यह भूमि माता है, मैं पृथिवी का पुत्र हूँ

हिंदी के साहित्य-सेवियों को पृथिवी-पुत्र बनना चाहिए। वे सच्चे हृदय से यह कह और अनुभव कर सकें—

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः (अथर्ववेद)
यह भूमि माता है, मैं पृथिवी का पुत्र हूँ।

लेखकों में यह ज्ञान न होगा तो उनके साहित्य की जड़ें मज़बूत नहीं होंगी, आकाश बेल की तरह वे हवा में तैरती रहेंगी। विदेशी विचारों को मस्तिष्क में भरकर उन्हें अधपके ही बाहर उँड़ेल देने से किसी साहित्य का लेखक लोक में चिर-जीवन नहीं पा सकता। हिंदी-साहित्यकारों को अपनी ख़ुराक भारत की सांस्कृतिक और प्राकृतिक भूमि से प्राप्त करनी चाहिए। लेखक जिस प्रकार के जीवन-रस को चूसकर बढ़ता है, उसी प्रकार की हरियाली उसके साहित्य में भी देखने को मिलेगी।

आज लोक और लेखक के बीच में गहरी खाई बन गई है, उसको किस तरह पाटना चाहिए; इस पर सब साहित्यकारों को पृथक-पृथक और संघ में बैठकर विचार करना आवश्यक है।

हिंदी लेखक को सबसे पहले भारत-भूमि के भौतिक रूप की शरण में जाना चाहिए। राष्ट्र का भौतिक रूप आँख के सामने है। राष्ट्र की भूमि के साथ साक्षात् परिचय बढ़ाना आवश्यक है। एक-एक प्रदेश को लेकर वहाँ की पृथिवी के भौतिक रूप का साँगोपाँग अध्ययन हिंदी-लेखकों में बढ़ना चाहिए।

यह देश बहुत विशाल है; यहाँ देखने और प्रशंसा करने के लिए अतुल सामग्री है। उसका ज्ञान करते हुए हमें एक शताब्दी लग जाएगी। पुराणों के महामना लेखकों ने भारत के एक-एक सरोवर, कुंड, नदी और झरने से साक्षात् परिचय प्राप्त किया और उसका नामकरण किया और उसको देवत्व प्रदान कर उसकी प्रशंसा में माहात्म्य बनाया। हिमवंत और विन्ध्य जैसे पर्वतों के रम्य प्रदेश हमारे अर्वाचीन लेखकों के सुसंस्कृत माहात्म्य-गान की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

देश के पर्वत, उनकी ऊँची चोटियाँ, पठार और घाटियाँ सब हिंदी के लेखकों की लेखनी का वरदान पाने की बाट देख रही हैं। देश की नदियाँ, वृक्ष और वनस्पति, औषधि और पृष्प, फल और मूल, तृण और लताएँ, सब पृथिवी के पुत्र हैं। लेखक उनका सहोदर है। लेखक को इस विशाल जगत् में प्रवेश करके अपने परिचय का क्षेत्र बढ़ाना चाहिए। चरक और सुश्रुत ने औषधियों के नामकरण का जो मनोरम अध्याय शुरू किया था, उसका सच्चा उत्तराधिकार प्राप्त करने के लिए हिंदी के लेखक को बहुत परिश्रम करने की ज़रूरत है। और सबसे अधिक आवश्यक है एक नया दृष्टिकोण, जिसके बिना साहित्य में नवीन प्रेरणा की गंगा का अवतरण नहीं हुआ करता।

हिंदी के लेखकों को वनों में जाकर देश के वनचरों के साथ संबंध बढ़ाना है। वन्य पशु-पक्षी सभी उसके सगोती हैं, वे भी तो पृथिवी-पुत्र हैं। अथर्ववेद के पृथिवीसूक्त के ऋषि की दृष्टि, जो कुछ पृथिवी से जन्मा है, सबको पूजा के भाव से देखती है—

हे पृथिवी, जो तेरे वृक्ष, वनस्पति, शेर, बाघ आदि हिंस्र जंतु, यहाँ तक कि साँप और बिच्छू भी हैं, वे भी हमारे लिए कल्याण करने वाले हों।

पश्चिमी जगत् में पृथिवी के साथ यह सौहार्द का भाव कितना आगे बढ़ा हुआ है! भूमध्यसागर या प्रशांत महासागर की तलहटी में पड़े हुए सीप और घोंघों तक की सुध-बुध वहाँ के निवासी पूछते हैं। भारतीय तितलियों पर पुस्तक चाहें तो अँग्रेज़ी में मिल जाएगी। हमारे जंगलों में कुलाचें मारने वाले हिरनों और चीतलों के सींगों की क्या सुंदरता है, हमारे देश की असील मुर्ग़ों की बढ़िया नस्ल ने सुदूर ब्राज़ील देश में किस प्रकार कुश्ती मारी है, इसका वर्णन भी अँग्रेज़ी में मिलेगा।

