ग्रामदेवता

वह चकरोड पकड़े चले आ रहे। थोड़ा भचककर चल रहे थे। रामजी ने उनको दूर से ही देख लिया था। रामजी कुर्सी के पाए पर अपनी कोहनी धँसाकर मुँह बाए उनको आते देखते रहे। वह जल्दी-जल्दी चल रहे थे। उनकी गर्दन थोड़ी झुकी हुई थी। वह जैसे हाथ के इशारे से कुछ कहना चाह रहे थे, पर कह नहीं पा रहे थे। उनके हाथ में एक सफ़ेद रंग का गमछा था। वह मुस्कुरा रहे थे, लेकिन उनके माथे पर बल पड़ा हुआ था। वह चलते-चलते दरवाज़े तक आ गए। आकर बाहर रखी एक कुर्सी के पास नीचे बैठ गए। रामजी अपनी जगह पर बैठे रहे। उनकी तो जैसे साँस ही रुक गई हो। वह सामने क्यारियों में लगे गेंदे के फूलों को देखने लगे। देखते-देखते वह हँसने लगे। उनकी हँसी कब ठहाके में बदल गई, पता ही न चला। अंदर एक-एक करके सब लोग घर से बाहर आ गए थे, जो दुल्हनें अभी भी घर से बाहर नहीं आतीं थीं, वे दरवाज़े से सटकर और नाक जितना पल्लू गिराकर यह सब तमाशा देख रही थीं।

चारों ओर मुआयना करने के बाद वह फफक कर रो पड़े और कहने लगे कि दरवाज़े की सभी क्यारियाँ उन्होंने बनाई हैं और सभी फूल-पौधे उन्होंने लगाए हैं। और फिर ठठाकर हँसने लगे, हँसते-हँसते वह एक कंकाल में बदल गए और एक बार फिर इधर-उधर नज़र दौड़ाकर अंतर्धान हो गए।

उनके अंतर्धान होते ही घर में हाहाकार मच गया। घर की औरतें बुक्का फाड़कर रोने लगीं… बच्चे अपनी माँओं से चिपक कर बैठ गए और घर के मर्द माथे पर हाथ रखकर बैठ गए।

रामजी अकेले आदमी थे जो इन सबसे अभी भी ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए थे। वह जाकर फिर उसी कुर्सी पर बैठ गए जिसके ठीक पास उनके भाई का कंकाल आकर बैठ गया था। यह सब देखकर घर के लोग चीख़ें मारने लगे। उनका भतीजा उनको उस कुर्सी से उठने के लिए इसरार करने लगा। पर वह उठे नहीं और रह-रहकर हँसने लगते। फिर अचानक से चुप हो जाते और अपने ठुड्डी पर हाथ रखकर कुछ सोचने से लगते। फिर वे उठकर कुर्सी का चक्कर काटने लगते। उधर राघवन की मम्मी दरवाज़े के पास चिल्ला रही थी… बुढ़ऊ सनक गया है… पूरे का पूरे सनक गया है बुढ़ऊ, तनिक नहीं सोचता कि घर में ग़मी है और उनको ऐसे अपशकुन वाली हरकतें नहीं करनी चाहिए, लेकिन नहीं इस बुढ़ऊ का तो माथा ही फिर गया है… भगवान् की कैसी माया है, जिसको उठाना चाहिए उसको इहाँ नाटक करने के लिए छोड़ दिया और चलता फिरता एक हीरा उठा लिया.. और वह फिर से बुक्का फाड़कर रोने लगी।

