क्या हम समय, स्थान और लोगों को पहचान रहे हैं

चंदौली, उत्तर प्रदेश।

संत कीनाराम, कमलापति त्रिपाठी और नामवर सिंह का ज़िला। भारत के वर्तमान रक्षामंत्री राजनाथ सिंह भी इसी ज़िले के हैं। जुलाई 2020 से मैं चंदौली में रह रहा हूँ—अपनी ससुराल में। गाँव में सारी ज़रूरी सुविधाएँ हैं। अपने खेत की हरी सब्ज़ी मिल जाती है। मुर्ग़ी और बतख़ के ताज़े अंडे मिल जाते हैं। अगर कोई चाहे तो मछलियाँ मिल जाती हैं। चारों तरफ़ फैले धान के खेत जिन्हें मेहनतकश किसानों और उनके मज़दूरों ने उगाया हुआ होता है। चंदौली अपने किसिम-किसिम के धान के लिए प्रसिद्ध है। नवम्बर में चंदौली मिट्टी के रंग का दिखता है, फिर वह गेहूँ के रंग का हरा हो जाता है जो अप्रैल में सुनहला हो जाएगा; जब गेहूँ पक जाएगा। इसके अलावा रबी के सीजन में दालों की फ़सलें जैसे चना और मटर बोई जाती हैं। थोड़ा तराई का इलाक़ा होने के कारण अरहर और तिल बहुत कम देखने को मिलेंगे। यहाँ नहरों की सिंचाई काफ़ी है। इससे किसानों को फ़ायदा हुआ है। पहले किसान गन्ना भी बोते थे, लेकिन जबसे नज़दीकी चीनी मिल बंद हो गई, अब गन्ने की खेती बहुत कम होती है। यहाँ गाँवों के बाहर ‘द्वार’ बनाने का चलन 1970-80 के दौरान बड़ी तेज़ी से चला जब किसी ऐतिहासिक हस्ती या प्रायः गाँव के ही किसी प्रतिष्ठित आदमी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की याद में उसे बनाया जाने लगा। नामवर सिंह के गाँव के बाहर उनकी याद में एक द्वार बनाया गया है। मैं वहाँ 2019 की फ़रवरी में गया था।

गाँव से चंदौली जिला मुख्यालय 25 किलोमीटर, बनारस लगभग 50 किलोमीटर है। कमालपुर से मुग़लसराय तक वाली सड़क उतनी ख़राब है, जितनी ख़राब कोई सड़क हो सकती है। बीच में रेलवे के दो फाटक पड़ते हैं, इसलिए बनारस तक पहुँचने में दो घंटे से ज़्यादा लग जाते हैं।

9 नवम्बर 2020 को शाम को मुझे पहले धीमे फिर क्रमशः पेट में तेज़ दर्द हुआ। रात के आठ बज रहे थे। बग़ल के गाँव धरहरा गए। वहाँ एक स्थानीय डॉक्टर को दिखाया। उन्होंने एक इंजेक्शन दिया, कुछ दवाएँ दीं। घर आ गया, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं। रात किसी तरह कटी, बिल्कुल सुबह बनारस की ओर निकल लिए। रास्ते में ही विकास आनंद को फ़ोन किया। उन्होंने कहा आ जाइए। बीएचयू गेट पर विकास मिले। उन्होंने मित्र शशिकांत यादव को बुला लिया। विकास पीएच.डी. कर रहे हैं—फ़ातिमा शेख़ के जीवन पर। शशिकांत एक कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं।

