लहू में आग और खाल में राग

30 मार्च 2020

सुबह-सवेरे मेरी आँख खुली तो सामने ग़ज़ब दृश्य था। बकरियों के बीच ज़मीन पर रामा लेटा पड़ा सो रहा था और बकरियाँ मिमियाते हुए उसका मुँह चाट रही थीं। रात को हम शराब पीकर नशे में ढेर हो गए थे। रात को कुछ खाया न था, इसलिए सुबह-सुबह बहुत ज़ोरों की भूख लगी थी। परंतु चूल्हे पर चढ़ाया गया खारी-भात का पतीला ग़ायब था। बहुत ढूँढ़ने पर वह क़रीब दो सौ मीटर दूर एक खड्डे में पड़ा मिला। हुआ यूँ था कि हमारे नशे में ढेर हो जाने पर भूखे कुत्तों ने उसे झपट लिया था और कुत्ते भात खाने की आपसी छीना-झपटी में उसे दूर खड्डे तक ले आए थे। मैंने दो बकरियाँ दुहकर लौटे भर दूध से अपनी क्षुधा शांत की और रामा को यूँ ही सोया पड़ा छोड़कर अपने डेरे आ गया।

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लॉकडाउन से राशन और अन्य जीवन ज़रूरी चीज़ों की पुरवठा शृंखला टूट गई थी, जिसके चलते गाँवों में कुछ चीज़ों की क़िल्लत होना शुरू हो चुकी थी। शहर, क़स्बों की मंडियों से गाँवों में सब्ज़ियाँ आनी बंद हो गई थीं। बाज़ार बंद होने के चलते किराने की सामग्री गाँवों तक नहीं पहुँच रही थी और गाँवों में व्यापारियों के पास दुकानों में जो भी कुछ किराना मौजूद था, वे उसे दुगने दामों में बेच रहे थे। (कल मैं प्याज़-आलू लेने पीरजी की दुकान गया तो उसने डेढ़ सौ रुपए किलो के हिसाब से दिया था।) सबसे ज़्यादा काला-बाज़ारी गुटका, तंबाकू, बीड़ी और सिगरेट में हो रही थी। सबकी क़ीमत तीन-तीन, चार-चार गुना वसूली जाने लगी थी।

शहरी मंडियों से गाँवों तक की खाद्य-सामग्री तथा अन्य ज़रूरी चीज़ों की पुरवठा साँकल रुक गई थी, जिसके चलते गाँवों के हरामी व्यापारियों ने काला-बाज़ारी, संग्रहख़ोरी का नया धंधा ईजाद कर लिया था जो बहुत माल कमा दे रहा था। सरकार की सारी व्यवस्था और चिंता शहरों के लिए और उच्च व मध्यवर्ग के लिए ही थी। गाँवों और ग़रीबों तक उनकी चिंता और व्यवस्था पहुँच से तो दूर ही थी, सोच से भी बहुत बहुत दूर थी। पता नहीं फिर भी ये समंदर-हृदय किसान और पशु-पालक दूध और धान शहरों तक क्यों पहुँचाते रहते हैं? 300 की आबादीवाला एक साकरिया गाँव ही प्रतिदिन 1,000 लीटर दूध शहर पहुँचाता है। अगर एक दिन के लिए भी यह गाँव अपना दूध शहर को देने से मना कर दे तो शहरों में अपने आलीशान बंगलों, मकानों में महीने भर का खाद्यान्न भर के दुबक कर बैठे और रात-दिन सोशल मीडिया पर अपना ज्ञान और सलाह झाड़ते 1,000 अमीरज़ादे परिवारों की चाय-कॉफ़ी दूसरे दिन ही बंद हो सकती है। यह कितना बड़ा मज़ाक़ है कि किसानों और पशुपालकों की श्रमशीलता, दया और मानवीयता पर पलने वाले ख़ुद को जगत-नियंता मान रहे हैं!

