आज की कविता के सरोकार तथा मूल्यबोध

मैं गद्य का आदमी हूँ, कविता में मेरी गति और मति नहीं है; यह मैं मानता हूँ और कहता भी हूँ फिर भी यह इच्छा हो रही है कि आज की कविता के सरोकार तथा मूल्यबोध के बारे में कुछ स्याही ख़र्च करूँ। इस अनाधिकार चेष्टा में अंतर्निहित समस्त संभावित त्रुटियों के लिए अग्रिम रूप से क्षमाप्रार्थी हूँ।

प्रतीयमानतः इस विषय में समकालीनता का आग्रह है, किंतु इस समकालीनता का निरूपण क्या हम किसी कालावधि के संदर्भ में करेंगे, उदाहरणार्थ पिछली सदी के उत्तरार्द्ध की कविता या इस सदी की अब तक की कविता, अथवा साहित्य की आधुनिक ऐतिहासिक प्रवृत्तियों के संदर्भ में करेंगे यथा प्रगतिवादी कविता, प्रयोगवादी कविता, रूपवादी कविता… यह प्रत्येक व्यक्ति के अपने चयन पर निर्भर करेगा। मोटे तौर पर मेरे लिए कविता का आधुनिक काल ही आज की कविता का समकाल है। जिसे उत्तर आधुनिकता या उत्तर आधुनिक काल कहते हैं, वह एक इपिसमालाजिकल (ज्ञान-मीमांसक) अवधारणा है, जिसकी फिलहाल भारतीय साहित्य के सामाजिक भू-दृश्य में गुज़र मुश्किल है, अब जबरदस्ती कोई इसे बौद्धिक फैशन की तरह घुसेड़ना चाहे तो बात दीगर है।

जब हम कविता के सरोकार और मूल्यबोध की बात उठाते हैं तो सरोकार की सामाजिक गतिकी (सोशल डायनामिक्स) में प्रवेश करना ही पड़ता है। हमें पूछना पड़ता है, किसका सरोकार? यह प्रश्न पूछते ही हम साहित्य के सामाजिक बोध का क्रीटीक रचते हैं। बहुत संक्षेप में और निहायत साधारण तरीक़े से सूच्य है कि लोकतांत्रिक/मततांत्रिक प्रक्रियाओं से गुज़रते हुए अब हमारा समाज एक टिपिकल आकांक्षी समाज हो गया है। हैसियतों और औक़ातों की पुरानी मान्यताओं को हर क्षेत्र में चुनौती मिल रही है। मानकर चलिए जो आपके पास है वही आपके घर पर काम करने वाले को चाहिए, और भला क्यों नहीं?

ज़ाहिर है कि यह आकांक्षी समाज लाखों ख़्वाहिशों को जन्म दे रहा है, जिनमें से कुछ पूरी होती हैं और कुछ मृतजात होती हैं और कुछ जीवन का सपना बन जाती हैं।

यहीं इस मक़ाम पर प्रकट होते हैं धर्म के नेता, पूँजी के नेता और सर्वत्र व्याप्त राजनेता। यह नेतृवर्ग इन सपनों का व्यवसाय करता है। वह सपने पैदा करता है और फिर इन्हें लूटता है और यहीं वह लाखों विद्रोह जिनकी अभिव्यक्ति हम घर और बाहर सभी जगह देखते हैं और जो कुछ-कुछ वी.एस. नायपाल के ‘अ मिलियन म्युटिनीज़’ के अनगिनत संस्करण जैसे हैं, पनपते और बजबजाते हैं। यह हमारा समय अगर सपने देखने का समय है तो स्वप्न-हरण का भी समय है। अतः स्वप्न और स्वप्न-हरण दोनों ही साहित्य के सरोकार होने चाहिए ताकि हमारे कुछ अपहृत स्वप्नों की वापसी हो सके।