हम तीन लोग डॉ. प्रवीण सिंह के आवास पर पहुँच गए। वह सर सुंदरलाल अस्पताल में मेडिसिन के डॉक्टर हैं। वह अस्पताल निकलने ही वाले थे। इस आपात स्थिति में उन्होंने बाहर ही खड़े रहकर दो टैबलेट्स लिखे, ख़ून-पेशाब का टेस्ट और अल्ट्रासाउंड कराने को कहा। पहले दवा ली, दर्द कम हुआ। अल्ट्रासाउंड में पित्त की थैली (गॉल ब्लैडर) में पथरी निकली। गॉल ब्लैडर कचड़े (स्लज) से भरा हुआ। यह तो मेरी अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट ही बता रही थी। उन्हें उनके चैम्बर में जाकर दिखाया। उन्होंने कहा कि मामला गंभीर है, दस दिन की दवाइयाँ और इंजेक्शन दिए। कहा कि तेल-वसा-मक्खन सब बंद। कुछ समय बाद ऑपरेशन की सलाह दी।

अब मामला सरकारी और प्राइवेट में फँस गया कि कहाँ इलाज कराएँ? पहले एक प्राइवेट नर्सिंग होम में दिखाया। पहले दिन फीस सहित पाँच हज़ार रुपए का ख़र्च आया। सर्जन ने कहा कि दस दिन बाद आना। बाहर काउंटर पर पता किया तो वहाँ गॉल-ब्लैडर के ऑपरेशन का पैकेज 45 हज़ार का था। ऑपरेशन के बाद के ख़र्चे अलग से। मन पूरा नहीं हुआ। उधर यह भी डर था कि सरकारी अस्पतालों में हाइजीन नहीं रहती, कोरोना का डर अलग से।

ख़ैर, इसी बीच मन बनाया और सर सुंदरलाल अस्पताल चले आए। यह काशी हिंदू विश्वविद्यालय का एक अंग है। बनारस से पटना के बीच यह सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल है। सोनभद्र, मिर्ज़ापुर के आस-पास के इलाक़ों के लोग यहाँ आते हैं। यहाँ पढ़ने वाला प्रत्येक छात्र और छात्रा अपने घर-गाँव-जँवार के लोगों को यहाँ ज़रूर दवा दिलाने लाता है।

अगर इस अस्पताल में आने वाले मरीज़ों की सामाजिक-आर्थिक प्रोफ़ाइल का डेटाबेस बनाया जाए तो पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के एक बड़े हिस्से के बारे में चौंकाने वाले खुलासे होंगे। भारत में मेडिकल एंथ्रोपोलॉजी अभी शैशवावस्था में है, लेकिन सर सुंदरलाल अस्पताल उसके लिए सबसे अच्छी जगह होगी। वहाँ 28 दिसम्बर भर्ती होने की डेट मिली।

28 दिसम्बर 2020

आज सुबह प्रोफ़ेसर विवेक श्रीवास्तव से जनरल सर्जरी ओपीडी में मिला। उन्हें प्रोफ़ेसर सदानंद शाही का रिफ़रेंस दिया। उन्होंने तुरंत नोटिस लिया। वैसे सर सुंदरलाल हॉस्पिटल के सभी विभाग बिना किसी परिचय के ठीक-ठाक ही व्यवहार करते हैं। बहरहाल, उन्होंने कहा कि आज तो बेड ख़ाली नहीं हैं, लेकिन देखता हूँ। एक घंटे की भाग-दौड़ के बाद बेड मिला। छठवीं मंज़िल पर, वार्ड नंबर 226 में। 31 दिसम्बर को ऑपरेशन होगा, ऐसा मुझे बताया गया।

एमएस के एक छात्र डॉ. आशीष ने सारी रिपोर्ट देखी। वह सुबह नौ बजे ओपीडी में मिले थे, रात में भी 10 बजे तक उपस्थित। उन्होंने मेरी फ़ैमिली हिस्ट्री पूछी—रोगों के बारे में। माता-पिता के रोग पूछे। दोनों इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन चिकित्सक उनके अस्तित्व को मुझमें खोजते रहते हैं। आख़िर यह काया तो उन्होंने ही बनाई है। उन्होंने मेरी फ़ाइल में यह सब कुछ लिखा और यह भी लिखा कि मरीज़ एलर्ट है और सहयोग कर रहा है। वह समय, स्थान और लोगों को पहचान रहा है। यह एक ज़रूरी कार्यवाही होती है जो सीनियर डॉक्टर आकर देखते हैं। यही बात हम वृहत्तर समाज के अंदर रहते हुए ख़ुद के बारे में क्या कह सकते हैं कि क्या हम समय, स्थान और लोगों को पहचान रहे हैं? समय एक ऐसा चेहरा बन जाता है जिसे हम पहचान नहीं पाते और कभी-कभी उससे मुँह भी मोड़ लेते हैं। इतिहासकार, राजनीति विज्ञानी, समाजशास्त्री, साहित्यकार और पत्रकारों के साथ यह समस्या बहुत आती है कि वे समय, स्थान और लोगों के बारे में एलर्ट रहें और उसे पहचान पाएँ।

