प्रसिद्धि की विडंबना

प्रसिद्धि के साथ एक मज़े की बात यह है कि जब तक प्रत्यय की तरह इसके साथ विडंबना नहीं जुड़ती, तब तक इसके छिपे हुए अर्थ हमारे सामने पूरी तरह उजागर नहीं होते। लेकिन इससे भी ज़्यादा मज़े की बात शायद यही हो सकती कि ज़्यादातर मामलों में विडंबना शोहरत का पीछा करने में ज़्यादा देर भी नहीं लगाती।

यह ज़िक्र इसलिए क्योंकि ‘प्रसिद्धि की विडंबना’—यह वाक्यांश बीते कई दिनों से मेरे भीतर इस क़दर बवंडर उठाता रहा है, जैसे मुझे किसी चलते-फिरते तूफ़ान में बदलकर ही दम लेगा। अपने फ़ोन में सोशल मीडिया पर रहूँ या फ़ोन की दुनिया से बाहर, कहीं भी चली जाऊँ, हिंदी साहित्य और कला के संदर्भ में ‘प्रसिद्धि की विडंबना’ का प्रश्न मुझे छोड़ता ही नहीं। हालाँकि साहित्य के साथ-साथ यह प्रश्न पत्रकारिता पर भी उतना ही मुफ़ीद बैठता है।

और इस पर भी ज़िंदगी की सितम-ज़रीफ़ी देखिए कि अपने जिस भी प्रिय-अप्रिय लेखक की किताब उठा लूँ या सिर्फ़ पॉडकास्ट ही सुनने लग जाऊँ, वही लेखक इस विषय से गुत्थम-गुत्था होता नज़र आ जाता है।

कुछ हफ़्तों तक जब यह सिलसिला चलता रहा तो मुझे यूँ एहसास हुआ, जैसे इस सवाल के बार-बार लौटकर मेरे सामने आने में शायद कोई इशारा छिपा है? इशारा कि बग़ैर तह तक जाए, यह सवाल मुझे आसानी से नहीं छोड़ेगा। फिर जो डूबना हुआ तो यूँ हुआ कि दिमाग़ में इस वाक्यांश के आस-पास बैठते सभी वाक्यांशों के नोट्स बनने लगे—जैसे ‘शोहरत का अलमिया’। यहाँ अलमिया से मुराद ट्रैजेडी से है।

बालकनी में खड़ी हो सामने दूर तक फैली शिमला की पहाड़ियों पर जमती धुंध को एकटक निहारती और सोचती क्या पुकारूँ मैं इस गुत्थी को—‘प्रतिष्ठा की विडंबना’ या ‘शोहरत का अलमिया’? यूँ तो शोहरत की ‘ट्रैजेडी’ को ‘अलमिया’ शब्द भी उसी शिद्दत से ज़ाहिर करता है जिस शिद्दत से ‘विडंबना’…, लेकिन जाने क्यों बोलने पर ध्वनि ‘अलमिया’ की ही भाती रही है।

तो क़िस्सा यूँ है कि दिमाग़ी वर्ज़िश चलती रही थी, लेकिन समझ कुछ नहीं आ रहा था। 2021 में कलाकार के लिए प्रसिद्धि के क्या मायने हैं? क्या पहले प्रसिद्धि की लालसा और फिर उसकी निश्चित विडंबना हम सभी को, जो कला और शब्द का स्वप्न लिए सोते-जागते हैं, ख़ुद अपनी ही नज़रों में नीचे गिरा रही है? हम सभी जानते हैं कि यूँ तो यह समस्या नई नहीं है। लेकिन फ़ेसबुक, ट्विटर लाइक्स और इंस्टाग्राम रील्स की बुलबुलेनुमा प्रसिद्धि के नए आवरणों में ढके हमारे इस क्रूर ज़माने में हम कलाकार के सेलिब्रिटी होने और न होने के पक्ष-विपक्ष में खड़े दर्जनों तर्कों को कैसे समझें?

क्या रोएँ अपनी क़िस्मत पर जो हम 2021 में लिख रहे हैं और कहीं न कहीं पढ़ने-लिखने की सुंदर तस्वीरें पोस्ट करने वाले अपने मित्रों के वास्तविक अकेलेपन से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं? गहरे अवसाद और भ्रम से जूझ रही अपनी पीढ़ी की घोर दुविधा के लिए मन में करुणा रखें या अपने पुरखों के बनिस्बत हमारे तथाकथित ‘नैतिक’ पतन पर क्षोभ?

