मैंने हिंदी को क्यों चुना

पत्रकारिता में स्नातक की डिग्री प्राप्त हुए मुझे लगभग दो साल पूरे हो चुके हैं। मेरे साथ के सभी सहपाठियों ने कहीं न कहीं दाख़िला ले लिया है और वे अक्सर पूछते हैं कि मैंने कहीं पर दाख़िला क्यों नहीं लिया!

मेरे पास उनके इस सवाल का बहुत साधारण-सा जवाब है, लेकिन मैं उन्हें देना नहीं चाहती; क्योंकि मेरे दिमाग़ में कुछ ऐसा चल रहा है जिसका कई बार मुझे ही इल्म नहीं होता। यह अज़ीब है, लेकिन ऐसा ही है। इसमें मैं कुछ नहीं कर सकती। इंसानी दिमाग़ ऐसे ही चलता है कि बहुत बार समझ ही नहीं आता कि आप ख़ुद से और अपनी ज़िंदगी से चाहते क्या हैं!

मैं पत्रकारिता की छात्रा रही हूँ। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के अम्बेडकर कॉलेज से हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार में ग्रेजुएट हूँ। पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद भी, पत्रकारिता न करने का फ़ैसला मैंने क्यों किया… यह सवाल हर दूसरा व्यक्ति मुझसे करता है, लेकिन इसका जवाब हर उस पत्रकारिता के छात्र को पता है जो मीडिया हाउस के अंदर सुबह से शाम तक अपना सिर खपाता है या कह लीजिए कि मसालेदार ख़बर ढूँढ़ता-लिखता-बनाता है।

बहरहाल, बहुत ज़्यादा सोच-विचार करने के बाद मैंने हिंदी में परास्नातक (मास्टर्स) करने का फ़ैसला लिया जिसकी वजह से मैंने दो साल तक किसी भी और विषय में दाख़िला नहीं लिया।

मेरे दोस्तों का अब तक पत्रकारिता में मास्टर्स हो भी चुका है, लेकिन मैं अभी भी बस पत्रकारिता की डिग्री के साथ एक छोटी-मोटी नौकरी कर रही हूँ और मास्टर्स में एडमिशन ले रही हूँ…

पत्रकारिता की पढ़ाई करते वक़्त जो चीज़ें दिमाग़ में चलती थीं, वे बेहद अद्भुत होती थीं। मैं आज जब उनके बारे में सोचती हूँ तो हँसी आ जाती है। मेरी इस बात को वे लोग अच्छे से समझ पाएँगे जो पत्रकारिता के छात्र रहे हैं। एक अलग तरह के जज़्बे के साथ हम क्रांतिकारी छात्र बनते हुए पत्रकारिता में दाख़िला लेते हैं, लेकिन पत्रकारिता पढ़ते-पढ़ते कुछ और ही बन जाते हैं… ‘इस कुछ और’ ने ही मुझे हिंदी चुनने पर मजबूर किया।

मैं जब पत्रकारिता पढ़ रही थी, उस दौरान ही एक रोज़ जब मैं कॉलेज से घर लौटी तो मुझे एक दौरा पड़ा और यह दौरा एक हफ़्ते में दुबारा पड़ा था। जब पहली बार पड़ा था तो मैं अपने घर पर नहीं थी। मैं अपने पड़ोस के घर में थी। यह पहला दौरा मुझे वॉशरूम में आया, इस वजह से किसी को यह समझ नहीं आया कि मेरे साथ क्या हुआ! बहुत देर तक वॉशरूम से बाहर न आने पर जब किसी ने अंदर आकर देखा तो मैं गिरी हुई पड़ी थी। इसके बाद घर के नज़दीकी डॉक्टर को बुलाकर मुझे दिखाया गया और डॉक्टर ने बताया कि कमज़ोरी के वजह से मुझे चक्कर आया और इसलिए मैं गिर गई थी। मुझे और मेरे परिवार को तब तक यह पता नहीं था कि मुझे दौरा पड़ा था।

इस घटना के कुछ रोज़ बाद मुझे दुबारा से दौरा पड़ा जो कि मुझे सबके सामने आया। मेरी हालत बहुत ख़राब हो चुकी थी। मेरा पूरा परिवार बहुत बुरी तरह से डर चुका था और उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि मुझे क्या हो रहा है। मेरे घर में सब रो रहे थे और बुरी तरह चीख़-चिल्ला रहे थे। फिर मुझे जल्दी-जल्दी अस्पताल ले जाया गया, जहाँ पर मेरा सीटी स्कैन हुआ और जिसके बाद डॉक्टर ने कहा कि मेरा दिमाग़ी इलाज चलेगा। इसके बाद मुझे दूसरे अस्पताल भेज दिया गया।

