हिंदी साहित्य के इतिहास के बारे में

कभी-कभी आप बिल्कुल अकेले होते हैं, लेकिन फिर भी आपको अकेलापन महसूस नहीं होता। आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि आपके पास सुकून होता है।

सुकून क्या है? इसकी परिभाषा और अर्थ क्या है? इसके जवाब सबके लिए अलग-अलग हो सकते हैं। जैसे मेरे लिए मंडी हाउस की सड़कों पर टहलना सुकून भरा हो सकता है, लेकिन शायद आपको उससे सुकून न मिले…

मुझे कई बार एम.ए. की क्लास में भी बहुत सुकून मिला है, क्योंकि इससे मुझे कई नई-नई चीज़ें जानने के लिए मिलीं। इससे मेरे अध्ययन का विस्तार हुआ। कुछ अलग तरह के लोगों को देखने और उनसे जुड़ने का अवसर मिला।

इस सिलसिले में पहले सेमेस्टर में मैंने एक पेपर पढ़ा, जिसका नाम था हिंदी साहित्य का इतिहास (आदिकाल से रीतिकाल तक)। इसकी पहली ही क्लास में हमें यह बताया गया कि हिंदी साहित्य को समझने के लिए हमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखी गई उनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ को पढ़ना होगा।

आचार्य शुक्ल हिंदी के अप्रतिम आलोचक, निबंधकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि हैं। शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य को जिस तरह प्रस्तुत किया, उस तरह आज तक शायद ही कोई दूसरा कर पाया।

हाँ, शुक्ल जी से पहले और बाद में दूसरे बहुत से आलोचक और साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य के इतिहास पर काफ़ी किताबें लिखीं, लेकिन जिस तरह का योगदान आचार्य शुक्ल का हिंदी साहित्य के इतिहास को लिखने में रहा; शायद ही वैसा किसी और साहित्यकार का रहा होगा।

आचार्य शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ दरअस्ल ‘हिंदी शब्द सागर’ की भूमिका के रूप में लिखा था। यही भूमिका बाद में स्वतंत्र पुस्तक की तरह वर्ष 1929 में ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के रूप में प्रकाशित हुई।

‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ का संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण वर्ष 1940 में निकला। यह संस्करण प्रथम संस्करण से भिन्न था। इस संस्करण में अन्य चीज़ों के अलावा 1940 तक के हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक विवरण भी दे दिया गया था। इस तरह साहित्येतिहास की यह पुस्तक अब एक मुकम्मल और महत्त्वपूर्ण पुस्तक का रूप ले चुकी थी।

इस ग्रंथ में आदिकाल (वीरगाथा काल) का अपभ्रंश काव्य एवं देशभाषा काव्य के विवरण के बाद भक्तिकाल की ज्ञानमार्गी, प्रेममार्गी, रामभक्ति शाखा, कृष्णभक्ति शाखा और इस काल की अन्य रचनाओं को अध्ययन के केंद्र में रखा गया है।

इसके बाद रीतिकाल के सभी लेखक-कवियों के साहित्य को इसमें समाहित किया गया है और आधुनिक काल के गद्य साहित्य, उसकी परंपरा तथा उत्थान के साथ काव्य को विवेचित किया गया है।

शुक्ल जी ने अपनी इस पुस्तक में लगभग 1,000 रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व का विवेचन किया है और कवियों की संख्या की अपेक्षा उन्होंने उनके साहित्यिक मूल्यांकन को महत्त्व दिया है। हिंदी साहित्य के विकास में विशेष योगदान देने वाले रचनाकारों को ही शुक्ल जी ने इस पुस्तक में शामिल किया है और कम महत्त्व वाले रचनाकारों को इसमें जगह नहीं दी है या दी है तो कम जगह दी है।

शुक्ल जी द्वारा इस पुस्तक में कवियों एवं लेखकों की रचना-शैली का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। इसमें प्रत्येक काल या शाखा की सामान्य प्रवृत्तियों का वर्णन कर लेने के बाद, उससे संबद्ध प्रमुख कवियों का वर्णन किया गया है। उस युग में आने वाले अन्य कवियों का विवरण उसके बाद के फुटकल भाग में दिया गया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संपूर्ण हिंदी साहित्य को अच्छी तरह से समझने के लिए 900 वर्षों के इतिहास को चार कालों में विभक्त किया है :

● आदिकाल (वीरगाथा, काल संवत् 1050-1375)

1. सामान्य परिचय
2. अपभ्रंश काव्य
3. देशभाषा काव्य
4. फुटकल रचनाएँ

● पूर्व-मध्यकाल (भक्तिकाल, संवत् 1375-1700)

1. सामान्य परिचय
2. ज्ञानाश्रयी शाखा
3. प्रेममार्गी (सूफ़ी) शाखा
4. रामभक्ति शाखा
5. कृष्णभक्ति शाखा
6. भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

● उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, संवत् 1700-1900)

1. सामान्य परिचय
2. रीति ग्रंथकार कवि
3. रीतिकाल के अन्य कवि

● आधुनिक काल (गद्यकाल, संवत् 1900-1984)

1. सामान्य परिचय : गद्य का विकास
2. गद्य साहित्य का आविर्भाव
3. आधुनिक गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन प्रथम उत्थान (संवत् 1925-1950)
4. गद्य साहित्य परम्परा का प्रवर्तन : प्रथम उत्थान
5. गद्य साहित्य का प्रसार द्वितीय उत्थान (संवत् 1950-1975)
6. गद्य साहित्य का प्रसार
7. गद्य साहित्य की वर्तमान गति तृतीय उत्थान (संवत् 1975 से)

आचार्य शुक्ल ने यह काल-विभाजन और नामकरण साहित्य की प्रवृत्ति और विशेषताओं को आधार मानकर किया है। शुक्ल जी द्वारा किए गए नामकरण से अधिकतर साहित्यकार और आलोचक सहमत थे, लेकिन जिन आलोचकों को उनके द्वारा दिए गए नामकरण से दिक़्क़त थी; उन्होंने तर्क देते हुए प्रवृत्ति के आधार पर ही अन्य अलग नामकरण किए।

शुक्ल जी ने इस पुस्तक में हिंदी साहित्य के पहले काल को वीरगाथाकाल कहा, लेकिन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शुक्ल जी के वीरगाथाकाल को आदिकाल नाम दिया। इसी तरह अन्य आलोचकों ने भी अपने-अपने तर्कों के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार के नामकरण किए।

शुक्ल जी द्वारा रचित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ बहुत गहन शोध का नतीजा है। कहना न होगा कि यह शोध सिर्फ़ शुक्ल जी का नहीं; बल्कि उन सभी साहित्यकारों का भी है जिन्होंने शुक्ल जी से पहले हिंदी साहित्य के इतिहास पर शोध किया, सारी साहित्यिक सामग्री को ढूँढ़ा और एक जगह इकट्ठा किया। इस सरोकारमय श्रम की वजह से ही आज हमें ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ उल्लेखनीय समग्रता और पूरी प्रामाणिकता के साथ व्यवस्थित रूप में उपलब्ध है।

जारी…

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