टी-ब्रेक और नक़द व्यवहार

‘खरमिटाव’ अवधी प्रदेश के एक बड़ी पट्टी में प्रचलित शब्द है। इसका चलन धूमिल तो हुआ है, लेकिन बंद नहीं हुआ। इसका साफ़ कारण यह है कि इस शब्द में ऐसे साभ्यतिक इशारे मौजूद हैं, जिनसे जीवन-कर्म का स्वाभाविक मर्म उद्घाटित होता है।

इस शब्द का अन्वय करने के पहले इसके प्रचलन के वातावरण को देखना होगा। गाँवों में मज़दूर या किसान, अपना काम सुबह धुँधलके से ही शुरू कर देते हैं। दूसरे के यहाँ मज़दूरी करना हो तो थोड़ा दिन चढ़े और अपने खेतों पर काम करना हो तो मुर्ग़ा बोलते ही किसान सक्रिय हो जाता है। मानव श्रम सघन सभ्यता में लोगों के पास काम इतना ज़्यादा होता है कि दिन चढ़े तक दातून या जलपान तक नहीं मिलता है। इस स्थिति को बुरा माना जाता है। माना जाता है कि इससे ‘खर’ चढ़ जाती है। इसी ‘खर’ को मिटाने के लिए कुछ जलपान वग़ैरह करके निवृत्त हुआ जाता है। और इसी को ‘खरमिटाव’ कहते हैं।

खरमिटाव में पहले घुघुरी (मटर या चने की) और रस (खांड़ या गन्ने का) पिया जाता था। या फिर चबेना गुड़ चबाया-खाया जाता था। जिसकी स्थिति आधुनिक परिवर्तनों के साथ परिवर्तित हो गई। चाय की अनिवार्यता के साथ ही खरमिटाव का स्थान चाय-टोस या चाय-भूँजा ने ले लिया। आज के 20-25 साल पहले ही महुआ की घुघुरी का भी चलन था। जिसे चने या मटर के साथ दिया जाता था। महुए को सुखवा कर, पीट कर, साफ़ कर, तेल में तलकर रख लिया जाता था। और बरसात व जाड़े के खरमिटाव में प्रयोग में लाया जाता था।

हालाँकि भोजन की थाली की तरह खरमिटाव भी औक़ात और पहुँच की बात है। लेकिन मुझे इससे कोई गुरेज़ नहीं है कि इसे मेहनतकशों के व्यवहार का शब्द कहा जाए, क्योंकि खर छुड़ाने या मिटाने की स्थिति उसी के साथ घटित हो सकती है; जिसके पास पानी पीने की भी फ़ुरसत नहीं है और काम रेला पड़ा है। बाकी खलिहर लोग तो सामान्यतः कुछ न कुछ खा ही लेते हैं।

‘खर’ आख़िर होती क्या है? इसे संभवतः ख़राश के नज़दीक माना जा सकता है, क्योंकि सुबह सोकर उठने के बाद बहुत देर तक कुछ न खाने-पीने से गले और पेट में समस्या हो जाती है। तो ‘खर’ की स्थिति को सही नहीं माना जाता है। चलन में यहाँ तक कहा जाता है कि जल्दी कुछ खा पी लो, नहीं तो ‘खर’ हो जाएगी। लेकिन खर का संकट सामान्यतः खाने के मामले में लापरवाह बिगड़ैल बच्चों या मेहनतकशों को ही होता है।

किसान की औरत या उसके बच्चे कई बार खेत में ही खरमिटाव लेकर जाते हैं। सुबह से दो-तीन घंटे मेहनत करके किसान की भूख खुल चुकी होती है। और वह खरमिटाव करके थोड़ा आराम करता है। खरमिटाव कुछ-कुछ आज की कार्यालयी जीवनशैली के टी-ब्रेक की तरह है।

कई बार दुपहर के भोजन की अपर्याप्तता को देखते हुए कहा जाता था कि पेट कहाँ भरा, बस समझो खरमिटाव किए…

कई बार भारी खरमिटाव से दुपहर का भोजन मारा जाता है।

जमींदार, ठाकुर या मालिक अपने खेत या मकान पर काम कर रहे मनई-मजूरों को खरमिटाव भिजवाता था। अच्छी खरमिटाव से उसकी सज्जनता और औक़ात दोनों का पता चलता था और मजूर इसका प्रचार भी करते थे। घर-निर्माण करने वाले या खेत-मज़दूरों की मज़दूरी भी इस तह तय होती थी—50 रुपया, खरमिटाव और एक बंडल बीड़ी-माचिस।

शहरों में मज़दूरी ज्यादा मिलती थी, क्योंकि वहाँ खरमिटाव वग़ैरह नहीं मिलता था—जिसे ‘झूर-झार (सूखा) सौ रुपए मिलता है’ कहते थे। कुछ नकचढ़े मज़दूर लोग सिर्फ़ मज़दूरी को पसंद करते थे तो कुछ लोग इसे झूर-झार कहकर सही नहीं समझते थे। गाँव के जमींदार या मालिक के लिए भी कुछ नक़दी-मज़दूरी में कमी होना सुविधाजनक होता था, क्योंकि उसके पास खेत की उपज तो होती थी; लेकिन नक़दी (लिक्विड मनी) कहाँ से इतनी आवै!

कई बार कामचोर मज़दूर खरमिटाव के बहाने काफ़ी वक़्त सुस्ताते थे। इस कारण मालिक या जमींदार से उनकी नोक-झोंक हो जाया करती थी।

इस तरह देखें तो खरमिटाव का मसला सभ्यतागत व्यवहार के एक सूचक की तरह है। इसमें अभाव, कर्म-संस्कृति, सामंती मुद्रा, छोटे किसानों व मज़दूरों की भोजन-संस्कृति सभी कुछ निहित है। यह शब्द सुबह ही प्रयोग होता है। दुपहर के बाद जब आँत छपट चुकी होती है तो इस शब्द का कोई मतलब नहीं रह जाता। यह अलग बात है कि किसी आपात स्थिति के चलते दिन से भोजन न करने या बासी मुँह कहीं निकल जाने पर आदमी स्थिति की गहराई और अपनी त्वरित संबद्धता को ऐसे ही जताता था—‘‘अरे, हम खरमिटाव तक न किए।’’

खरमिटाव शब्द के लिए बहुत बेतरतीबी से विराम शब्द के रूप में था और है दोनों प्रयुक्त होगा, क्योंकि तमाम जीवन-व्यवहारों और उनके सूचक शब्दों की स्थिति में आए बदलावों ने स्वयं यह बात उपस्थित की है।