दिल्लीवाले जानते होंगे कि दिलशाद गार्डन में एक सरकारी अस्पताल है—गुरु तेग बहादुर जिसे जीटीबी के नाम से जाना जाता है। उसके ही बराबर में एक अस्पताल है—इहबास (मानव व्यवहार और संबद्ध विज्ञान संस्थान) जिसमें सारे दिमाग़ी रोगों का इलाज होता है। मुझे जीटीबी से इहबास में भेजा गया, जहाँ पर मेरे तरह-तरह के टेस्ट हुए। जब सीटी स्कैन हुआ था पता तो तभी चल गया था कि मुझे दौरा पड़ा है, लेकिन इहबास के डॉक्टर्स ने कहा कि आपके कुछ बड़े टेस्ट होंगे उसके बाद ही हम आपको बता सकते हैं कि आख़िर आपको दौरा क्यों पड़ा।

मेरे परिवार ने जल्दी से जल्दी मेरे सारे टेस्ट करवाए और रिपोर्ट दिखाई तो डॉक्टर्स ने कहा कि इनके दिमाग़ की कुछ नसें डैमेज हो गई हैं जिसकी वजह से इनको दौरे पड़े हैं, आप बहुत ठीक समय पर इनको अस्पताल ले आए हैं… हम इलाज शुरू कर रहे है, लेकिन इलाज लंबा चलेगा। कम से कम तीन साल तक लगातार दवाई खानी होगी और एक भी दिन अगर दवाई न खाई तो दुबारा से दवाई का कोर्स शुरू करना पड़ेगा।

मेरी दवाई शुरू हो गई। इस शुरुआत के बाद मैं चीज़ें भूलने लगी और इस वजह से बहुत परेशान भी रहने लगी। मैंने डॉक्टर्स को अपनी परेशानी बताई तो उन्होंने मुझसे कहा कि जब हमारे शरीर के किसी अंग को चोट लग जाती है तो उसे भरने में वक़्त लगता है। आपके दिमाग़ की नसें चोटिल हैं, उन्हें ठीक होने में समय लगेगा।

इस दौरान ही इहबास अस्पताल के मनोचिकित्सक से भी मेरी बातचीत हुई। उन्होंने अकेले में मुझसे बैठकर बातें कीं और यह जानने की कोशिश की कि मेरे दिमाग़ में क्या चल रहा है और क्या मैं अवसादग्रस्त तो नहीं हूँ? मैं अवसादग्रस्त थी या शायद यह मेरे अवसादग्रस्त होने का शुरुआती दौर था… मुझे इस बारे में ज़्यादा पता नहीं है। हाँ, मैं इतना ज़रूर जानती हूँ कि मैं बहुत ज़्यादा सोचने लगी थी और इस वजह से ही मेरे साथ यह सब हुआ था। डॉक्टर्स से भी जब मैंने बात की तो उन्होंने भी यही कहा था कि ज़्यादा सोचने से मेरे साथ यह सब हो रहा है और मैं ख़ुद को ख़ुद ही ठीक कर सकती हूँ।

मैं अब सबके साथ होते हुए भी अकेला महसूस करती थी। ऐसा नहीं है कि मेरे पास दोस्तों की कमी थी, लेकिन मैं उन सबके बीच में होते हुए भी उन लोगों को अपने दिल की बात नहीं बता पा रही थी। जब आप स्कूल से निकलकर कॉलेज-लाइफ़ जी रहे होते हैं तो आप एक अलग तरह के माहौल में होते हैं। पता नहीं कॉलेज जाने के बाद लोग कैसे आराम से मज़े की ज़िंदगी बिताते हैं! मुझे उस वक़्त इतनी टेंशन होती थी कि कॉलेज पूरा होने का बाद मैं क्या करूँगी, मुझे कहाँ नौकरी मिलेगी, क्या मैं कुछ कर पाऊँगी भी या नहीं…

यों समय निकलता गया और कॉलेज पूरा हुआ जिसके बाद मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या आई कि मुझे इंटर्नशिप कहाँ मिलेगी? वेब ‘जनसत्ता’ में किसी तरह इंटर्नशिप मिल गई और कुछ महीने ‘जनसत्ता’ में इंटर्नशिप की जिसके बाद नौकरी ढूँढ़नी शुरू की।

पत्रकारिता में दाख़िला लेते समय छात्र सोचते हैं कि तीन साल पढ़ाई करने के बाद हमें एक अच्छे मीडिया हाउस में नौकरी मिल जाएगी, लेकिन जब हम बाहर की दुनिया में निकलते हैं; तब हमें पता चलता है कि बिना सोर्स के नौकरी मिलना बहुत मुश्किल होता है।