ट्रैजेडी इतनी गहरी है कि सेल्फ़ी खींचते वक़्त अक्सर हमारे पुरखों की आवाज़ कानों में गूँजने लगती है। आख़िर निर्मल वर्मा ने किस गहरी पीड़ा से कहा होगा, “यह भयानक है, जब लेखक लिखना बंद कर देता है तो उसके पास दुनिया को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं रहता, सिवा अपने चेहरे के।’’ जवाब में मन के किसी कोने से भी आवाज़ आती है, “तुम्हारे पुरखे अगर इंस्टाग्राम रील्स के दौर में अपने लेखन की शुरुआत करते तो वे कैसे होते इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। और यूँ भी, कभी-कभी सेल्फ़ी पोस्ट करना अच्छा भी तो लगता है, आदत जैसी भी तो है।’’

वास्तविक विडंबना यह है कि बरसों से खिंची आ रही ‘प्रसिद्धि की विडंबना’ का यह शुरुआती बिंदु भर है। बात यहाँ से उठती है… और फिर हमारे लेखन, किताबें, किताबों के प्रचार, प्रचार के प्रकार और इन सबमें पुराना दक़ियानूसी शुद्धतावाद—बनिस्बत नए माध्यमों की स्वीकार्यता—तक बढ़ती ही चली जाती है।

हिंदी में एक ओर वरिष्ठ लेखकों की वह क़तार है जो निश्चित तौर पर यह मानकर बैठी है कि युवाओं में अपनी निजी लेखकीय गरिमा के प्रश्न को लेकर कोई द्वंद्व या कोई आंतरिक संघर्ष ही नहीं है। कुछ भी कहने-सुनने से पहले हम पर फ़ैसला सुना दिया गया है कि हम किसी काम के नहीं हैं। दूसरी ओर इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक जैसे माध्यमों पर त्वरित हिट्स के लिए दूसरों की कृति को अपना बताते हुए बेधड़क पोस्ट करने वाले ‘युवाओं’ की एक पूरी नई फ़ौज मौजूद है। कमोबेश अतिरेक पर खड़े इस उदाहरण से अगर थोड़ा नीचे उतरें तो भी सोशल मीडिया पर अपनी किताबों का थका देने की हद तक महीनों प्रचार करना हमारे समय का एक लगभग स्वीकृत चलन बन चुका है। यहाँ तक आते-आते प्रसिद्धि और स्व-घोषित प्रसिद्धि के बीच अंतर मिटने-सा लगता है।

तो फिर, 2021 में कलाकार के लिए प्रसिद्धि के क्या मायने हैं? ट्विटर फ़ॉलोइंग, पाठक-संख्या या किसी स्वप्निल कालजयी कृति को जन्म दे पाना? समस्या जस की तस है और बुद्ध का मध्यममार्ग अभी तक नज़र नहीं आया है। उस पर तुर्रा यह कि कालजयी शब्द बोलते ही सारे दोस्त सारे हँस पड़ते हैं। फिर देर तक हमें समझ नहीं आता कि ‘इस पल में जीने’ का डंका पीटने वाली हमारी पीढ़ी इस समय में ‘कालजयी’ शब्द के अर्थ धुंधला जाने पर हंस रही है या एक मिनट से ज़्यादा कहीं भी ध्यान न टिका पाने की अपनी मायूस कर देने वाली अक्षमता पर? यहाँ ‘कहीं भी’ से आशय ‘कहीं भी न टिक पाने’ से ही है। जी हाँ, हालत ही कुछ ऐसी है कि कब हम दूसरों पर हँसते-हँसते ख़ुद पर हँसने लगते हैं और फिर कब रोने लगते हैं, पता ही नहीं चलता।

मेरे प्रिय लेखक डेविड फ़ॉर्स्टर वॉलिस ने इस समस्या पर बड़ी रोचक बातें कही हैं। डेविड हमारे समय के थोड़ा पास हैं और उन्होंने अमेरिका को इंटरनेट के क़ब्ज़े में जाते हुए देखा था, शायद इसलिए उनकी बातें ज़्यादा क़रीब महसूस होती हैं? ख़ैर, एक पत्रकार ने जब उनके उपन्यास ‘इंफ़ेनेट जेस्ट’ के बाद उन्हें मिली दुनिया भर की प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और ‘जीनियस’ के साथ-साथ ‘उनकी पीढ़ी के प्रतिनिधि अमेरिकी लेखक’ जैसे जन-तमग़ों पर सवाल किया तो डेविड का जवाब उनके फ़िक्शन की ही तरह किसी भी नतीजे से बचता हुआ-सा था। उन्होंने कहा, ‘‘मैं अपने आपको इस तरह की प्रसिद्धि से हमेशा दूर रखने की कोशिश करता हूँ और यह दूरी मेरे लेखन में काफ़ी मददगार रही है। अस्ल में, प्रकाशन के लिए लिखना एक बहुत अजीब चीज़ है। आपका एक हिस्सा उस शर्मीले पढ़ाकू व्यक्ति की तरह होता है जो किताबों से साथ सिर्फ़ लाइब्रेरी में अकेला छोड़ दिया जाना चाहता है। जबकि आपका ही दूसरा हिस्सा सबसे ज़्यादा नाटकीय होता है, जो दिन भर आपके अंदर ‘मुझे देखो, मुझे देखो, मुझे देखो’ की बीन बजाता रहता है। यह हिस्सा भीतर ही भीतर सारा दिन कुछ ऐसा लिखने की कल्पनाएँ करता है जो सभी को एक घुटने पर ले आए।’’