शाम के साढ़े छह बजे के आस-पास ब्लड प्रेशर चेक हुआ। यह बढ़ा हुआ था। डॉ. आशीष ने कहा कि रिलैक्स करिए। उन्होंने दवा लिखी।

रात में नींद ठीक से नहीं आई। लाइट जल रही थी। अँधेरे और उजाले के अपने फ़ायदे, अपने नुक़सान हैं। लोग दोनों की कमी और अधिकता से परेशान हो जाते हैं। अपनी एक कविता में त्रिलोचन ने मनुष्य को उजाले का कीड़ा कहा था। उन्होंने कहा कि मनुष्य का स्वार्थ उसे अँधेरे की ओर धकेलता है। दिल्ली, मुंबई और पुणे की चिड़ियाँ पहले बहुत परेशान रहती थीं, फिर उन्हें आदत पड़ गई; लेकिन मुझे उजाले में सोने की आदत नहीं है। सोने के लिए मनुष्य अँधेरा ढूँढ़ता है।

29 दिसम्बर 2020

सुबह भी ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है। डॉक्टर ने 2 डी इको टेस्ट कराने को बोला है। सबसे नीचे के तल पर हृदय-रोग-विभाग में जाता हूँ। बाहर प्राइवेट जगह पर यही जाँच कराने पर 2200 रुपए लगते हैं। यहाँ केवल पाँच सौ रुपए लगेंगे।

सरकारी मेडिकल सुविधाएँ सस्ती हैं। लगभग सभी मामलों में विश्वसनीय भी, लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र का निजीकरण जारी है। जिसके पास चार पैसा है, वह निजी क्षेत्र की ओर भागता है।

इसका एक तात्कालिक फ़ायदा तो यह है कि सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों पर भार कम पड़ता है, लेकिन इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाता है। महँगी दवाओं से लोग आर्थिक रूप से बर्बाद हो जाते हैं और ग़रीब और गरीब होता चला जाता है। इस पर अर्थशास्त्र और समाजविज्ञान के कई अध्ययन मौजूद हैं।

यहाँ दो बार कोरोना-जाँच के लिए सैम्पल दे चुका हूँ। पहली बार निगेटिव आया है। कोरोना-जाँच मुफ़्त में है। दूसरी बार की जाँच सर्जन लोग अपनी आश्वस्ति के लिए लिखते हैं। जाँच निगेटिव आने पर ही वे ऑपरेशन टेबल पर मरीज़ को लिटाएँगे। कोरोना शरीर को नष्ट करता ही है, इसने समाज के अभय-भाव को नष्ट कर दिया है। लोग इससे मर रहे हैं। कुछ लोग डर रहे हैं, कुछ लोग नहीं भी डर रहे हैं। हो सकता है कि कुछ लोग वास्तव में लापरवाही बरत रहे हों, लेकिन अधिकांश मेहनतकश जनता के लिए यह सवाल ही नहीं है कि उसे कोरोना हो जाएगा। अगर वे कमाएँगे नहीं, तो खाएँगे क्या? इसी एक भावना ने मानवीय इतिहास की इस सबसे बड़ी भगदड़ को जन्म दिया, जब लाखों लोग सड़कों पर निकल पड़े।

