बिखरने के ठीक पहले

जो कभी था

तुमने आज एक स्वप्न देखा। अब सपने पूरा करने जैसा तो मैं कुछ नहीं कर सकता, पर एक अधूरी इच्छा को ज़रूर गले लगा सकता हूँ।

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तुम प्रेम नहीं खोज रही थीं, जब मैं मिला; पर शायद जो तुमने मिलने के बाद सोचा होगा—वह मैं नहीं दे पा रहा।

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शब्द मुझे अभी भी नहीं मिले हैं, इसलिए बिल्कुल कच्चा-अधपका-सा लिख रहा हूँ। शब्दहीनता के भीतर बाँध है—भावों का, वह तुम तक पहुँच जाएगा ऐसी उम्मीद है।

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सौंदर्य पर किसका ज़ोर चला है। वह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अलग खड़ा कर ही लेता है—ख़ुद को।

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अतिशय प्रेम बेड़ियों की तरह हो जाता है। प्रेम करने वाले को आभास ही नहीं रहता कि कब वह प्रेम त्याग कर उससे बहुत दूर पाप में संलिप्त हो चुका है।

मैं इसी अतिशय प्रेम का मारा हूँ। इसने मुझे प्रेम-जग में विकलांग बना दिया है।

नोट्स 

एक

अकेले रहने की आदत किसी नशे की तरह है। आस-पास लोग होते हैं तो अपना स्व छिलके की तरह उघड़ जाता है। फ़िट न हो पाने की कशिश आत्मा को बीमार करती है।

बीमार आत्मा ही एकांतवास का ईंधन है।

दो

यह मनुष्य इतिहास का सबसे महत्त्वपूर्ण समय है। यह कहने के पीछे का कारण यह कि अभी बोरियत-उबाऊपन का पसार है। मनुष्य कार्य-क्रीड़ा-कार्य के चक्र में व्यस्त रखकर ख़ुद की निरर्थकता का सामना करने से बचता रहा है। ब्रह्मांड को अपने इर्द-गिर्द घूमने वाली वस्तु समझता आदमी, आज ऊब चुका है अपने महत्त्व की महत्ता से।

तीन

ऐसे समय में जब ज़ेहन से सब कुछ इतनी तेज़ी से फिसलता जाता है, ट्रेंड्स हर दिन बनते-बिगड़ते हैं, ऐसे में लेखन सभी उदास संभावनाओं में सबसे उदासीन है।

मैं इस क्षण का सच पकड़ने के खोखले प्रयास में ‘अ’ लिखता हूँ, तभी कोई ‘ब-ज-स’ यथार्थ के दशानन की भाँति ठठाने लगता है। कमान से तीर सूखने लगते हैं। मुझे नाभि को भेदना है। सशरीर आभासी सत्यों में उनके जीवन-द्रव्य का स्रोत सोखना है।

मैं हार रहा हूँ।

लिखना आत्मा की आँच से भागने जैसा है। मुझसे जो नहीं झिलता उसे ही लिख पाता हूँ। अझेल घटनाएँ ही साहित्य की सहेलियाँ हैं।

चार

एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटती हैं—इसका उत्तरआधुनिक भावानुवाद करें तो कह सकते हैं : एक मीम से निकलते हैं सौ मीम। मीम कल्चर की हम पहली पीढ़ी हैं। हर तरफ़ मीम मैटेरियल है। आपके जीवन के हर दशा-दिशा को कुछेक मीम से परिभाषित किया जा सकता है।

इसे थोड़ा और सोचें तो एक मीम, किसी जीवंत या काल्पनिक यथार्थ का निचोड़ होता है; जिसे किसी और के जिए जा रहे यथार्थ को समझने के लिए उपयोग किया जा सकता है। यानी मीम वह काम करते हैं जो साहित्य का ध्येय होता है। अक्सर साहित्य जीवन-नब्ज़ मापने में असफल होता है या पूरी तरह सफल नहीं हो पाता, पर मीम-बाण अचूक है। मीम साहित्य का अपग्रेडेड वर्ज़न है।