रामजी कुर्सी से उठकर बाईं तरफ़ छप्पर के ओर चले गए। वहाँ ज़मीन पर उन्होंने एक लकड़ी का टुकड़ा उठाया और पास से गुज़र रही नाली में उसे डालकर कुछ देखने लगे। फिर वे नाली में झाँकने लगे। उसमें कुछ निकाला और उठाकर दूर फेंक दिया और विचित्र तरीक़े की भंगिमा बनाई। फिर वह अपने घर के पीछे की ओर चले गए। और थोड़ी ही देर में दाईं ओर से वापस आते दिखे। आकर वह वापस कुर्सी पर बैठ गए और हँसने लगे। राघवन की बहन चबूतरे पर बैठे उनको एकटक देखे जा रही थी—का देख रही हो बबुनी, उन्होंने कहा और फिर हँसने लगे। सब लोग उनको निंदा की नज़र से देख रहे थे। कुछ देर में वह फिर कुर्सी से उठे और बाईं तरफ़ नाली की दिशा में चले और ज़मीन पर से दूसरा लकड़ी का टुकड़ा उठाया और नाली में डालकर कुछ देखने लगे। लकड़ी से उन्होंने फिर नाली को खोदा और एक बार फिर उसमें से कुछ निकालकर कुछ दूर फेंक दिया और घर के पीछे चले गए। थोड़ी देर में वह फिर दाईं तरफ़ से वापस आए और आकर कुर्सी पर बैठ गए। सब लोग एकटक उन्हीं को और उनकी करतूतों को देख रहे थे। कुछ देर कुर्सी पर बैठे रहने के बाद वह फिर से उठे और नाली की ओर चले गए। इस बार उनके जाते ही उनके भतीजे ने वहाँ से कुर्सी ही हटा दी। दूसरी ओर वह नाली पर जाकर फिर अपनी हरकतें दुहराने लगे… इस बार उन्होंने चक्कर थोड़ी जल्दी पूरी कर ली और आकर कुर्सी की ठीक जगह पर चुक्का-मुक्का बैठ गए। कुछ देर बैठने के बाद वे फिर उठे और अपने चक्कर में मशग़ूल हो गए। ऊपर आसमान में एक हवाई जहाज़ गुज़र गया।

उनके चक्कर लगाते-लगाते शाम हो आई। घर के सभी लोग अब तक बुरी तरह उकता चुके थे और औरतें रोना छोड़कर खाने-पीने का जुगाड़ करने में लग गई थीं। रामजी इस बार जब नाली के पास रुके तो उन्होंने कोई लकड़ी नहीं उठाई और अपना हाथ ही डाल दिया। काफ़ी मशक़्क़त करके वह अपना हाथ अंदर से अंदर डालने में लगे रहे और अंत में नाली में से कुछ निकाला और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। उनके हाथ में लाल रंग की एक कैनवास की गेंद थी। इस बार रामजी बोले कि ये तो शिवमवा का वही गेंद है जो भाई साहब की मौत वाले दिन उसने गुम दिया था और उसकी माँ से उसे बहुत पीटा था और फिर दोनों चिपक कर देर तक रोए थे। यह सब कहकर वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। वह बकबक करने लगे :

यह गाँव मेरा संपूर्ण भूगोल है, मेरी संपूर्ण पृथ्वी है। मैं इस पर हर जगह, हर क़दम नृत्य करना चाहता हूँ। मैं इस घर की परिक्रमा करूँगा कहकर—वह घर की परिक्रमा करने लगे। जब दरवाज़े से थोड़ा नीचे उतरते तो नाली के पास आकर ठिठक जाते। ज़मीन से कुछ उठाते-से और दूर फेंक देते फिर आगे बढ़ जाते। बच्चे उनके पीछे हो-हो करके जाते, वह घुड़ककर पीछे देखते तो वे वापस लौट आते फिर वह आगे बढ़ जाते। उनकी परिक्रमा संपूर्ण थी, ठीक दरवाज़े से निकलते, नाली पार करके पीछे की गली में घुसते बग़ीचे में पहुँचकर कुछ पल रुकते और ऊपर पेड़ों की डालियों-पत्तों-फलों को ध्यान से देखते और बंकिम मुस्कान छोड़ देते। फिर पीछे के गड्ढे की ओर जाते, वहाँ से चलकर नाद के पास आते, जानवरों को सहलाते और वापस दरवाज़े पर पहुँच जाते। लोगों का इसमें विनोद हो रहा था। एक पनैला साँप बहुत देर से नाद के दीवार की दराज़ में अटका पड़ा था। लोग उन्हें परिक्रमा करता छोड़ घर के अंदर चले गए। उन्हें पनैले साँप ने काट लिया। वह सिर पकड़कर नाली के पास बैठ गए और इधर घर के अंदर अचानक से चार-पाँच करैत साँप आ निकले थे। मर्दाना गोल उन साँपों से निबटने में लग गया। राघवन उनको वहाँ नाली के पास से वापस घर लिवा लाया और जहाँ साँप ने काट रखा था, वहाँ ब्लेड से काटकर ज़हर निकालने का उपक्रम किया।