12 बजे के आसपास वार्ड में ही प्रोफ़ेसर मुमताज़ अंसारी की क्लास लगती है। सर्जरी के लगभग 20 छात्र थे—लड़के और लड़कियाँ। उनमें आम विद्यार्थियों जैसी ही ललक और तन्मयता। वे अपने प्रोफ़ेसर के एक-एक शब्द को सुन लेना चाहते हैं।

15 वर्ष का एक लड़का है। महानिया, कैमूर का। पिता नहीं हैं उसके। मुमताज़ अंसारी एमएस के छात्रों को बताते हैं कि कैसे हिस्ट्री लेते हैं, फिजिकल एक्जामिनेशन समझाते हैं। छात्रों को सवाल पूछने को प्रोत्साहित करते हैं।

2 डी इको की रिपोर्ट नॉर्मल आई है। इसका मतलब दिल ठीक है। ब्लड प्रेशर भी नॉर्मल हो रहा है। शायद यह उद्विग्नता के कारण हुआ हो कि ब्लड प्रेशर बढ़ गया हो। मुझे लगता है कि मैंने इंटरनेट पर गॉल ब्लैडर स्टोन को कुछ ज़्यादा सर्च किया। उससे इधर-उधर की सूचनाओं के कारण डर गया होऊँगा। मन न स्वीकारे, लेकिन कभी-कभी शरीर डर को आत्मसात कर लेता है और वैसे ही अनुक्रिया करता है।

वैसे आजकल लोग गूगल सर्च मार-मारकर स्कॉलर बन गए हैं। मैंने मद्रास हाईकोर्ट के एक जज साहब का लेख पढ़ा था कि आजकल के क्लाइंट गूगल सर्च करते हैं और डॉक्टर और वकील को तंग कर देते हैं। मैं इससे बचता हूँ… डॉक्टर डाँट भी लगा सकता है।

शाम को ख़ुशबू (पत्नी) और अनघ (पुत्र) आ गए हैं। रोक रहा था कि न आओ, लेकिन आने पर ख़ुशी होती है।

30 दिसम्बर 2020

ब्लड प्रेशर बिल्कुल ठीक। सुबह पीयूष और अमित से बात हुई। दोनों मेरे दोस्त। दोनों सरकारी नौकरी करते हैं। हम सब जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद से शोध कर रहे थे। दोनों का मानना रहा है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सरकारी होना चाहिए। अमित की तबियत ख़राब चल रही है। वे भी एक अर्द्धसरकारी अस्पताल में इलाज करा रहे हैं, क्योंकि उस रोग की दवा वहाँ अच्छे से होती है।

ख़ुशबू पोहा लेकर आई थीं। सुबह प्रोफ़ेसर अंसारी आए, रिपोर्ट्स देखी, ब्लड प्रेशर देखा और कहा कि अब ठीक है। कल ऑपरेशन कर देंगे। डोंट वरी। डॉक्टर के यह दो शब्द मरीज़ को भरोसा देते हैं। यह बात उनको भी पता है, मुझे भी पता है।

सुबह 11 बजे कुमार मंगलम आए थे। गंगा पर एक किताब देकर गए हैं। मंगलम आजकल साहित्य में धीरे-धीरे जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वह कविताएँ भी लिख रहे हैं। ‘कर्मनाशा’ पर लिखी उनकी एक कविता मुझे अच्छी लगती है।

आज आदित्य सर का फ़ोन आया था। काफ़ी बात की, अच्छा लगा। वह सेंट स्टीफ़ेंस में इतिहास पढ़ाते हैं। शिमला में फ़ेलो थे, वहीं मित्र बने और अब सुख-दुःख के साथी हैं। नई जगहें हमेशा जीवन में कुछ न कुछ जोड़ती हैं।

