‘तथता’ के रास्ते ‘इयत्ता’ की खोज

यह कथा अलग-अलग तरीक़ों से सुनाई जाती रही है। तरह-तरह के विद्वानों ने इस कथा के श्रोत/तों की ओर इशारा किया है, पर हमारे सामने सवाल इस कथा की अनुवांशिकी खोजने का नहीं है। सवाल यह है कि एक कथा कविता में कैसे बदलती है? क्यों बदलती है?

कथा और कविता का गहरा संबंध हमारी परंपरा में है। अज्ञेय पुराने महाकाव्यों से चली आ रही परंपरा का निबाह करते हुए कथा के ढाँचे का इस्तेमाल करते हैं। कथा का ढाँचा, जब कहानी को तेज़ी से आगे बढ़ाना होता है, अपेक्षाकृत सपाट ढंग से बढ़ता जाता है। इस सपाटपने को रोकने के लिए कवि ने नाटकीयता का इस्तेमाल किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल को याद करें : उन्होंने महाकाव्यों के गुण बताते हुए ‘मार्मिक स्थलों की पहचान’ को एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना था। हमारे इस कवि को मार्मिक स्थलों की पहचान है।

जहाँ पर मार्मिक स्थल नहीं होते, वहाँ वाक्य अपेक्षाकृत सीधे, खड़ी बोली गद्य जैसे हो जाते हैं और क्रियाएँ बढ़ जाती हैं। क्रियाओं की यह बहुलता छायावादी काव्य-बोध से मेल नहीं खाती। छायावादी कवि बिम्ब-रचना पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं, उनके यहाँ क्रियाएँ बेहद ज़रूरत पड़ने पर ही दिखती हैं। क्रियाओं की ऐसी प्रयोग बहुलता छायावाद-पूर्व समय की विशेषता है। महाकाव्यों से लेकर द्विवेदी युग की कविता तक क्रिया-बहुलता घटनाओं को क्षिप्र करने के लिए आती है, पर अज्ञेय इन क्रियाओं के प्रयोग से नाटकीयता की गारंटी करते हैं।

पाठक इन क्रियाओं से रची नाटकीयता के सहारे कविता के एक पूरे ढाँचे की कल्पना कर लेता है जिसमें आदि, मध्य और अवसान होना तय परंपरासिद्ध है। कविता इस ढाँचे को पाठक के मन में और गाढ़ा करने के लिए एक और पुरानी युक्ति का सहारा लेती है : भविष्य-संकेत। राजा पहले ही अंश में कहता है : ‘‘साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!’’ पाठक को कविता के शुरुआती हिस्से से ही अंदाज़ा हो जाता है कि कविता राजा की साध पूरी होने और प्रियंवद के प्रयत्नों के बीच अभिनीत होनी है।

अज्ञेय ने तीन काव्य-खंडों को कथा में बुना है। ये वे जगहें हैं जहाँ कविता, कथा का ढाँचा तोड़ अपना अलग रंग सामने लाती है। अर्थात् यही तीन हिस्से कविता के मार्मिक हिस्से हैं। पहला हिस्सा राजा द्वारा वीणा की परंपरा का वर्णन है, दूसरा केशकंबली का वीणा से संवाद है और तीसरा वीणा-स्वर के अलग-अलग आस्वाद का है।

वीणा के बारे में राजा की समझ कलाकार की समझ नहीं है। वह अलग नज़र है। यहाँ ज़ोर किरीटी-तरु की विशालता और वीणा की प्राचीनता-पवित्रता पर है। इस सबका निर्माण कविता में मिथ के सहारे हुआ है। कवि इस बोध को और गाढ़ा करने के लिए वज्रकीर्ति के जीवन से गढ़ी हुई वीणा की युक्ति लाता है। ध्यान रहे, आज़ाद भारत में, जब यह कविता लिखी गई और अज्ञेय के ख़ुद के भी जीवनानुभवों में आत्म-बलिदान का गौरव बरक़रार है। ऐसी वीणा, जो दधीचि ऋषि की तरह प्राणोत्सर्ग से सृजित है, वह वातावरण तैयार करती है जो कविता के शुरुआती हिस्से में कवि का अभीष्ट है।