ख़ैर, कॉलेज ख़त्म होने के बाद मैंने एक छोटे-से वेब पोर्टल में काम करना शुरू किया जिसके बाद मैंने यह महसूस किया कि मीडिया में काम करना आसान नहीं होता क्योंकि आपको बहुत बार वह सब करना पड़ता है जो आप करना नहीं चाहते। मीडिया मैं बहुत प्रेशर होता है और एक स्वस्थ व्यक्ति ही वहाँ काम कर सकता है—मानसिक और शारीरिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ, ताकि वह अपने काम के साथ न्याय कर सके।

यह बात भला किससे छुपी है कि मीडिया अब पहले जैसा बिल्कुल नहीं है। जैसा हमें मीडिया के बारे में पढ़ाया जाता है, वैसा बिल्कुल भी होता नहीं है या कम होता है। मीडिया में भी अब कॉल सेंटर की तरह टार्गेट दे दिया जाता है कि आपको रोज़ की इतनी ख़बर बनानी हैं। ख़बर कोई ऐसी चीज़ तो नहीं है कि जिसको हम अपने मन से लिख दें, लेकिन मीडिया हाउस में ऐसा ही करवाया जाता है। इस दौड़ में एक दूसरे से आगे भागने के चक्कर में किसी भी तरह की ख़बर बनाकर एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हमेशा शामिल होना पड़ता है। नौकरी न चली जाए इसलिए आप ये सब कर तो लेते हैं, लेकिन आपका अंदर से मन नहीं करता। आपके दिमाग़ में हमेशा यही सवाल चलता है कि क्या मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई इसलिए ही की थी कि मैं ज़बरदस्ती ख़बर में मसाला डालूँ, कैची शीर्षक लिखूँ, क्यों मैं ऐसी ख़बर लिखूँ जो कि मैं नहीं लिखना चाहती। ऐसे ही ढेरों सवाल मेरे दिमाग़ में चलते थे और शाम होते-आते मैं बहुत थक जाती थी।

मीडिया में काम करने वाला व्यक्ति शारीरिक रूप से नहीं बल्कि मानसिक रूप से ज़्यादा थक जाता है जो कि मेरे साथ बहुत होता था। अगर आप ग़लती से लड़की हों तो उसमें और चार चाँद लग जाते हैं।

मीडिया में काम करने के दौरान मैं मानसिक रूप से बहुत ज़्यादा परेशान हो गई थी और मेरे सिर में काफ़ी दर्द होना शुरू हो गया था। डॉक्टर्स ने मुझे मना किया था कि मैं किसी भी तरह का तनाव न लूँ। इसलिए ही मेरा मन मीडिया से उठता जा रहा था और इस वजह से मेरा बिल्कुल मन नहीं था कि मैं पत्रकारिता में मास्टर्स करूँ, इसलिए मैं दो साल तक पढ़ाई से दूर रही। किसी दूसरे विषय में एडमिशन भी इसलिए नहीं लिया, क्योंकि पहले तो समझ नहीं आ रहा था कि अगर पत्रकारिता नहीं तो मुझे और क्या पढ़ना चाहिए?

मैंने अपने कुछ सीनियर्स और दोस्तों से कहा कि अगर कोई जॉब हो तो बताना। ‘रेख़्ता फ़ाउंडेशन’ में एक सीनियर ने मेरा सीवी भेजा और एक रोज़ अचानक से मेरे पास कॉल आई कि आपको इंटरव्यू के लिए ‘रेख़्ता’ आना है। इसके बाद मैंने ‘रेख़्ता फ़ाउंडेशन’ की ‘हिन्दवी’ वेबसाइट्स में काम शुरू किया, क्योंकि मुझे हिंदी साहित्य में पहले से रुचि थी। कुछ उपन्यास और कहानियाँ मैंने पत्रकारिता के दौरान पढ़ी थीं, हालाँकि ज़्यादा साहित्य मैंने तब तक पढ़ा नहीं था। ‘हिन्दवी’ के लिए काम करते समय हिंदी साहित्य को मैंने और नज़दीक से पढ़ा। इसके बाद मैंने सोचा कि क्यों न हिंदी मैं मास्टर्स कर लिया जाए। कुछ सीनियर्स से बात की तो उन्होंने भी राय दी कि तुम्हारे लिए हिंदी मैं एम.ए. करना बहुत सही रहेगा, क्योंकि तुम हिंदी साहित्य से लगातार जुड़ी हुई हो और उसमें ही काम कर रही हो तो हिंदी तुम्हारे लिए सही है। तुम हिंदी में अपना भविष्य बना सकती हो, क्योंकि तुम्हारे पास काम के साथ-साथ हिंदी की डिग्री भी होगी।

इसके बाद मैंने ख़ुद सोच-विचार किया और दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.ए. हिंदी में दाख़िला ले लिया। इस तरह से हिंदी साहित्य को आज मैं एक अलग ढंग से पढ़-समझ रही हूँ।

जारी…