सामने के दो बेड पर बिहार के दो लोग हैं। एक नौजवान 30 वर्ष के होंगे। उन्हें उल्टी हो रही है। खाना खाने के तुरंत बाद। वह सासाराम के हैं। उनके साथ उनके वृद्ध पिता हैं। वह बार-बार उनके लिए दवा लाने, सैम्पल देने और रिपोर्ट लाने जाते हैं। उन्हें देखकर बहुत पीड़ा होती है। भला कोई पिता यह सोचता है कि बुढ़ापे में उसे अपने जवान बेटे की दवा करानी पड़ेगी। उन्हें सहारे की ज़रूरत रही होगी। ज़िंदगी कभी-कभी ऐसे ही चलती है।

बग़ल वाले बेड पर, 15 वर्ष का लड़का कैमूर से है। उसे पेट में दर्द रहता है पिछले छह महीने से। उसके आँत में कोई समस्या है। उसके घर से एक परिचित आज आया है। अन्यथा वह कई दिन से अकेले ही था। वह लड़का हमेशा हँसता रहता है। बग़ल के बेड पर आज़मगढ़ के एक नौजवान हैं। उन्हें गॉल ब्लैडर की पथरी है। वह आज़मगढ़ के हैं और स्त्रियों के सौंदर्य-प्रसाधन बेचते हैं। 30 वर्ष के आस-पास होंगे। वह ख़ुश रहते हैं। और उन्हें देखकर मैं। इस यूनिट के इन चार बेड से एक शौचालय जुड़ा है। उसी में स्नान-घर भी है। इन चारों का कल ऑपरेशन है।

रात के 11 बज रहे हैं। अभी एक नर्स आई थीं। पेट साफ़ करने वाली दवा पिलाकर गई हैं। इससे ऑपरेशन से पहले पेट साफ़ रहता है। सुबह कुछ नहीं खाना-पीना है। शाम को विंध्याचल यादव और उनके एक समाजशास्त्री दोस्त आए थे। उनके दोस्त की माँ के गर्भाशय में गाँठ हो गई थी। उसे हटाने के लिए ऑपरेशन हुआ है। वह कल डिस्चार्ज हो जाएँगी। गर्भाशय से हमारे जीवन की शुरुआत होती है और फिर वही बहुत सारी स्त्रियों के स्वास्थ्य का दुश्मन बन जाता है। जिनका पता समय रहते चल जाता है, उनका निकाल दिया जाता है। कुछ को तो गंभीर रोग हो जाता है।

31 दिसम्बर 2020

वर्ष का आख़िरी दिन है। किसी को क्या शुभकामनाएँ दें? आज चाय-पानी-नाश्ता बंद है। ख़ाली पेट हूँ, लेकिन दिमाग़ ख़ाली नहीं है। इधर-उधर की बात सोच रहा हूँ कि ठीक होने के बाद क्या काम सबसे पहले करना है।

सुबह मरीज़ों वाला सफ़ेद कपड़ा पहना दिया गया। ऑपरेशन थिएटर के बाहर इंतज़ार। छोटे वाले मरीज़ को सबसे पहले ले गए हैं। उसका बड़ा ऑपरेशन है, यानी पेट में बड़ा चीरा लगेगा।

बाहर अनूप, प्रभाकर और विकास आनंद बैठे हैं। प्रभाकर मेरे ज़िले के गोंडा के हैं और बीएचयू में पीएच.डी. कर रहे हैं। अनूप मेरा भतीजा है।

अंदर एक कक्ष में ऑपरेशन वाले मरीज़ बैठे हैं। उन्होंने सफ़ेद कपड़े पहन रखे हैं। ठंड से बचने के लिए कंबल या शॉल ओढ़ रखा है। सबको एक आश्वस्ति है कि इसके बाद उनकी परेशानियाँ ख़त्म हो जाएँगी।

दुपहर के दो बज रहे हैं। मेरा नंबर नहीं आया। इसी बीच फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘संवदिया’ पढ़ी। लगभग 15 वर्ष बाद। हरगोविन और बड़ी बहुरिया के चेहरे भुलाए से न भूलें। सुबह विकास से कहा था कि ‘हिंदू’ अख़बार ले आना, वह ‘लहक’ पत्रिका ले आया। प्रभाकर और विकास को वापस उनके हॉस्टल भेज दिया कि ज़्यादा समय लग रहा है।