इसी सरोकार के सिलसिले में जब हम हिंदी समाज को देखते हैं, उसके धार्मिक-जातीय विग्रह को देखते हैं; तो क्या अस्मिता और अस्मिता की राजनीति के बिना कोई मूल्य-बोध संभव है? यह सवाल ‘मैं कौन हूँ’ एक दलित के लिए तत्त्वज्ञानी (मेटाफिजिकल) सवाल नहीं है कि वह धड़ाक से उत्तर दे दे कि मैं तो अजर-अमर आत्मा हूँ। एक दलित साहित्यकार को तो पुराण से इतिहास की ओर यात्रा करनी होगी। इसी तरह से आज के दिन एक स्त्री के लिए यह सवाल कि ‘मैं कौन हूँ’ कोई बायो-सोशल सवाल नहीं है कि पितृात्मक संरचना वाले समाज की पोषिता के रूप में वह यह उत्तर दे दे कि मैं एक उत्पादक पत्नी हूँ, एक महीयसी माँ हूँ। यह आदर्शीकृत लाव-लश्कर (आइडोलाइज्ड पैराफर्नेलिया) तो पहले से मौजूद है, हिंदू स्त्री के लिए ‘स्त्री प्रबोधिनी’ जैसी किताबों में और मुसलमान स्त्री के लिए ‘बहिश्ती जेवर’ जैसी किताबों में। हमारी स्त्री बदल रही है और बदलने के त्रास से भी गुजर रही है। स्त्री के सरोकार, हमारे लखनऊ की ही कवयित्री कत्यायनी की ‘हॉकी खेलती लड़कियाँ’ की कुछ पंक्तियों में बहुत मार्मिक वेग से प्रकट होते हैं :

‘‘लड़कियाँ
पेनाल्टी कॉर्नर मार रही हैं
लड़कियाँ पास दे रही हैं
लड़कियाँ ‘गोऽल-गोऽल’ चिल्लाती हुई
बीच मैदान की ओर भाग रही हैं
लड़कियाँ एक-दूसरे पर ढह रही हैं
एक-दूसरे को चूम रही हैं
और
हँस रही हैं।
लड़कियाँ फ़ाउल खेल रही हैं
लड़कियों को चेतावनी दी जा रही है
और वे हँस रही हैं
कि
यह ज़िंदगी नहीं है
—इस बात से निश्चिंत हैं लड़कियाँ
हँस रही हैं
रेफ़री की चेतावनी पर।
लड़कियाँ बारिश के बाद की नम घास पर
फिसल रही हैं
और गिर रही हैं
और उठ रही हैं
वे लहरा रही हैं
चमक रही हैं
और मैदान के अलग-अलग कोनों में
रह-रहकर उमड़-घुमड़ रही हैं।
वे चीख़ रही हैं, सीटी मार रही हैं
और बिना रुके
भाग रही हैं
एक छोर से दूसरे छोर तक।
उनकी पुष्ट टाँगें चमक रही हैं
नृत्य की लयबद्ध गति के साथ
और लड़कियाँ हैं कि
निर्द्वंद्व
निश्चिंत हैं
बिना यह सोचे कि
मुँहदिखाई की रस्म करते समय
सास क्या सोचेगी।
इसी तरह खेलती रहती लड़कियाँ
निस्संकोच-निर्भीक
दौड़ती-भागती और हँसती रहतीं
इसी तरह
और हम देखते रहते उन्हें।
पर शाम है कि होगी ही
रेफ़री है कि बाज़ नहीं आएगा
सीटी बजाने से
और स्टिक लटकाए हाथों में
एक भीषण जंग से निपटने की
तैयारी करती लड़कियाँ
लौटेंगी घर।
अगर ऐसा न हो तो
समय रुक जाएगा
इंद्र-मरुत-वरुण सब कुपित हो जाएँगे
वज्रपात हो जाएगा, चक्रवात आ जाएगा
घर पर बैठे
देखने आए वर-पक्ष के लोग
पैर पटकते चले जाएँगे’’