यहाँ एक अवांतर की ज़रूरत आन पड़ी : ‘कोटर में भालू बसते थे’ पंक्ति पर कुछ आलोचकों का सवाल है कि यह यथार्थ नहीं है। कविता के भीतर ऐसे यथार्थ की माँग असंगत है। कविता की अंतरसंरचना में बिम्ब को हक़ीक़ी होना चाहिए। प्रसंगतः इस हिस्से में कवि उस वृक्ष की विशालता स्थापित करना चाहता है। इस हक़ीक़त को वह अलग-अलग युक्तियों से हासिल करता है। केहरि और वल्कल, गंध-प्रवणता और वासुकि, करि-शुंड और हिम-शिखर से वह एक मिथकीय वातावरण रचता है। पाठक इस वातावरण के भीतर की तर्क-प्रक्रिया से समझता है कि कोटर में भालुओं का बसना संभव हो सकता है। मम्मट ‘काव्यप्रकाश’ में कवि के लिए लिखते हैं : ‘नियतिकृत नियमरहितां’। कविता नियतिकृत होकर भी नियमरहित होती है। उसके नियम अलग होते हैं—यथार्थ के नियमों से अलग।

कविता का दूसरा हिस्सा, जोकि कथा में काव्य-वृक्ष रोपता है, वह है प्रियंवद का परंपरा-गान। इस गान की कुछ पूर्व शर्तें हैं : वर्तमान की विस्मृति और नीरव एकालाप। परंपरा हर मनुष्य के लिए अपने को अलग-अलग तरीक़ों से खोलती है। प्रियंवद के लिए वह एक है तो राजा के लिए दूसरी। रानी के लिए तीसरी और किसी और के लिए चौथी। वीणा बज नहीं पाती क्योंकि वीणा अपनी परंपरा से सही संगति के बाद ही फलित होगी। वीणा अभी भी सबके लिए अलग-अलग ही है। राजा के लिए मिथ और विराटता का श्रोत, केशकंबली के लिए परंपरा और सभा के लिए वाद्ययंत्र। कहिए तो यह भी भविष्य-संकेत है—कविता के आख़िर की तरफ़, जहाँ वीणा के स्वर सबको अलग-अलग सुनाई देते हैं।

यहाँ फिर एक अवांतर : प्रियंवद के लिए पूरी कविता में सम्मानवाचक शब्दों का प्रयोग हुआ है पर एक जगह यह सम्मान नहीं है :

अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकंबली अथवा हो कर पराभूत
झुक गया वाद्य पर

दिलचस्प यह है कि जो सभा अभी प्रियंवद को इस संबोधन से पुकारती है, वही कविता के आख़िर में ‘धन्य! हे स्वरजित! धन्य! धन्य!’ कह उठती है। हालाँकि राजा के संबोधन में शुरू से आख़िर तक प्रियंवद के लिए आदर है। यह अलगाव क्यों है? संभवतः सभा और राजा के कला-बोध में अंतर है। राजा और सभा के कला-आस्वाद की अलग-अलग परतें हैं। आख़िर में, जब वीणा बजती है, तब वीणा का सबको अलग-अलग सुनाई देना क्या इस आस्वाद की ओर इशारा नहीं करता? आगे हम इस पर बात करेंगे।

हम वीणा बजने की पूर्वशर्तों पर चर्चा कर रहे थे। कालजयी कला के होने की शर्तें। अकेलेपन में परंपरा से नीरव एकालाप, अपनी तुच्छता और परंपरा की महदता का बोध, स्मृति के गीत। कुल मिलाकर परंपरा में लय होना। पर इससे तो कलाकार और कला की इयत्ता खो जाएगी। वीणा बजने के बाद जैसा कि प्रियंवद कहता है :

सुना आपने जो वह मेरा नहीं
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी

प्रियंवद के इस कथन को हम कैसे समझें? क्या यह कलाकार की विनम्रता के आवरण में यथास्थिति के पक्ष में कही गई बात है? क्या यह अज्ञेय का अभिप्रेत है? क्या तथता इयत्ताहीनता है?

