यह सब कुछ शेयर करते हुए अपने पुराने दिनों को याद करते हैं।

उनका पढ़ाने का ढंग दूसरे प्रोफ़ेसरों से इसलिए भी अलग है, क्योंकि वह अपने विषय के अलावा अन्य बहुत से ज़रूरी विषयों की जानकारी पढ़ाते-पढ़ाते छात्रों को दे देते हैं।

अब तक मैं जितने भी प्रोफ़ेसर या टीचर्स से पढ़ी हूँ, उन सभी में से सबसे अलग और मेरे प्रिय प्रोफ़ेसर डॉ. हरनेक सिंह गिल सर ही रहे हैं, क्योंकि उनका पढ़ाने और चीज़ों को प्रस्तुत करने का तरीक़ा मुझे बहुत ज़्यादा पसंद आता है। लगभग 68 साल की उम्र होने के बावजूद उनमें आज भी पढ़ने-पढ़ाने का जो जज़्बा मुझे दिखता है, वह किसी नौजवान में भी दुर्लभ है।

जारी…

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