‘हॉकी खेलती लड़कियाँ’ कविता में जो आशंकित उत्साह है, वह मुझे बहुत अच्छा लगता था; लेकिन आगे चलकर मैंने महसूस किया कि यह कविता कुछ डेटेड है। कविता की स्त्री, कविता से आगे बढ़ चुकी है। स्त्री-शिक्षा के दायरे अब काफ़ी बढ़ गए हैं। किसी ज़माने में लड़कियाँ नर्स, अध्यापक और लेडी डॉक्टर होने के लिए पढ़ती थीं; परंतु वर्ष 1980 के बाद वह उन सभी क्षेत्रों में आने के लिए पढ़ने लगी हैं, जो कभी पुरुषों के अधिकार में आते थे। स्त्रियाँ अपनी बदली हुई भूमिका का विस्तार केवल पढ़ाई-लिखाई में ही नहीं खोज रहीं हैं, अब वे कुश्ती लड़ती हुई हरियाणा की फोगाट बहने हैं। वह वरपक्ष को अवाक् कर देने वाला उचित उत्तर भी देने लगी हैं। जब वह विवाह करती हैं तो एक वर्किंग वुमन और वर्किंग मदर की भूमिका का संतुलन साधती हैं। लेकिन इसी परिदृश्य के बीच अनुराधा सिंह की कविता ‘पाताल से प्रार्थना’ घटित होती है और वह भी फोगाट बहनों के हरियाणा में ही :

‘‘बच्चियाँ कुओं में गिर पड़ी हैं
हालाँकि उन्हें जन्म लेने में कुछ घंटे दिन या महीने
शेष थे अभी
सबसे बड़ी की उम्र
दो घंटे बारह मिनट है
दादी जन्म के दो घंटे बाद पहुँच पाई थी अस्पताल
इसी बीच पी चुकी थी वह दूध एक बार
गीली कर चुकी थी कथरी दो बार
लग चुकी थी माँ की छाती से कई-कई बार

अब कुएँ भर में सिर्फ़ वही पहने है
एकपाड़ घिसी चादर
चूँकि जन्म ले चुकी थी मरते वक़्त
अब उसे ही है आवरण का अधिकार
सिरसा, पटियाला और करनाल में
बच्चियाँ कुओं से बाहर आकर
जन्म लेना चाह रही हैं
शेष इच्छाएँ गौण हैं
सबसे पहले उन्हें बाक़ायदा पैदा किया जाए, ससम्मान
उनकी नालें जुड़ी हैं अब भी नाभि से
वे उन्हें रस्सी बना कुएँ से बाहर अना चाह रही हैं
वे उन्हें आम की शाख पर डाल झूला पींगना चाह रही हैं
वे उन रस्सियों पर गिनती से कूदना चाह रही हैं
सिरसा, पटियाला और करनाल में
कुछ बच्चियों के फेफड़े नहीं बने अभी
हवा और रोशनी प्रार्थना गा रही हैं समवेत
जबकि उन्हें पता है
आसमानों का ईश्वर पाताल के बाशिंदों की नहीं सुनता
कुछ के पाँव नहीं बने अभी, कुछ
की उँगलियाँ
कुएँ के बाहर आ पंक्तिबद्ध
अस्पतालों में जाना चाहती हैं
आँखें अक्सर बंद हैं सबकी
फिर भी देखना चाहती हैं सोनोग्राफी मशीनें
ऑपरेशन थिएटर, फोरसेप्स और नश्तर
छूना चाहती हैं ग्लिसरीन के इंजेक्शन,
सीसा, गला घोटने वाली उँगलियाँ
करना चाहती हैं जरा ताज्जुब
कितना लाव-लश्कर खड़ा किया है रे
एक बस हमारी आमद रोकने के लिए
इस दुनिया में’’

(कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कन्या भ्रूण हत्या का एक विवरण है।)

यही तो वह घटना है जो कविता के जाने-पहचाने लोक को पहले स्तब्ध करती है और फिर आगे ले जाती हैं। ज़रा सोचिए कि हज़ारों बरस से जीवित इस भारतीय संस्कृति के एक ही कालखंड में कितनी सदियाँ एक साथ प्रकट होती हैं। बक़ौल मुक्तिबोध एक कवि की समस्या यह नहीं है कि अंतर्वस्तु (कंटेंट) की कमी है और रूप (फ़ॉर्म) की समृद्धि है, बल्कि समस्या यह है कि अंतर्वस्तु की बहुतायत है और रूप अपर्याप्त है। ज़रा ग़ौर कीजिए कि दलित इस देश का राष्ट्रपति है और आज भी कहीं-कहीं दलित बरात में घोड़े की सवारी नहीं कर सकता है। देश के इस विभाजित सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करने के लिए किस ताल छंद और लय को आविष्कृत किया जाए। आज के कवि और कविता के सामने भी यही माँग बनी हुई है कि कैसे अंतर्वस्तु की विविधता को समेट कर इसकी रूप रचना की जाए। क्या किसी खंडकाव्य या सीक्वेंशनल कविता की ज़रूरत है। कविता में कथ्य है, कथा नहीं है।

