कविता की बुनियादी ताक़त का संग्रह

‘नया रास्ता’ (रश्मि प्रकाशन, लखनऊ) हरे प्रकाश उपाध्याय का ‘खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ’ (2009) के बारह वर्ष बाद प्रकाशित दूसरा कविता-संग्रह है। यह आगमन एक ऐसे दौर में हुआ है, जब बहुत से पुराने रास्ते अप्रासंगिक होकर ज़हरीली वैचारिक खरपतवारों से घिर चुके हैं। उन पर चलकर बड़े क़द की मनुष्यता के लिए कोई अग्निधर्मी स्वप्न देखना संभव नहीं रह गया है, ऐसे हालात में हरे प्रकाश के अंदर के कवि का हौसला इन जटिल और भयावह हालात में भी टूटकर बिखरा नहीं है। उनके कविता-संग्रह का नाम और इसमें शामिल कविताएँ इसका प्रमाण हैं।

इस संग्रह में नए-नए प्रयासों में नई सोच और ठोस संभावना ढूँढ़ता, बुनियादी ताक़त हासिल करता और ऊर्जावान होता हुआ मनुष्य है। उसे मालूम है कि जो भी जीवन की नई इबारत लिखता है; उससे कभी वर्तनी ग़लत होती है, कभी भाषा बिगड़ जाती है जो कि सहज, स्वाभाविक जीवन-संघर्ष की अनिवार्य परिणति है।

कवि को अपने लिखने की ज़मीन के चरित्र की अच्छी पहचान है; इसलिए वह थोड़ा रौशनी के ख़्याल से लिखता है, तो थोड़ा अँधेरा भी उसे अच्छा लगता है। अँधेरों को भी सम्मान देने वाला कवि किसी भी तरह के शुद्धतावाद में नहीं फँसता। उसे मालूम है कि जीवन को व्याकरण के तथाकथित शास्त्रीय कठोर नियमों में जकड़ने से इसके अंदर का मर्म मर जाता है। इतिहास ऐसे शिकारी भाषाविदों से भरा पड़ा है। इसलिए वह कृत्रिम चीज़ों को महाकवियों के लिए छोड़ देता है, लेकिन अपनी कविताओं की चौकन्नी आँख से निश्चल, ईमानदार, मेहनतकश जीवन से लिपटकर प्राण-जल हड़प जाने वाली अमरबेलों की भी लगातार शिनाख़्त करते चलता है।

हर बड़ी और अच्छी कविता का यह बुनियादी गुण होता है कि वह अपने समय की विडम्बनाओं, ख़ौफ़नाक आहटों को सबसे पहले दर्ज करती है। आज हम शासनतंत्र की जिस क्रूरता और असंवेदनशीलता को देख रहे हैं, हरे प्रकाश ने लोक में व्याप्त टोने-टोटके के माध्यम से इस सबको बख़ूबी पहचाना है। वह लिखते हैं :

अरे ये तो इधर
काला जादू चल रहा है
भयानक खंडहर व्यवस्था का
उसमें नए रंग-रोगन
रंगों के भरम में
कभी भीड़ इधर भागे
कभी भीड़ उधर भागे
मृग-मरीचिका अविराम

‘खंडहर’ शीर्षक से इस संग्रह में सात कविताएँ हैं, जो दहकती हुई बीहड़ भाषा में लिखी गई हैं। इस संवेदना के लावे में हमारे देश की जनता के टूटते सपनों, रहनुमाओं से मोहभंग तथा शातिर मध्यवर्ग की चुनी हुई, बुनी हुई चुप्पियों की कहानी है; जो पाठक को निरंतर कुरेदती, बेचैन करती तथा आत्मा की किसी अनाम अदालत में उपस्थित होने को मजबूर करती-सी दिखाई देती है। कुछ काव्यांश देखें :

इसकी आत्मा में है ग़ज़ब की घड़ी
हर वक़्त जिसे बाँटने की बेचैनी ही पड़ी
सत्ता की भयानक भूख
कुछ भी कराए है
इसे ग़ज़बे नचाए है
तांडव दिखाए है
मन ललचाए है

