विचारों में कितनी भी गिरावट हो, गद्य में तरावट होनी चाहिए

अच्छी कहानी वही है दोस्तों जिसके किरदार कुछ अप्रत्याशित काम कर जाएँ। इस प्रसंग से यह सीख मिलती है कि नरेशन अच्छा हो तो झूठी कहानियों में भी जान फूँकी जा सकती है। यह भी कि अगर आपके पास कहानी है तो सबसे पहले कह डालिए।

सूक्ष्मता से देखना और पहचानना

साहित्यकार को चाहिए कि वह अपने परिवेश को संपूर्णता और ईमानदारी से जिए। वह अपने परिवेश से हार्दिक प्रेम रखे, क्योंकि इसी के द्वारा वह अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ खाद प्राप्त करता है।

‘मानव मानव से नहीं भिन्न’

अँग्रेजी राज-परिवार की घटनाओं से हम तब उद्वेलित होते थे; जब हम रानी विक्टोरिया, जॉर्ज पंचम को अपना ‘भाग्य विधाता’ मानते थे। अगर आज हिंदुस्तानी समाज उसे नोटिस नहीं ले रहा है तो अच्छी बात ही है।

हिंदी की पहली आदिवासी कवयित्री

हिंदी में उपस्थित स्त्री-कविता आजकल साहित्य-विमर्श के केंद्र में है। मेरे समीप इस करुणा कलित विमर्श में सुशीला सामद का नाम एक विकल रागिनी की भाँति बज रहा है। यह हाहाकार इस मायने में स्वाभाविक भी है कि सुशीला सामद एक छायावादी कवयित्री हैं, जिन्हें भारत की पहली हिंदी आदिवासी कवयित्री होने का गौरव प्राप्त है।

कमलेश्वर की लिखी एक दुर्लभ फ़िल्म

‘फिर भी’ कैमरे की मदद से रचा गया एक साहित्य है। नई कहानी के ज़रिए जिस तरह भारतीय मध्यवर्गीय जीवन के नए पहलू उद्घाटित हुए थे, वैचारिक खुलेपन को बयार चली थी… उसे काफ़ी हद तक इस फ़िल्म में महसूस किया जा सकता है।

‘दिव्य क़ैदख़ाने में’ रंजनदास

जीवन स्थितियाँ जितनी त्रासद होती जाती है, ‘फ़ील गुड’ और ‘ऑल इज़ वेल’ का मंत्र-पाठ उतना ही तीव्र होता जाता है। ऐसे में रोंडा बर्न्स, शिव खेड़ा, संदीप माहेश्वरी जैसे महर्षि पैदा होते हैं और ‘लॉ ऑफ़ अट्रेक्शन’ का ज्ञान देते हैं!

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