ग्रीक दार्शनिक पाइथागोरस का ‘मैन इज द मेजर आव आल थिंग्स’ जो यूरोपियन रेनेसाँ के दौरान एक नारा बन गया और जिसके कारण समाज तमाम तरह के धार्मिक अतिचारों, वर्जनाओं से मुक्त होकर विज्ञान के मार्ग पर आरूढ़ हुआ, आज कुछ समस्या पैदा करने लगा है। अरसे से समकालीन साहित्य में मानवीय स्थितियों को सामाजिक और राजनीतिक परिवेश के एकीकृत मानदंड के सहारे विधीक्षित किया जाता था। यह ठीक भी था, रेनेसाँ के ‘मैन इज द मेजर’ आव आल थिंग्स’ के यूरोसेन्ट्रिक मुहावरे के तहत और हमारे अपने समाज की आवश्यकताओं के तहत भी। लेकिन अब इस अवधारणा में थोड़े परिष्कार की आवश्यकता आ गई है। पूँजीवादी उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में हम उस पूरे इकोसिस्टम को तहस-नहस कर रहे हैं जिससे पृथ्वी पर जीवन संभव है। हमें अपनी कविता में कुछ बहती हुई नदियाँ, तमाम हरीतिमा, अखरोट के फल तोड़ती गिलहरियाँ और साइबेरिया से आते हुए प्रवासी पक्षियों के लिए भी जल से भरी कोई हज़ार बरस पुरानी झील चाहिए जो इन पक्षियो की बायोप्रोग्रामिंग में रची-बसी है। हमें कविता की उस विश्वदृष्टि की सीमा भी पहचाननी चाहिए जिसमें कविता को केवल सामाजिक-राजनीतिक इतिहास का दस्तावेज़ मानने का आग्रह होता है।

इस प्रसंग में एक बहुत ही भोला-सा सवाल मैं ख़ुद से पूछ रहा हूँ कि क्या अधिकांश भक्ति साहित्य में कहीं भी उस समय के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास की झलक है। पर क्या वह संसार के श्रेष्ठतम काव्यों में से नहीं है। इसीलिए बंधु, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? यह पूछने वाले मुक्तिबोध ने मध्यकालीन भक्त कवियों पर लिखे निबंध में कदाचित् इस पहेली को सुलझाते हुए कहा है कि किस प्रकार यह कवि-व्यथा और उत्पीड़न के मानवीय यथार्थ से परिचित और प्रेरित थे। यह भी कि आधुनिक भारतीय कवि को भक्ति काव्य के माध्यम से वह पूर्व औपनिवेशिक परंपरा उपलब्ध है जो वंचित वर्गों के दुःख और उत्पीड़न से पहचान कायम कर रही थी। अलबत्ता, जब इस भक्ति परंपरा ने जात-पात से परे अपना प्रभाव क्षेत्र बनाया तब उच्च वर्ग ने जातिभेद को बल देने के लिए इस परंपरा का हरण कर लिया। आधुनिक काल में भी शासकवर्ग का यही प्रयास रहता है कि साहित्यिक आन्दोलनों की क्रांतिकारी संभावनाओं को यथास्थिति के हित में अनुकूलित कर लिया जाए। यह याद करने की बात है कि यह अनुकूलन केवल दमन द्वारा ही नहीं होता है, शमन द्वारा भी बख़ूबी होता है।