वह राघवन से कुछ कहने लगे :

जानते हो बाबू शुगर हो गया है। शुगर बहुत ख़राब बीमारी है। तनिको धूप लगता है तो गिर जाता हूँ। बीसों बार गिरा हूँ। लेकिन भगवान की ऐसी माया है कि एक्को बार घाव नहीं लगा। कल मन किया तो धान का खेत देखने चले गए। आम के पेड़ के किनारे सब ज़मीन खोद दिए हैं सब। उसी में ऊपर नीचे कैसे-कैसे चढ़ के गए थे खेत देखने। वहीं मेढ़ पर गिर गए। बहुत घाम था। बाद में उठे हैं तो मिडवाइफ़ के घर चले गए। मिडवाइफ़ दो अमरूद लेकर आई, फिर उसकी पतोहू भी दो अमरूद लेकर आई है, फिर उसका बेटा भी। छह अमरुद खाया हूँ आज। तुम किसके घर से हो? तुम्हारा रिश्ता अच्छा हो गया है। आपके पिता महान आदमी हैं। बहुत बढ़िया आपसे मुलाक़ात हो गई। बहुत दिन बाद दर्शन हुआ हैं। मन ख़ुश हो गया। मेरा बेटा तो दोग़ला है। अरे मेरा बेटा नहीं है, दूसरे का होगा बहिनमुआ। भैंस को चारा नहीं देता। मैं चारा काट के लाता हूँ, पानी मिलाता हूँ। पानी उठाने में बहुत कष्ट होता है। आज भैंसिया पैर कुचल दी है। एक अँगूठे पर ही चढ़ गई। बहुत दुःख रहा है। जा रहा हूँ खाना खाने। बुलावा आ गया है। भूख तो नहीं है, लेकिन बाद में बासी हो जाएगा। बासी खिलाते हैं सब साले! चल रहा हूँ बाबू, बहुत अच्छा हुआ दर्शन हो गए। आप दिल्ली रहते हैं न! बहुत बढ़िया आप महान आदमी हैं। आपके बाऊजी महान आदमी थे। मैं आपके दुआर आया था, जब उनकी लाश आई थी और मुँह पर से कपड़ा हटाकर देखा उनको। बाऊ वही गरिमा, जीते जी कभी उनका सर नहीं झुका… सीना चौड़ा करके जिए थे मेरे भाई। मेरे भाई महान आदमी थे। देखिए तो बीमार हम थे, लेकिन ऊपर वाले की माया। चलता हूँ बाबू। अभी रहिएगा न? कितने दिन? ठीक है फिर मुलाक़ात होगी।

जबसे शामजी की मृत्यु हुई है, रामजी लगभग शामजी के यहाँ ही रहते हैं। राघवन अपनीं माँ से कह रहा था कि उसने आज तक कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि रामजी एकदम बाउजी जैसे हैं। वैसे ही हाथ, वैसी ही ठुड्डी, वैसी ही बुलंद आवाज़, वैसा ही ललाट… लेकिन फिर भी जीते जी बाउजी और रामजी में कभी पटरी नहीं बैठी। और बाउजी के जाने बाद तो रामजी हमसे इतना प्यार दिखा रहे हैं अगर उनके जीते जी दिखाया होता तो… और कहते-कहते राघवन आँसुओं में फूट गया।