एक अद्भुत दृश्य देखा जब ऑपरेशन के बाद स्ट्रेचर पर बैठी एक वृद्ध महिला तंबाकू मल रही थी। उनका शायद कोई बहुत छोटा ऑपरेशन रहा होगा। तंबाकू खाने के बाद उसे एक महिला और एक पुरुष उसके वार्ड में ले गए हैं। जीवन चलता रहता है।

…और इसे कहते हैं तुषारापात। तीन बजे यकायक पता चला कि एनेस्थीसिया वालों की क्लास है। वे जा रहे हैं। अब शनिवार को होगा ऑपरेशन। बहुत ग़ुस्सा आया, लेकिन ग़ुस्से का क्या? जिसके पास प्राधिकार है, उससे लड़कर तात्कालिक रूप से काम बिगाड़ने का मन नहीं है। सोचा कि जहाँ छप्पन, वहाँ गप्पन। दो दिन और सही।

बग़ल वाले मरीज़ यानी आज़मगढ़ वाले गुप्ता जी का ऑपरेशन हो गया है। वह बेड पर पर आ गए हैं। पेट पर तीन जगह सफ़ेद चौकोर पट्टियाँ लगा दी गई हैं। उन्हें पेशाब लगी है और डॉक्टर ने कहा है कि वह बाथरूम जा सकते हैं। उन्हें देखकर मुझे यह अच्छा लगा कि चलो कोई बड़ी बात नहीं है, परसों मेरा भी यही हाल होगा। यह भी सही। कैमूर वाले बच्चे का भी ऑपरेशन हो गया है। बड़ा ऑपरेशन था उसका। उसके पेट में लंबा चीरा लगा है।

अब यहाँ से ‘मामला सरकारी’ शुरू होता है। सरकारी अस्पताल ज़्यादा समय लेते हैं और कभी-कभी ग़ैर-पेशेवर तरीक़े से पेश आते हैं। उन्होंने अस्पताल में रुकने का मेरा समय दो दिन बढ़ा दिया। मेरे तीमारदारों को भी यही संकट उठाना पड़ा। अब कल्पना कीजिए कि मैं एक मज़दूर हूँ तो मेरे दो कार्यदिवसों का नुक़सान हुआ। ऐसी बातों से सरकारी चिकित्सा सेवाओं के प्रति लोगों में अविश्वास पैदा होता है और वे निजी चिकित्सकों की तरफ़ भागते हैं।

ऐसे लोग जिनके परिवार में कम लोग होते हैं, यार-दोस्त नहीं होते हैं, वे भी निजी चिकित्सकों की तरफ़ भागते हैं। परिवार में लोगों का न होना या उनके द्वारा मरीज़ की तीमारदारी करने को प्रस्तुत न होना एक सामाजिक संकट है जो आगे और गहराता जा रहा है।

प्राइवेट नर्सिंग होम 45 हज़ार से 80 हज़ार के पैकेज पर गॉल ब्लैडर का ऑपरेशन करते हैं। फ़िलहाल यह बनारस का पैकेज है जिसे मैंने ख़ुद पता किया है। वहाँ मात्र तीन दिन में आपका ऑपरेशन करके भेज देते हैं। अगर आपके पास तीमारदारी के लिए कोई आदमी न हो तो भी चलेगा। भारत का मध्यवर्ग पैसा देकर तीमारदार ख़रीद लेता है। वह हमेशा अपने सगे-संबंधियों से दूर रहता है… व्यस्त जीवन और निजता के प्रति घनघोर आग्रह उसे अपनों से दूर कर देता है। बीमार होने पर प्राइवेट नर्सिंग होम उसके लिए तात्कालिक तीमारदार उपलब्ध करा देता है।