अभी थोड़ी देर पहले मैं साहित्य में अस्मिताओं की प्रासंगिकता की बात कर रहा था। ये अस्मिताएँ अनेक प्रकार की होती हैं। उदाहरण के लिए दलित और जनजातीय अस्मिता एक जातीय अस्मिता है, अल्पसंख्यक अस्मिता एक धार्मिक अस्मिता है, नारी अस्मिता एक लैंगिक अस्मिता है; पर ये अस्मिताएँ सर्वथा अनन्य और एक्सक्लूसिव नहीं होती हैं, वरन् कुछ मामलो में यह एक दूसरे को आच्छादित यानी ओवर लैप भी करती हैं। उदाहरण के लिए जब कविता में नारी-अस्मिता की बात की जाती है तो यद्यपि उसमें हम किसी हिंदू या मुस्लिम स्त्री की बात नहीं करते हैं, तथापि चूँकि नारी के शोषण में उनके अपने धर्मों के रीति-रिवाज का भी दख़ल होता है; इसलिए नारी अस्मिता जो कि एक लैंगिक अस्मिता है और मुस्लिम नारी जो कि एक अल्पसंख्यक धार्मिक अस्मिता है, दोनों एक दूसरे को आच्छादित करते हैं। यहाँ रचनाकार को यह ध्यान देने की ज़रूरत है कि जब वह नारी-अस्मिता को स्वर दे तो वह स्वर ऐसी नारी का हो जिसमें स्त्री की वर्गीय उपअस्मिताएँ प्रतिनिधित्व पाती रहें, क्योंकि इस बात को सिद्ध करने के लिए किसी बहुत बड़े शोध की आवश्यकता नहीं है कि यदि हम अपनी अस्मिता-विशेष पर ज़रूरत से ज़्यादा बल देते हैं, तब उसी अस्मिता-समूह में से कुछ उपअस्मिताएँ अपनी दावेदारी पेश करने लगती हैं और बाज़दफ़े इसका नतीजा यह होता है कि हाशिए की जो अस्मिता वर्चस्ववादी सामाजिक वर्गों के विरुद्ध एक प्रगतिशील (प्रोगेसिव) प्रतिरोध के विचार और कर्म से लैस होकर प्रकट होती है, वह आगे चलकर आंतरिक और वाह्य प्रतिगामी (रिग्रेसिव) मुठभेड़ों में व्यस्त हो जाती है। इस स्थिति का फ़ायदा उठाना शासक वर्ग ख़ूब अच्छी तरह से जानता है और वह अस्मिताओं के साहित्य के क्रांतिकारी तेवर को अपने हक़ में अनुकूलित कर लेता है।

अतः अस्मिता के साहित्य को थोड़ा-सा यह मूल्यबोध अवश्य होना चाहिए कि एक वृहत्तर भारतीय अस्मिता से उसका कोई आंतरिक संबंध है या नहीं?

हिंदी साहित्य के वरिष्ठ आलोचक प्रोफ़ेसर राजकुमार ने मुक्तिबोध को संदर्भित करते हुए यह सवाल पूछा है कि आधुनिकतावादी-प्रयोगवादी कविता और यथार्थवादी-प्रगतिशील कविता से अलग मुक्तिबोध कविता की जिस तीसरी धारा को प्रणीत कर रहे थे और जिसके द्वारा वह साहित्य और कला की भारतीय परंपरा से अपना संबंध जोड़ रहे थे, उस धारा का क्या हुआ। क्या कविता और साहित्य समकालीन रुचियों का बाई प्रोडक्ट है। वह कहते हैं कि अगर रुचियाँ ही सब कुछ हैं तो कविता तो उसको भरने वाला झोला है। हमें यह तो ध्यान देना होगा कि साहित्य और कलाएँ और इनके विकसित होने वाले रूप सिर्फ़ रूप नहीं होते हैं, वे कहीं न कहीं बहुत गहरे स्तर पर अपनी सभ्यता की बहुत बुनियादी स्मृतियों को भी सँजोते और संरक्षित करते हैं। इसी वजह से जब हम इन सभ्यता-रूपों में रचना करते हैं तो वृहत्तर समाज के साथ तादात्मय और संबंध आसानी से स्थापित हो जाता है। कविता पहुँचती है लोगों तक। उनकी बात से सहमत होते हुए मुझे कहना है कि आख़िरकार हमारी कविता का यह सरोकार तो होना ही चाहिए कि वह जनसामान्य तक पहुँचे, किंतु कुछ इस तरह पहुँचे कि पाठक को आविष्कार करने का अनुभव प्राप्त हो।