इतने में रामजी बिना खाना खाए वापस आ गए। आते ही कहने लगे कि साले हरामी बासी खाना खिलाते हैं। कुर्सी वाली जगह से उन्हें न जाने इतना प्यार क्यों था कि वे फिर उसी जगह पर बैठ गए और अजीब तरह की हँसी हँसने लगे। तभी गेंदे के फुलवारी से निकलकर काले रंग का एक लंबा गेहुअन साँप तेज़ी से उनकी दिशा में सरकते हुए बढ़ा। सभी लोग सकपका गए और मन ही मन भुनभुनाने लगे। रामजी साँप को देखकर उसकी ओर लपके, हालाँकि घर के सभी लोग चीख़ते मना करते रहे। उन्होंने लपककर उसे उसके मुँह से पकड़ लिया। गेहुअन उनकी मज़बूत पकड़ से छूटने के लिए छटपटाने लगा और वह अब दूसरे हाथ से उसकी पूँछ पकड़ चुके थे। घर बार के लोग यह सब देखकर हमेशा की ही तरह दंग थे। अचानक से रामजी बोल उठे… सब कहते हैं शामजी साँप बनकर आ गए हैं। मैं नहीं मानता… यह सब झूठ है। वह साँप को लेकर गाँव से बाहर की दिशा में चलने लगे। घर के कुछ लोग भी उनके पीछे-पीछे चल दिए। अब तक वे चकरोड पर आ गए और अपने भाव-भंगिमा में एकदम शामजी जैसा व्यक्तित्व हासिल कर चुके थे। वे कुछ देर चलकर पीछे मुड़कर देखते तो घर के लोग ठिठक जाते। वे सब कुछ कहना चाहते थे, पर उनकी ज़ुबाँ नहीं खुल रही थी। वह फिर चलने लगते और इस तरह वह गाँव के सीवान के पास आ गए और ज़ोर से बोले :

अगर ये साँप मेरा भाई है तो फिर से वापस आ जाएगा। इसलिए मैं उसे गाँव से बाहर फेंक रहा हूँ। यह कहकर उन्होंने पूरा ज़ोर लगाकर उसे बहुत दूर फेंक दिया और पीछे की ओर लौट गए। घर वाले भी अपनी जगह से वापस लौटने लगे। वे लोग कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे। अब घर वाले आगे थे और रामजी पीछे-पीछे…

और जिस दिन से शामजी का देहांत हुआ है गाँव के घर में ख़ूब साँप निकलने लगे हैं। उस दिन के बाद से घर का कोई ऐसा कमरा नहीं बचा जिसमें साँप न मिला हो। साँप वह भी ज़हरीले करैत और गेहुअन। गाँव में लोग अब ये कहने लगे हैं कि शामजी अब साँप बनकर वापस आ गए हैं।

इन सब घटनाओं के मार्फ़त लोग अब यह कहने लगे थे कि वे अपने जनम में साँप बन गए हैं। और अपने साथियों के साथ घर में इधर-उधर भटक रहे हैं। लोगों ने एक भी साँप मारे नहीं। वे ख़ुद ही घर में जगह-जगह रेंगकर फिर न जाने किधर चले गए। बरसों पहले इसी घर में मेटा को काले नाग ने सिर में डस लिया था। वह बाऊजी के कमरे में बक्से में से कोई वस्तु निकालने गए थे और बक्से में छिपे नाग ने उनके मस्तक पर अपने दाँत लगा दिए थे। मेटा बाऊजी के दत्तक भाई थे और उस वक़्त कोई बीस-इक्कीस बरस के रहे होंगे। इस घर का साँपों से तबसे पुराना रिश्ता बन गया है। नाग तो नहीं लेकिन धामिन, बाभन, पनैले, करैत और भी न जाने किस-किस जात-प्रजाति के साँप इस घर में आए दिन निकल आते थे। बाऊजी उन्हें कभी मारते नहीं और संयोग से साँप कभी किसी सदस्य के क़रीब भी नहीं जाते। ऐसा तो कितनी ही बार हुआ था कि बाऊजी के कमरे से सुबह कोई साँप ऐसे बरामद होता था, मानो रात भर उनकी रखवाली में उनके कमरे में प्रहरी बना डटा रहा हो। बाऊजी को साँपों से विशेष अनुराग हो गया था, लेकिन राघवन के लिए यह सब असामान्य था। वह दूर से साँप देखकर भयाक्रांत हो उठता था और घर के किसी भी कमरे में अपनी रातें चिंतामुक्त नहीं बिता पाता था। बाऊजी उसकी इस अभिजात्यता से नाख़ुश रहते थे।