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भूल गए कामरेड अपना सपना
मोमबत्तियाँ जलाने लगे
दिन में चौराहे पर अपनी ख़ुद दीनता दिखाने लगे
लो उनका कारवाँ छिटक गया
चुनाव-चिह्न अपना कैडर भूल गया

‘खंडहर’ शीर्षक से लिखी गई इन कविताओं में कवि का काव्य-कौशल, यथार्थ से मुठभेड़, प्रश्नात्मकता, भाषिक जद्दोजेहद इतने संश्लिष्ट, नुकीले, खुरदुरे रूप में सामने आती है कि इन्हें पढ़कर पाठक देर तक थरथराता रहता है। उसे लगता है कि कवि सही कह रहा है : इस समय लहूलुहान आदमी ही देश का सबसे सरल भावार्थ है।

हरे प्रकाश ने इस संग्रह की कविताओं को अपना ग़ुस्सा, अपना ख़ून, अस्थि-मज्जा सब कुछ सौंप दिया है। मेरे मित्र और वरिष्ठ कथाकार पुन्नी सिंह जब कहानी लिखते थे तो अक्सर उन्हें बुख़ार चढ़ जाता था। मुझे उम्मीद है कि इन कविताओं को लिखते हुए कवि का माथा भी एक तेजस्वी, गहरी मनुष्यता वाली आँच में बुरी तरह तपा होगा; क्योंकि वह इन कविताओं में बार-बार पूछता हैं :

यह कौन है कौन है
क्या गा रहा है
कहाँ जा रहा है
किस आँच में यह देश
कौन देश को पका रहा है

हरे प्रकाश की कई कविताओं को पढ़कर कहीं-कहीं मुक्तिबोध और धूमिल की कविताई की याद भी आ जाती है। कुछ कविताओं में धूमिल जैसी ही छीलती-छेदती प्रश्नात्मकता, देश और समाज का गिरहबान पकड़कर उसकी आँखों में आँखें डालने वाला काव्य तेवर, रचनात्मक साहस दिखाई देता है। जब हरे प्रकाश लिखते हैं :

सफ़ेद क़मीज़-पजामे में
आदमी काला दिल का अजब गिरगिटान
लगाए घड़ी-घड़ी आग
कभी इधर भागे
कभी उधर कूदे

या :

मन ललचाए है
हाथ में रौशनी का कंगन लहराए है

तो मुक्तिबोध का स्मरण भी हो उठता है। यह सुखद है कि हरे प्रकाश ने इन दोनों बीहड़ कवियों की रचनाधर्मिता को गहरे आत्मसात् किया है। उनकी काव्य-परंपरा का हूबहू वैसा ही अनुकरण न करते हुए, उस बेहद संवेदित और जटिल काव्यात्मक लकीर में अपने काव्य-मुहावरे से कुछ नया जोड़ा है और उस महान परंपरा को एक नई चमक और प्रखर गहराई दी है, तभी तो करुणा को दौड़ाती हुई भीड़ को वह देश की आत्मा पर राष्ट्रभक्तों के जूतों की गड़ती हुई कीलों के रूप में देख पाए हैं। देशभक्ति के बदलते नए रूपकों, मायनों, विकृत होते दुरूह सामाजिक सरोकारों की उन्होंने इस संग्रह में कई जगह गहरी शिनाख़्त की है।

‘कभी ग़ौर से देखो’ कविता में उन्हें पूरा देश एक दिलचस्प कोलाज़ की तरह दिखाई देता है; जिसमें एक घड़ी बेहाल पड़ी है, गांधी टोपी को चूहों ने कुतर डाला है, पृथ्वी को तौलते सेठ-साहूकार बैठे हैं… कोई भी संवेदनशील और चौकन्ना पाठक इस कविता के संकेतों, निहितार्थों को आसानी से इस देश के मौजूदा दौर से जोड़ सकता है।

इस संग्रह की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता की ओर भी मैं पाठकों का ध्यान दिलाना चाहूँगा, वह है छोटे-छोटे शब्दों से बनी काव्य-तुकें। जिस विरासती काव्य-हुनर का आज के कवि-सम्मेलनों के ज़्यादातर कवि घिसा-पिटा पारंपरिक निस्तेज इस्तेमाल करते हैं; उस काव्य-युक्ति का हरे प्रकाश ने कई जगह बेहद सुंदर, मानवीय और ठोस इस्तेमाल किया है। कुछ उदाहरण देखिए :