इस ‘सब कुछ की तथता’ के ठीक बाद एकदम आख़िरी पंक्तियों में अज्ञेय एक सूत्र छोड़ते हैं, जिससे कला के अन्य कर्म का बोध होता है। वह सूत्र है : ‘युग पलट गया’। वीणा का बजना अगर ‘सब कुछ की तथता’ था तब युग कैसे पलटा? कवि की वाणी भी इस ‘पलटने’ के बाद ही मौन होती है। क्या यह समझना बेहतर न होगा कि कवि के मुताबिक़ कविता युग पलटने को अपना लक्ष्य नहीं बनाती, पर जब कविता बनती है, तब वह युग को पलट देती है। यों कवि परंपरा में डूबते-तिरते-अवगाहन करते परंपरा का अंश हो जाता है, पर उसकी रचना युग पलट देती है। कर्त्ता और कविता अलग-अलग हो जाते हैं। जो कवि के लिए तथता है, वह युग के लिए परिवर्तनकामी हो जाता है; अगर वह परंपरा के अवगाहन से उपजा है। देखना यह होगा कि इस काव्य-संरचना के भीतर कवि किस और कैसी परंपरा की बात कर रहा है?

मेरी समझ से कविता का सर्वश्रेष्ठ अंश, मर्मिक स्थल वही हिस्सा है जब प्रियंवद वीणा से संवाद करता है। यहाँ सिर्फ़ परंपरा को अपने को सौंप देने का बोध नहीं है, अपनी तुच्छता का बोध है, अपने भीतर के अँधियारे का ज्ञान है। कवि इस आत्मवत्ता के साथ ही वीणा से संवाद स्थापित करता है। पहली नज़र में लगता है कि प्रियंवद की कोई इयत्ता नहीं, पर ध्यान से देखने पर कविता की अंतरध्वनियाँ उसे एक अद्भुत ग्रहणशील पात्र की तरह उभारती हैं।

वीणा से संवाद के दो हिस्से हैं : पहले हिस्से में प्रियंवद उस विशाल तरु से अपना संबंध जोड़ता है, उसकी महत्ता को रेखांकित करता है। उसे अपने पितर के आसन पर बैठाता है। ऐसी वीणा का संगीत जिसे रचने में ‘जाने कितनों के स्पंदित प्राण रच गए’, पाठक के सामने एक विशिष्ट स्मृति सामने लाती है—आत्म-बलिदान की स्मृति। ‘प्राण रच गए’ की यह व्याख्या दूर की लग सकती है, पर वज्रकीर्ति को याद करें तो यह उतनी भी दूर की नहीं लगती। सो, संक्षेप में कहना यह है कि वीणा एक तरफ़ तो मिथकीय है, दूसरी तरफ़ प्राणोत्सर्ग से अनुप्राणित। इसी जीवित परंपरा से प्रियंवद का संवाद है। ‘अँधियारे अंतस में आलोक जगाने’ के प्राचीन प्रार्थना-भाव में अब हम संपूर्ण समर्पण का भाव देखते हैं, पर संभवतः ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ को अज्ञेय संपूर्ण अशर्त समर्पण के भाव से नहीं देखते। वे उसे स्मृति जगाने के भाव में, परंपरामय बनाने के भाव में ग्रहण करते हैं।

वीणा से प्रियंवद के संवाद का दूसरा हिस्सा बेहद ऐंद्रिक, गतिशील ध्वनि और बिम्बबहुल है। इस पूरे अंश के परिच्छेद ‘हाँ, मुझे स्मरण है’ से शुरू होते हैं। वीणा और कवि का संवाद स्मृति जगाता है। इन स्मृतियों का संसार बहुत व्यापक है। छायावादी बिम्ब विधान का इस्तेमाल करते हुए भी अज्ञेय इस हिस्से में लगातार उससे पार जाते दिखते हैं। ‘शिलाओं को दुलराते द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद’ जैसे छायावादी प्रकृति को आलंबन के रूप में चित्रित करने वाले बिम्ब के बाद ‘ओले की कर्री चपत’ जैसे प्रयोग शायद यही बताते हैं। यहाँ विभिन्न पशु-ध्वनियों ‘गर्जन, घुर्घुर, चीख़, भूँक, हुक्का, चिचियाहट’ है।