लौंडों में गुटका, तंबाकू, बीड़ी-सिगरेट के लिए दौड़ और वबाल मचना शुरू हो चुका है। मरियल शक्लों और हाँफते हुए कुत्तों-सी जीभ मुँह से बाहर लटकाए, वे यहाँ-वहाँ हाथ-पैर मारते रहते हैं और अपनी ज़रूरत भर का सामान कहीं से किसी तरह जुटा ले रहे हैं। नशे की लत लौंडों के लिए इन दिनों आफ़त बन गई है। इन नव आधुनिक ग्राम्य युवाओं को शराब शराफ़ती नशा नहीं लग रहा था, तब यूँ ही लत खानी थी एक दिन। शराफ़ती नशों ने बड़ी शराफ़त से उनमें ख़ुराफ़ात मचा रखी थी—यह इन दिनों जाकर मालूम हुआ। शराबियों पर आए दिन हँसने वाले इन घोंघेनुमा कथित सभ्य लौंडों की गुटका-तंबाकूग्रस्त नस्ल तो निहायत निर्बल निकली। दो दिन गुटका-खैनी न मिलने पर रुआँसा-सा चेहरा बनाकर खटिया पकड़ लेते थे।

4 अप्रैल 2020

कल सड़क पर जाकर स्टंटबाज़ी करते कुछ गबरू जवान टाइप लौंडों को पुलिस पेट्रोलिंग जीप ने धर लिया; सड़क पर ही मुर्ग़ा बनाकर और उनके नाज़ुक नितंबों पर डंडों से अक्षांश-रेखांश खींच दिए, तब से गाँव से बाहर निकलती सड़कों पर सन्नाटा छा गया है। वरना लौंडों के टोले मोटरसाइकिल लेकर सड़क पर स्टंटबाज़ी करते रहते थे। पुलिस जीप भी अब दिन में गाँवों की ओर दो-चार चक्कर लगा जाती है। डंडे के डर से लोग भी अब बिना कामकाज के बाहर निकलना टालते हैं। बाहर निकलते भी हैं तो सड़क का रास्ता छोड़कर सीम, वन की पगडंडियों पर आवाजाही करते हैं। अपने खेतों में काम करने छूट दी गई है, तो लोग खेतों में जाकर काम करते हैं। लाट्साहब बने फिरते लड़के भी ‘आउटिंग’ करने की नीयत से बाप के साथ खेतों में हाथ बँटाने चले जाते हैं।

फल-सब्ज़ियों को देखना भी नसीब नहीं हो रहा, तब लोग सीम में जाकर जंगली सब्ज़ियाँ जैसे खेजड़ी की सांगरी, करिल के केरड़े, जंगली इमलियाँ (जंगली जलेबी) वग़ैरह पर आश्रित हो रहे हैं। संयोग से कच्छ में वही झाड़ियाँ ज़्यादा है, जिनमें फूल-फल भी इन्ही दो-चार महीनों में आते हैं। हालाँकि इस साल झालों में पीलुओं का फाल नहीं आया, पर बाक़ी सब झाड़ियाँ फाल के बोझ से लद्दी-झुकी जा रही हैं।

किराना अब गाँवों तक पहुँचाने के ज़हमत की जा रही है, फिर भी व्यापारियों द्वारा दाम दुगने ही वसूले जा रहे हैं। सबसे प्रबल माँग गुटका, तंबाकू और बीड़ी-सिगरेट की है। सरकार ने लॉकडाउन में उसकी बिक्री पर बैन लगा दिया है। अब इसकी अवैध बिक्री आठ-दस गुना क़ीमत बढ़ाकर की जा रही है, तब भी वह बहुत मुश्किल से मिल रही है। कुछ लोग अब इस गुटका, तंबाकू, बीड़ी-सिगरेट के अवैध धंधे में फ़ायदा उठाने कूद पड़े हैं। साकरिया और लखपत के सात-आठ युवाओं को इस धंधे में रात-देर रात सीम की पगडंडियों से गुज़रते देखा जा सकता है। वे दूर दूर क़स्बों, शहरों तक मोटरसाइकिल लेकर माल जुटाने का प्रयास करते रहते हैं। गुजरात और कच्छ में शराबबंदी के चलते शराब बूटलेगिंग तो बहुत सुनी थी और उस धंधे में बहुत सारे लोग मालदार बने थे। पर सरकार ने इस लॉकडाउन जैसे विकट समय में भी गुटका, तंबाकू और बीड़ी-सिगरेट बूटलेगिंग के धंधे के नए अवसर मुहैया करवाकर कई लोगों को रोज़गारी उपलब्ध तो कराई ही थी।