पाँच

मैं दुहराता रहता हूँ। हम सब दुहराते रहते हैं। रहन-सहन, आचार-विचार—सब कुछ। हम एक प्रोटोटाइप मानव-जीवन के फ़ोटोकॉपी हैं।

छह

समता निर्मम है। हर अकेला, एक भीड़ में, ख़ुद को खो देता है। बराबरों की भीड़, हर बराबर से अलग होती है।

भीड़ एक आदत है। ग़रीब ज़ेहन इस आदत की ग़ुलामी करने लगता है। वह भीड़ की एक सजीव मूर्ति की कल्पना करता है। उसे हर रोज़, हर दफ़े, सलाम करना उसकी आदत बन जाती है।

सात

आदत मनोवैज्ञानिक बीमारी का सामान्यीकरण है। एकांत इस सामान्य सत्य के विशेषण रूप का चीड़-फाड़ कार्यालय है।

एकांत एक चुनाव है—भेड़चाल की पद्धति के बीच। अकेलापन, एकांत का विलोम है। अकेले रहने की आदत, आदत के विरुद्ध है।

आठ

मृत्यु एक असाध्य रोग है।

यह वाक्यांश जितना सरल है, उतना ही बेबस करने वाला है। मृत्यु के फिर भी कई चारित्रिक गुण होते हैं।

एक मित्र की मृत्यु शोक का विषय है, एक शत्रु का मरना हर्ष का, एक अनजान की मृत्यु बुरा समाचार है, एक जानने वाले का चल बसना हृदयविदारक घटना है।

एक हादसा और एक आँकड़ा। बस मृत्यु के यही आयाम हैं।

नौ

हर रोज़ लाशों का ढेर खड़ा होता है। झाँककर मैं पता करता हूँ कि कहीं कोई परिचित चेहरा तो नहीं। जाने वाले लोग, छोड़ते जा रहे हैं—अविश्वास के पदचिह्न। मैं इन्हीं चिह्नों पर आगे बढ़ चुका हूँ।

दस

जीवन किसी रेडियोएक्टिव एलिमेंट की तरह बिखरता जा रहा है। जिन कणों से बनता है जीवन, वे फूट जाते हैं—एक आस कुचलते हुए।

कितने परिचित चले गए। कितने अपरिचित आँकड़े परिचय की संभावना समेटे निकल लिए। यह अंतिम यात्रा थी। स्वप्न यथार्थ का प्रस्थान बिंदु है। हर रोज़ मैं सपने में ईश्वर होता हूँ, और हर मृतक को जीवन देता हूँ। सभी लाशें उठकर चलने लगती हैं—फिर उनमें दौड़ने की इच्छा व्याप्त होती है—वे दौड़ रही हैं—वे थक जाएँगी—उन्हें रुकना पड़ेगा। मैं सबके हर्षित चेहरे देखकर ख़ुश होने की चेष्टा करता हूँ, फिर उनके हर्ष के अंत की संभावना मुझे तोड़ देती है। मैं, ईश्वर, यह देखकर व्यथित हो जाता हूँ। शाश्वत दुःख कैसे झेला जाएगा। मैं आत्महत्या की फ़िराक़ में लग जाता हूँ। सबसे मजबूत पाश को, सबसे मज़बूत पेड़ की टहनी पर बाँधता हूँ। तभी मेरा सपना टूट जाता है।
क्या स्वप्न हमारे यथार्थ का एक्सटेंशन होते हैं? क्या सपनों में हम जो महसूसते हैं, वह यथार्थ की जमीन पर भी उतना ही खरा उभरता है।

मैं भभककर रोने लगता हूँ। मैंने ईश्वर की मृत्यु देख ली है। लाशों के इन्हीं ढेरों के उपर एक लाश टँगी है जो पूछती है, “फर्स्ट टाइम?”

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