बिम्बों में भाषा की मार्फ़त नए रंग भर देना कवि की विशिष्टता है। मसलन, इस बिम्ब को लीजिए : ‘कमल-कुमुद पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित जल पंक्षी की चाप’। इसमें से अगर ‘चोर-पैर’ को बदलकर संस्कृतनिष्ठ कोई शब्द-युग्म ला दें, मानिए कि ‘चौर-चरण’ ही कर दें तो यह बिम्ब अध्ययन उपजा लगने लगेगा। कवि की बारीकनिगाही और कविता में स्मृति की व्यापकता खंडित हो जाएगी। अज्ञेय इस लिहाज़ से शब्द-सिद्ध कवि हैं। वह ऐसी चूक नहीं ही करते।

जैसा ऊपर कहा गया, यह बहुल स्मृतियों का संसार है, यह प्रियंवद को आत्म की नई खोज तक ले जाता है। प्रियंवद की पहचान ‘कलावंत हूँ नहीं, शिष्य साधक हूँ— / जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी’ से आगे बढ़ती है और स्मृति के बाद के अंश में बारम्बार ‘मैं’ की आवृत्ति, ‘मैं’ के नकार के बावजूद ‘मैं’ की नई अस्मिता की ओर इशारा करती है। यह वह जगह है जहाँ ‘मैं मुझसे परे’ होकर अपनी नई अस्मिता ग्रहण करता है ‘शब्द में लीयमान’ मैं। जहाँ यह स्पष्ट है कि यह नया ‘मैं’ गूँगा है, इसे स्मृतियों के रास्ते वीणा स्वर देगी। सनद रहे कि पूरी कविता में ‘मैं’ के विलयन की लहरों के बीच ‘मैं या मुझे’ का द्वीप दीप्त है। संक्षेप में यह वह नया आत्म है जिसे अपनी जड़हीनता का गहरा एहसास है, जो ‘जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी’ नहीं है। कला के लिए आत्म का विलयन ज़रूरी है, ऐसा कई आलोचकों ने इस कविता के बारे में लिखा है, पर मेरी समझ से इस कविता में आत्म का विलयन संभवतः लक्ष्य नहीं। लक्ष्य है अपनी नई पहचान हासिल करना। पिछली पहचान को छोड़कर प्रकृति से सहज भाव से सन्निधि। इस कविता में यह रूपांतरण कला की अनिवार्य शर्त की तरह आता है।

1961 में जब यह कविता पूरी हुई, नेहरू थे और ‘खोज’ का दौर था। देश खोजा जा रहा था, परंपराएँ खोजी जा रही थीं, स्मृतियाँ जीवित की जा रही थीं, और कई बार तो गढ़ी भी जा रही थीं। सबाल्टर्न इतिहासकारों ने एक बात दिलचस्प कही कि हर नया राष्ट्र अपने को वयोवृद्ध दिखाने की चाह रखता है। हमारे राष्ट्र की निर्मिति में भी यह तत्त्व था। हमारे मनीषियों ने अलग-अलग तरीक़ों से इस चुनौती का सामना किया। कला में ऐसा उत्तर-औपनिवेशिक बोध हमारी साहित्य परंपरा का मानीख़ेज़ तत्त्व है। ग़ौर करिए तो परंपरा से साक्षात्कार करते हुए स्मृतियों के रास्ते से आत्म की खोज वह तत्त्व है, जो इस कविता को तत्कालीन देश-काल से बिंधा हुआ दिखाता है।

वीणा बजने के बाद क्या होता है? ‘सब एक साथ डूबे तो एकाकी क्यों पार तिरे? इतना तो बेहद साफ़ है कि वीणा-स्वर सबके लिए अलग-अलग बजे। राजा के अंतस में वीणा-स्वर आदर्श उभारते हैं। उसके जीवन का सोना निखर आया, वह सब कुछ निछावर कर देने को तैयार है। रानी के लिए भी वीणा-स्वर एक आदर्शीकृत दुनिया रचते हैं। भोग-लोभ की जगह प्रेम उसका लक्ष्य बन जाता है।