राघवन रात भर सो नहीं सका। बिस्तर पर बैठा रहा। उसे लगता था जैसे उसके बनियान के भीतर छोटे-छोटे सरीसृप रेंग रहे हों। जैसे उसके पलंग किनारों पर साँप लिपटे हों। जैसे उसके पैरों के पास कोई नाग फन काढ़े बैठा हो। जैसे कमरे में हर ओर साँप ही साँप हों। जैसे वे सभी अपनी भाषा में उससे कुछ कहने का यत्न कर रहे हों और वह उन्हें समझने का यत्न नहीं कर रहा हो। वह उनसे भाग जाना चाहता है। इन सबसे भाग जाना चाहता है। बहुत दूर ऐसे प्रदेश जहाँ कहीं भी साँपों का नामो-निशान भी न हो। जहाँ बाऊजी की कातर दृष्टि पीछा न करती हो। जहाँ तात यूँ पागल बनकर समूचे विश्व में नृत्य करने का प्रण न लेते हों… और सांप हैं कि हिस्स-हिस्स किए जा रहे हैं। उसने देखा कि बाऊजी का कमरा सफ़ेद केंचुलियों से भर गया है। हर ओर केंचुली। बिस्तर पर, कुर्सी पर, आलमारी पर, बक्से पर। बक्से में क्या है बाऊजी के? कुछ पैसे-रुपए छोड़ गए थे क्या और अगर हाँ तो उसके आने तक उसके भाइयों ने उसे रफ़ा-दफ़ा कर लिया ही होगा। उसके लिए वह बक्सा नहीं बस एक पिटारा है। साँपों का पिटारा। उन्हें वह खोलेगा तो उसमें से निकलेगा काला नाग जिसने काट खाया था बरसों पहले मेटा को।

तात उसकी बग़ल वाले कमरे में सोए खर्राटे भर रहे थे। उन्होंने भी एक सपना देखा। एक बाज़ उनकी समूची पृथ्वी के ऊपर मँडरा रहा था। आकाश में मोहक नृत्य कर रहा था। उसके अधिकतर पंख झड़ गए थे। वह मँडराता जा रहा था और उसकी देह से पंख झड़ते जा रहे थे, परंतु कम नहीं हो रहे थे। पूरे गाँव में हर जगह पंख ही पंख। सफ़ेद बाज़ के पंख। सभी साँप सफ़ेद पंखों के नीचे दब गए थे। वे पंखों के भार तले दबे हुए निकलने की चेष्टा में हिस्स-हिस्स कर रहे थे और अपनी पूँछ पटक रहे थे। तात आसमान में उड़ रहे बाज़ को देखते हुए कहते कि यह है नया ग्रामदेवता। यह पास के गाँव से आया है। पहले उस बरगद पर रहा करता था, जिसके पास बहुत पहले अपनी बँसवाड़ी हुआ थी। तात ने कहा। तात ने कहा कि यह है नया ग्रामदेवता और बाज़ और ऊपर की ओर उठकर उड़ने लगा। बाज़ और ऊपर आसमान में गहरी उड़ान भरने लगा।

अगली सुबह सबने उठकर देखा कि छत पर एक वृद्ध बाज़ मरकर गिर गया था और उसके पंखों से लगभग पूरी छत भर गई थी।

तबसे बाज़ इस गाँव का ग्रामदेवता है।

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यहाँ प्रस्तुत कथा आदित्य शुक्ल द्वारा रचित ‘मृत्यु-कथा-त्रयी’ की तीसरी कथा है। पहली और दूसरी कथा क्रमशः यहाँ पढ़िए : मेरे लिए इक तकलीफ़ हूँ मैंशोकयात्रा