‘इंफ़ेनेट जेस्ट’ जैसी कालजयी कृति रचने और जीवन भर अपने भीतर के मनुष्य के प्रति कड़ी आलोचना से भरे रहने के बाद भी जिस सरलता और करुणा से डेविड यहाँ कलाकार के जीवन में आने वाले संभावित पतन के बिंदुओं को समझने की दृष्टि से उनका मानवीयकरण करते हैं, यही संवेदना उनके मनुष्य और फिर उनके लेखक को वह ऊष्मा प्रदान करती है जिसकी आँच में उत्तर आधुनिक मनुष्य के घाव रौशनी पा सकते हैं।

डेविड से तीन दशक पहले पैदा हुई मेरी दूसरी अत्यंत प्रिय लेखक सुजान सौन्टैग किसी भी साहित्यकार के भीतर प्रसिद्धि और ‘सेलिब्रिटी’ होने की आकांक्षा को सीधे-सीधे ‘एंटी लिटरेरी’ या ग़ैर-साहित्यिक घोषित करती हैं। इसी मुद्दे पर सौन्टैग से आगे मैं ‘पोर्ट्रेट ऑफ़ ए आर्टिस्ट एज़ ए यंग मैन’ उपन्यास में जेम्स जॉयस के सतत शंका से भरे अनिश्चित नायक से मुख़ातिब हो ही रही थी कि तभी हैरानी से भर देना वाला एक बहुत ही दिलचस्प टेक्स्ट मेरी आँखों से गुज़रा।

कॉमेडी ऑफ़ फ़ेम [प्रसिद्धि का हास्य]

फ़्रेडरिक नीत्शे जैसे सर्वव्यापी प्रभाव वाले दार्शनिक को झकझोरने वाले उन्नीसवीं सदी के सबसे उदास और निराश विचारकों में शुमार आर्थर शोपेनहावर ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा साहित्यिक सफलता का मुँह देखे बिना ही गुज़ार दिया। यहाँ तक कि बरसों से क्लासिक के रूप में अपनी जगह बना चुकी उनकी किताब ‘द वर्ल्ड एज़ विल एंड रेप्रेज़ेंटेशन’ की भी शुरू में 300 से कम प्रतियाँ ही बिकी थीं। ‘बाज़ार’ के मोर्चे पर दशकों असफल रहने के बाद जब 63 की उम्र में प्रकाशित हुआ उनका एक निबंध-संग्रह अचानक ‘हिट’ हुआ तो उन्होंने बाजार से मिली उस अपनी ही प्रसिद्धि का मज़ाक़ उड़ाते हुए उसे ‘कॉमेडी ऑफ़ फ़ेम’ कहना शुरू कर दिया। तीन शब्दों के इस वाक्यांश और शोपेनहावर की प्रज्ञा का मुझ पर महीनों गहरा असर रहा था।

इस तरह उन्नीसवीं सदी के शोपेनहावर से लेकर बीसवीं सदी के निर्मल वर्मा-सुजान सौन्टैग और इक्कीसवीं सदी तक खिंच आए डेविड फ़ॉर्स्टर वॉलिस आख़िर शोहरत की विडंबना के बारे में हमसे ऐसा क्या कहना चाह रहे हैं, जिसे हम अपनी सतत स्क्रोलिंग के बीच सुन नहीं पा रहे?

शोहरत का अलमिया

मुझे समझ आया कि मेरी ही तरह उनके पास भी प्रसिद्धि के इस दोधारी चाक़ू का कोई सीधा जवाब नहीं है। सीधे जवाब होते भी कब हैं??

टेक्स्ट के आधार पर मैं जितना अपने इन प्रिय लेखकों का मन पढ़ पाई हूँ, उसके हिसाब से मुझे नहीं लगता कि अपने लिखे किसी टेक्स्ट की बजाय अपनी सेल्फ़ी पोस्ट करने पर वह मुझे बुरा भला कहेंगे। यहाँ मैं निश्चित ही ग़लत भी हो सकती हूँ, लेकिन मुझे नहीं लगता मेरे ये पुरखे मुझ पर कोई नैतिक निर्णय थोपते या थोपेंगे।

हाँ, वे शायद यह ज़रूर कहेंगे कि हम इस तथाकथित प्रसिद्धि के पीछे की विडंबना और इसकी व्यर्थता को कभी न भूलें—एक क्षण के लिए भी नहीं।

क्योंकि अच्छे साहित्य का काम शुद्धतावाद में डूबे नैतिक निर्णय थोपना नहीं, बल्कि व्यक्ति की दृष्टि को करुणा से भर उसमें अच्छे-बुरे की प्रज्ञा पैदा करना है। और प्रज्ञा के आते ही विडंबना का एहसास और साफ़-सुथरा होकर दिखने लगता है।