ग़रीब और सामान्य ग्रामीण जनों के पास तीमारदारों की कमी नहीं रहती है। नाते-रिश्तेदारी से लेकर कोई न कोई पड़ोसी उसके साथ आ जाता है। कैमूर वाले बच्चे के दो मामा आए हैं, उसका ऑपरेशन कराने। वह 21 दिसम्बर 2020 से ही भर्ती है।

जबकि मेरे सामने वाले बेड पर भर्ती सासाराम वाले मरीज़ की तीमारदारी के लिए उनके एक रिश्तेदार आए हैं। अब उनके पिता शायद कुछ राहत महसूस कर रहे हों।

उसे अच्छे इलाज की कमी है। वह सरकारी अस्पतालों के उपर्युक्त रवैए से तंग आकर निजी चिकित्सा की ओर भागता है। शायद मैं दुबारा अगर बीमार पड़ूँ तो किसी सरकारी जगह पर जाने के लिए दो बार सोचूँ।

1 जनवरी 2021

नया वर्ष मुबारक। सुबह के सात बजे हैं। डॉ. आशीष आ गए हैं और सामने वाले बच्चे का ब्लड सैम्पल लिए हैं। उसका तीमारदार टेस्ट कराने नीचे गया है। आज़मगढ़ वाले गुप्ता जी की माँ भी कल रात में आ गई थीं। सब कुछ ठीक था, बेटे को स्वस्थ पाकर प्रसन्न महसूस कर रही होंगीं। डॉ. आशीष उनकी पट्टी बदल रहे हैं। एमएस प्रथम वर्ष के इस नौजवान को देखकर बहुत अच्छा लगता है। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, वह एक शानदार और दयालु सर्जन बनेंगे।

नौ बजे सुबह प्रोफ़ेसर मुमताज़ अंसारी आए और उस बच्चे को देखा जिसका आँत का ऑपरेशन हुआ है। वह मरीज़ों को तुरंत विश्वास में ले लेते हैं। मुझे लगता है कि एक अच्छा डॉक्टर अच्छा कम्युनिकेटर भी होता है। अंसारी जी ऐसे ही हैं।

वे मेरे बेड पर आए और कहा कि कल करेंगे ऑपरेशन। एक मन करता है कि उनकी बात पर विश्वास कर लें। एक मन करता है कि न करें। और न करें तो क्या करें? कल अगर ऑपरेशन नहीं होगा तो ख़ुद को यहाँ से डिस्चार्ज करवा लूँगा फिर किसी दूसरे सरकारी मेडिकल कॉलेज जाऊँगा। शायद लखनऊ ठीक रहेगा। वहाँ सूरज हैं। शायद कोई समस्या न हो। प्रोफेसर सदानंद शाही को व्हाट्सएप किया है, उनका जवाब आया है कि मैं बात करके देखता हूँ। ख़ैर, सोचता हूँ कि जीवन में उन्नीस-बीस लगा रहता है। दूसरी जगह दिखाने जाएँगे तो फिर यही सब टेस्ट लिखेंगे डॉक्टर। लंबा खिंच जाएगा मामला।

प्रोफ़ेसर विवेक श्रीवास्तव आए थे राउंड पर। उन्होंने कहा कि शाही जी का फ़ोन आया था। कल आपका ऑपरेशन हो जाएगा। इसके बाद डॉ. हरिकेश यादव आए, उन्होंने भी कहा कल कर देंगे। मन में एक विश्वास लौटता है। प्रोफ़ेसर विवेक आँत वाले बच्चे के पेट पर हाथ फेरते हैं। उससे कहते हैं कि कोई समस्या नहीं है। उसे दवाएँ दी जा रही हैं।

शाम को चार बजे गुप्ता जी डिस्चार्ज। उनका जीवन मंगलमय हो।

शाम को छह बजे एनेस्थीसिया वाले फिर आए। उन्होंने कुछ सवाल पूछे और बाक़ी सूचना जस की तस थी।