अड़ गए अकड़ गए
ज़रा सी बात में लड़ गए

ठग हुआ ठिठका हुआ देश
सपने में सोए सपने में जागे
हम सपनों से बढ़े नहीं आगे

दिल्ली की ठेला ठाली में
भागा-भागी में काँव-कीच में

यहाँ ख़ास बात यह है कि आनुप्रसिक काव्य-युक्तियाँ विषय संदर्भ से काटकर समूची कविता की संरचना में कहीं से भी थिगड़ेनुमा ठूँसी हुई नहीं लगतीं; बल्कि इससे कविता की संवेदना का प्रकाश ज़्यादा घना और गंभीर हो जाता है। यह कविता की उम्र को बढ़ाने वाले हरे प्रकाश द्वारा अन्वेषित काव्य-कौशल है जो समकालीन कविता की दुनिया में कवि की उपस्थिति, उसकी मज़बूत यात्रा और उसके सधे हुए नए क़दमों से चलने वाले इरादे और ताक़त को दिखाता है।

इसी रचना-तकनीक की तनी हुई रस्सी से बुनी हुई कविता ‘आम जन के लिए’ भी इस संग्रह की छोटी-सी, लेकिन बेहद महत्त्वपूर्ण कविता है जो हमारे तथाकथित महान देश की जनता की वास्तविक विडम्बना को दिखाती है। महज़ दो शब्द ‘सचमुच’ तथा ‘ झूठमूठ’ के ताने-बाने की नोक पर गहरे संतुलन से खड़ी यह कविता पहले पाठ में ही पाठकों से जुड़कर उनकी स्मृतियों में देर तक बनी रहती है। संवेदना की एक बेहद छोटी चिंगारी से बनी सुरंग के अंदर ही अंदर चलकर एक बड़ी कविता कैसे लिखी जाती है, यह कविता एक नई काव्यगत सच्चाई के ज़रिए यह बताती है।

वैसे तो इस संग्रह को पढ़कर लगता है कि हरे प्रकाश लंबी कविताओं के माहिर खिलाड़ी हैं। इनमें ही वह देर तक और दूर तक खेले हैं, लेकिन ‘नया रास्ता’, ‘तुम्हारा नाम’, ‘फ़ैसला’ जैसी छोटी कविताओं में भी कवि का मन ख़ूब रमा है। इन कविताओं को भी हरे प्रकाश ने गहरी तल्लीनता से बुना है।

एक कविता-संग्रह में जो विषयगत और शिल्पगत विविधता संभव हो सकती है, उसका पर्याप्त निर्वाह करने में भी हरे प्रकाश सफल हुए हैं।

इस संग्रह में जहाँ एक ओर उदारीकरण के गोबर से कुएँ की जगत पर लहलहाती लोकतंत्र की घास है, तो कहीं ख़ुद अपने डर के अदृश्य मनोविज्ञान के मकड़जाल में फँसे रात-रात भर भूकते, दिन-दिन भर हाँफते कुत्ते के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य है। साथ ही साथ अधूरे प्रेम के अँधेरे में भटकते, छटपटाते प्रेमी की तकलीफ़ों को भी कवि रेखांकित करना नहीं भूला है।

‘नया रास्ता’ एक अच्छा और महत्त्वपूर्ण संग्रह है जो अपनी अलग काँटेदार, सामाजिक प्रतिबद्धता से लैस अनूठी भाषिक छंदबद्धता के लिए जाना जाएगा; लेकिन कुछ कविताओं में कवि की काव्य-एकाग्रता टूटी भी है। ‘हालचाल’, ‘ख़याली पुलाव’, ‘फ़ेसबुक’, ‘भ्रम’ जैसी कविताओं में असावधान कथ्य-चुनाव, ढीला काव्य-हुनर, संवेदनात्मक हड़बड़ी और यथार्थ का औसत प्रस्तुतिकरण दिखाई देता है। बड़े से बड़े कवि की भी रचनात्मक यात्रा के ये सहज अवरोध-बिंदु हैं, जिनसे जूझकर हर कवि अपने आगे के काव्यबोध को मज़बूत बनाता है।