पिछले चार-पाँच दिन ऊँट लेकर दस मील दूर के सियोत गाँव चला गया था। वहाँ मेरा एक पुराना दोस्त है, जो अब अपने फैले हुए व्यवसाय के चलते बैंगलोर में ही रहने लगा है। लॉकडाउन के चलते वह सपरिवार अपने पैतृक गाँव सियोत आया हुआ था। उससे मिलने चला गया। ऊँट की सवारी का फ़ायदा यह है कि आप कभी भी, कहीं भी आ-जा सकते हैं। सड़कों पर चलने से वाहन चालकों को पुलिस की रुकावट का डर रहता है; पर ऊँट सीम, मैदान, पहाड़, झाड़ियाँ, पगडंडियाँ, उजाड़, ऊबड़-खाबड़ किसी भी रास्ते मस्ती से चल सकता है।

सियोत में अपने दोस्त के वहाँ तीन-चार दिन रहकर मैंने उससे कई तरह की शराब बनाना सीखा। वह हर तरह की शराब बनाने का उस्ताद था। शराब विद्या-प्राप्ति के दौरान यह ज्ञान पाया कि लगभग हर फल, फूल, धान से शराब बनाई जा सकती है। और यह भी कि किसी भी शराब को बनाने के लिए शक्कर या गुड़ बहुत ज़रूरी चीज़ है। शराब का नशा पीने से कहीं अधिक बनाने की विधि में भी है। बेहतरीन शराब बनाने की तीन अहम विधियाँ हैं। पहले बहुत धैर्य और यत्न से शक्कर (गुड़), फल (फूल या धान), यीस्ट वग़ैरह का घोल बनाकर आथा (माल्ट) जमाओ। सही तरीक़े से जमाया गया आथा शराब को सही स्वाद देगा। दूसरी विधि है उस आथे में अपनी पसंद के मसाले मिलाकर सही ताप पर शराब निकालो। सही तरीक़े से मिलाए गए मसाले और आथे से उबालने की क्रिया शराब को सही सुगंध देगी। तीसरी विधि है उस निकाली गई शराब को अपने पसंदीदा पेड़ की छाल में सही तरह से मिलाकर लंबे वक़्त तक कहीं गाड़कर रखना। सही तरीक़े से की गई यह आख़िरी विधि शराब को सही रंग और नशा देगी। यूँ अनुभव से कहूँ तो शराब बनाना क़तई शौक़ पालने चीज़ नहीं है, वह जीवन को कुछ रंगीला-नशीला बनाने की दवा है।

सियोत में मित्र के पास पहले से बनी रखी हुई भिन्न-भिन्न बाईस तरह की शराब को जाँचने के बाद यह कह सकता हूँ कि दुनिया भर की शराबों को मैं पी लूँ, महुए और खारेक की शराब जैसी दूसरी कोई शराब नहीं होती। उपरोक्त तीन प्रकार की शराब सिर्फ़ शराब नहीं पूरी एक संस्कृति का नशा, स्वाद, सुगंध, रंग से भरी-पूरी दुआएँ-दवाएँ होती हैं। गला तर करते ही हवा, धूप, मिट्टी, नभ, आग, जल जैसे तत्त्वों की अनुभूति होने लगती हैं और समाज, राष्ट्र, दृष्टि, गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश की सरहदों के पार मनुष्य अपने मन-माफ़िक़ संसार रचते हुए मुक्ति, मस्ती, महक, सुकून, मौन, मनन का सुख पा सकता है। रामा की मुहावरेदार भाषा में कहूँ तो—‘एक सुख महेरारू, सौ सुख दारू!’

कल का चढ़ा महुआ अब तक अंग-अंग से महक रहा है और दोस्त ने दो बोतल खारेक का बोझ भी साथ लाद दिया है। अब कई दिनों तक लहू में आग और खाल में राग रहेगा।

जारी…

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