दरअस्ल, एक मरीज़ को ऑपरेशन के लिए तैयार करना बहुत बारीकी का काम है। छोटे-छोटे डिटेल जूनियर डॉक्टर मरीज़ की फ़ाइल पर नोट करते हैं। मुझे लगता है जैसे गेहूँ बोने के लिए किसान तैयारी करता है, वैसी ही तैयारी प्रोफ़ेसर अंसारी और प्रोफ़ेसर विवेक श्रीवास्तव और उनकी पूरी टीम करती है। किसान नया जीवन रचता है, सर्जन जीवन को विस्तार देता है, उसकी पुनर्रचना करता है।

2 जनवरी 2021

आज ऑपरेशन है। सात बज रहे हैं और डॉ. आशीष आए हैं। ब्लड प्रेशर चेक किया—सामान्य है। अब से ऑपरेशन होने तक कुछ खाना-पीना मना है।

सुबह नौ बजे ऑपरेशन थिएटर में। वहाँ डॉ. मोहित और डॉ. आशीष मिलते हैं। वे ऑपरेशन की शुरुआती कार्यवाही करते हैं। एनेस्थीसिया के एक डॉक्टर आते हैं। दवा लगाते हैं। फिर सब कुछ धीरे-धीरे शांत। 11 बजे के क़रीब मुझे पूरी चैतन्यता आ जाती है। डॉक्टर पूछते हैं कैसा महसूस कर रहे हैं? मैं कहता हूँ ठीक। पेट पर चार छोटी-छोटी चौकोर पट्टियाँ लगी हैं। 12 बजे मुझे स्ट्रेचर पर लिटाते हैं। ख़ुशबू, अनूप और विकास आते हैं। स्ट्रेचर के आगे का एक और पीछे का एक जाम है। आवाज़ करता है। भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था भी ऐसी ही है—आधी चलती हुई, आधी आवाज़ करती हुई। मुझे लगता है कि वे लोग स्ट्रेचर तेज़ खींच रहे हैं। मैं विकास से कहता हूँ कि यार धीमे ले चलो, आलू का बोरा नहीं लादे हो। तीनों हँसते हैं।

शाम पाँच बजे डॉ. हरिकेश यादव आते हैं। कहते हैं कि सब कुछ ठीक है। मैं अपनी फ़ाइल देखता हूँ। मेरा ऑपरेशन प्रोफ़ेसर विवेक, डॉ. मोहित और डॉ. आशीष ने किया है। उनके प्रति कृतज्ञ महसूस करता हूँ। एमएस कर रहे जिन डॉक्टरों का नाम नहीं जानता हूँ, उनके प्रति भी कृतज्ञता।

सुबह के पाँच बज रहे हैं। नींद खुल गई। किसी का परिचित मर गया है और गैलरी में बैठी दो स्त्रियाँ रो रही हैं। गैलरी में सो रहे लोग जाग गए हैं। वास्तव में जनरल वार्ड में एक मरीज़ के साथ एक ही आदमी रुक सकता है, इसलिए कुछ लोग गैलरी में तो कुछ बाहर रुक जाते हैं। निजी चिकित्सालयों में ज़्यादा सुविधा है, लेकिन वहाँ तो ज़्यादा पैसा लगता है जो सबके बस की बात नहीं है।

सुबह नौ बजे डॉ. हरिकेश यादव आए थे। उन्होंने अपने जूनियर से कहा कि आज इनका डिस्चार्ज बनवा दीजिए।

यहाँ मेरे इलाज में कुल मिलाकर 12-14 हज़ार रुपए लगे। इस प्रकार सरकारी और निजी चिकित्सालय के ख़र्च में चार से पाँच गुने का अंतर है। भारत की राजनीति और समाज को यहीं दुरुस्त होने की ज़रूरत है। वर्षों से अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज़ यह बात कहते आ रहे हैं। यह बात पूरे देश को सामूहिक रूप से समझनी होगी। और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। एक सुंदर देश सबको स्वास्थ्य के अधिकार और उस तक बराबर पहुँच के बिना नहीं बन सकता है।

यही अंतिम पैराग्राफ़ लिखने के लिए ऊपर की कहानी लिखी है।