ये सब विषय एक जीवित जाति के लेखकों को अपनी ओर खींचते हैं। क्या हिंदी-साहित्य के कलाकार इनसे उदासीन रहकर भी कुशल मना सकते हैं? आज नहीं तो कल हमें अवश्य ही इस सामग्री को अपने उदार अंक में अपनाना पड़ेगा। यह कार्य जीवन की उमंग के साथ होना चाहिए। यही साहित्य और जीवन का संबंध है।

देश के गाय और बैल, भेड़ और बकरी, घोड़े और हाथी की नस्लों का ज्ञान कितने लेखकों को होगा? पालकाप्य मुनि का हस्त्यायुर्वेद अथवा शालिहोत्र का अश्व-शास्त्र आज भी मौजूद हैं, पर उनका उत्तराधिकार चाहने वाले मनुष्य नहीं रहे।

मल्लिनाथ ने माघ की टीका में हय लीलावती नामक ग्रंथ के उद्धरण दिए हैं, जिनसे मालूम होता कि घोड़ों की चाल और कुदान के बारे में कितना बारीक विचार यहाँ किया गया था। पश्चिमी एशिया के अलअमर्ना गाँव में ईसा से 1400 वर्ष पूर्व की एक पुस्तक मिली है, जिसमें अश्वविद्या का पूरा वर्णन है। उसमें संस्कृत के अनेक शब्द जैसे एकावर्तन, द्वयावर्तन, त्र्यावर्तन, आदि घोड़ों की चाल के बारे में पाए गए हैं। उस साहित्य के दाय में हिस्सा माँगने वाले भारतवासियों की आज कमी दिखाई पड़ती है।

हमने अपने चारों ओर बसने वाले मनुष्यों का भी तो अध्ययन नहीं शुरू किया। देशी नृत्य, लोक-गीत, लोक का संगीत, सबका उद्धार साहित्य-सेवा का अंग है। एक देवेंद्र सत्यार्थी क्या, सैकड़ों सत्यार्थी गाँव-गाँव घूमें, तब कहीं इस सामग्री को समेट पावेंगे।

इस देश में मानो अपरिमित साहित्य-सामग्री की प्रतिक्षण वृष्टि हो रही है, उसको एकत्र करने वाले पात्रों की कमी है। लोक की रहन-सहन, वेष और आभूषण, भोजन और वस्त्र, सबका अध्ययन करना है। जनपदों की भाषाएँ तो साहित्य की साक्षात् कामधेनुएँ हैं। उनके शब्दों से हमारा निरुक्तशास्त्र भरा-पूरा बनेगा।

हिंदी शब्द-निरुक्ति जनदों की बोलियों का सहारा लिए बिना चल ही नहीं सकती। जनपदों की बोलियाँ कहावतों और मुहावरों की खान हैं।

हम चुस्त राष्ट्रभाषा बनाने के लिए तरस रहे हैं, पर उसकी जो खाने हैं उनको खोजकर सामग्री प्राप्त करने की ओर हमने अभी तक ध्यान नहीं दिया। हिंदी-भाषा की तीन हज़ार धातुओं को यदि ठीक तरह ढूँढ़ा जाए, तो उनकी सेवा से हमें भाषा के लिए क्या-क्या शब्द नहीं मिल सकते? पर हमारा धातु-पाट कहाँ है? वह हिंदी के पाणिनी की बाट देख रहा है। खेल और क्रीड़ाएँ क्या राष्ट्रीय-जीवन के अंग नहीं हैं? मेले, पर्व और उत्सव सभी हमारी पैनी दृष्टि के अंतर्गत आ जाने चाहिएँ। इन आँखों को लेकर जब हम अपने लोक के आकाश में ऊँचे उठेंगे, तब सैकड़ों-हज़ारों नई चीज़ों को देखने की योग्यता हमारे पास स्वयं आ जाएगी।

भारत के साहित्यकार, विशेषतः हिंदी के साहित्य-मनीषियों को चाहिए कि इस नवीन दृष्टिकोण को अपनाकर साहित्य के उज्ज्वल भविष्य का साक्षात् दर्शन करें। दर्शन ही ऋषित्व है। ऋषियों की साधना के बिना राष्ट्र या उसके साहित्य का जन्म नहीं होता।

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वासुदेव देव शरण अग्रवाल (1904–1966) भारतीय वेद, पुराण, धर्म, दर्शन, इतिहास, कला-पुरातत्त्व एवं संस्कृत तथा हिंदी साहित्य के अन्यतम व्याख्याता के रूप में समादृत हैं। यहाँ प्रस्तुत आलेख उनकी पुस्तक ‘पृथिवी-पुत्र’ (सस्ता साहित्य मंडल, संस्करण : 2009) से साभार है।