पर इसके बाद कविता के मुताबिक़ वीणा स्वर सबके मन की इच्छाओं को दिखाते हैं। आदर्शीकृत स्थिति नहीं रहती। जिसको जो काम्य है, वीणा स्वर को वह वैसे ही सुनता है। पहला प्रश्न यह है कि जब कविता के भीतर में राजा-रानी का काम्य कोई आदर्श नहीं है, तब वे वीणा स्वरों से आदर्श कैसे ग्रहण करते हैं? एक आलोचक का कहना है कि राजा-रानी कला-मर्मज्ञ तबक़े से आते हैं, इसलिए कला उनको ज़्यादा बेहतर समझ में आती है। कविता के भीतर राजा-रानी के कला-मर्मज्ञ होने का कोई ख़ास सबूत नहीं। हाँ, प्रियंवद के लिए राजा का सम्मान और वीणा बजवाने की उसकी ललक, दो चीज़ें ऐसी हैं जो राजा के कला-प्रेम की ओर इशारा करती हैं। पर रानी का तो कोई कला-प्रेम कविता में दर्ज नहीं, सिवा इसके कि वीणा वादनोपरांत उन्होंने ‘सतलड़ी माल अर्पित की’। यों कहिए तो राजा-रानी पर कला-प्रभाव व सामान्य जन पर कला-प्रभाव में भेद है।

सामान्य सभा के लिए वीणा-स्वर उसके काम्य को दर्शाते हैं। यह काम्य सिर्फ़ सपना ही नहीं, उसका डर भी हो सकता है। किसी के लिए वह ‘महाज्रम्भ विकराल काल’ है तो किसी अपर के लिए ‘प्रभुओं का कृपा वाक्य’। कवि इस हिस्से के आख़िर में बताते हैं कि वीणा स्वर से सबकी इयत्ता अलग-अलग जागी। पर हम साफ़ ही देख सकते हैं कि यह इयत्ता स्वतंत्र नहीं है। इस इयत्ता का उसके धारक की सामाजिक अवस्थिति से निर्धारण होता है। कला सबके लिए है, पर सब कला को अपनी अपनी अवस्थितियों से व्याख्यायित करते हैं। यहाँ दिक़्क़त यह है कि कवि के मुताबिक़ किन्हीं के लिए कला उन अवस्थितियों को ही बदल देने वाली होती है और किन्हीं की अवस्थितियों को संघनित करने वाली। मेरी समझ से यह एक फाँक है जिसे कवि ‘युग पलट गया’ से पाटने की कोशिश करता है, पर फाँक बड़ी है, पटती नहीं, रह जाती है।

एक और अवांतर : कविता एक ऐंद्रिक विधा है। उसका संबंध कान से था। कविता कही और सुनी के माध्यमों में गतिशील होती थी। दो इंद्रियाँ प्राथमिक तौर पर इसमें शरीक होती थीं—ज़ुबान और कान। प्रिंट आने के बाद वाचिक भाषा का पन तो रहा पर श्रवण भाषा का पन बहुत क्षीण हो गया।

आलोचक इस बात को मानते तो हैं, पर उसकी जगह ‘अर्थ की लय’ जैसे पदों में शरण्य ढूँढ़ते हैं। शब्द-ध्वनि का एक पक्ष है नाद-सौंदर्य, जिसके बारे में शुक्ल जी कहते थे कि ‘उससे कविता की आयु बढ़ती है’। दूसरा पहलू है काव्य-संरचना और काव्य-अर्थ के बीच पुल बनाना। अज्ञेय जैसे शब्द-सावधान कवि ध्वनि की इस भूमिका को कविता में बख़ूबी निभाते हैं। आपको याद हो : ‘सन्नाटे’ वाले अपने निबंध में उन्होंने इस पर तफ़सील से बात की है।

असाध्य वीणा का शिल्प उसके कथ्य से संगति में है, क्योंकि वीणा का बजना अज्ञेय के शब्दों का बजना भी है। आलोचकों ने इस कविता के शब्द-वैभव की बारहा तारीफ़ की है। तत्सम-तद्भव-देशज-विदेशी, रंग-रंग के शब्द। मुक्तिबोध की काव्य-पंक्ति उधार लूँ तो इस संरचना में काव्य-ध्वनि की पहुँच ‘जनकथाओं से वैदिक ऋचाओं’ तक है। यह सिर्फ़ प्रदर्शन के लिए जुटाया गया ध्वनि-ख़ज़ाना नहीं, काव्यार्थ से इसकी गहरी रब्त है। आलोचकों (वागीश शुक्ल) ने अपने लेख में इस कविता के छंद और उसके जाने-बूझे खंडन पर अच्छी बातें कही हैं, दुहराने से क्या फ़ायदा।

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