क्या एक गल्प है यह
”किसके बारे में सोच रहे हो—मृत्यु या मदिरा?” मेरे दोस्त ने पूछा।
अस्ल में मैं इन दोनों में से किसी विषय में नहीं सोच रहा था। एक छोटे-से होटल के कमरे में मेरा बिस्तर दीवार के साथ लगा था जिसकी एक ओर तंग गली थी और दूसरी ओर गौशाला। यह गली ठीक मणिकर्णिका घाट को उतरती थी। हर दूसरे पल इधर से कोई न कोई अर्थी गुजरती थी और ‘राम नाम सत्य है’ का मर्मांतक उच्चारण हमारे कानों में पहुँचता था। ऐसा मालूम होता है कि शवयात्रा पर जाते हुए लोग एक ख़ास क़िस्म के अवसाद से भरे होते हैं, ये अवसाद किसी को खोने के दुःख से उपजा अवसाद नहीं होता, ये एक जीवन-यात्रा के अंत तथापि अपने जीवन की भंगुरता के एहसास से उपजा अवसाद होता है। इतने नियमित अंतराल पर यह शब्द सुनने के मेरे कान आदी नहीं थे। हर दो मिनट पर पृष्ठभूमि में एक शवयात्रा और मर्त्यता के प्रश्न से मुख़ातिब वही उच्चारण! इसे बार-बार सुनकर मुझे घबराहट होती थी, मैंने इयरफ़ोन लगा लिया और सिर को दोनों ओर से तकिए से ढक लिया, फिर भी ये शब्द नियमित अंतराल पर मुझे सुनाई देते रहे। ऐसा लगता था मानो मेरे सिर में शवयात्रा का एक दृश्य लटक गया हो जिससे मुक्ति असंभव हो! मैं बार-बार अपने दोस्त को यह बतला रहा था कि मुझे यहाँ ठीक नहीं लग रहा, यहाँ आकर ग़लती हो गई। वह ऊँघते हुए मुझे हर बार सोने की हिदायत देता था। लेकिन मेरी हालत अजीब हो चुकी थी—आँखे खोलो तो वही दृश्य (भले ही वह दीवारों के पार हो), आँखें बंद करो तो भी वही दृश्य, वही ध्वनि।
अर्थी पर रखी हुई निर्जीव देह, ऊपर सफ़ेद कफ़न, चार लोगों के कंधे पर टिका हुआ, पीछे से कोई अक्षत के चावल दाने छिटकता हुआ कोई शोकाकुल मनुष्य और रात की ख़ामोशी में ‘राम नाम सत्य है’ की अनवरत ध्वनि। ऐसा लग रहा था मानो यह एक स्थिर दृश्य किसी बिंदु की तरह गली एक छोर से निकलकर दूसरे छोर पर जा डूबता हो, फिर दूसरी बिंदु, फिर तीसरी बिंदु का अंतहीन सिलसिला।
मर्त्यता का प्रश्न यूँ तो हमें जीवन भर विचलित करता है, या यूँ कहें कि मनुष्य जीवन भर इस प्रश्न के मुख़ातिब रहता है और यह मृत्यु का भय उसके सभी दुःखों में शामिल होता है। लेकिन यहाँ ध्वनि, दृश्य, कल्पना और विचार का जो मिश्रण तैयार हो रहा था वह मेरे लिए अस्वाभाविक था। मणिकर्णिका घाट पर रहने वाले, या इस घाट पर नियमित रूप से आने वालों के लिए शायद यह अस्वाभाविक बात नहीं होगी। मैंने नॉर्वेजियन उपन्यासकार कार्ल ओवे क्नॉसगार्ड के उपन्यास ‘मेरा संघर्ष’ के शुरुआती हिस्सों को सायास याद किया, इस उम्मीद में कि भय की इस घड़ी का सामना तार्किकता से ही किया जा सकता है। मृत देह की प्राकृतिकता और हमारे दैनिक जीवन में मृत वस्तुओं (निर्जीव वस्तुओं) के बीच उनकी स्वाभाविक उपस्थिति को जीवित मनुष्य द्वारा लगातार छिपाने के प्रयास की ओर कार्ल ओवे ध्यान दिलाते हैं। वह पूछते हैं कि ऐसा क्यों है कि हम निर्जीव वस्तुओं की उपस्थिति में तो लगातार जी रहे होते हैं, लेकिन किसी व्यक्ति की मृत्यु पर उसे छिपाने की जल्दबाजी में रहते हैं, मसलन थिएटर देखते समय यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए तो सबका ध्यान थिए टर में चल रहे दृश्य से हटकर मृत व्यक्ति की ओर आ जाएगा, संभवतः थिएटर थोड़ी देर के लिए रुक या निरस्त भी हो जाए। क्या यह संभव नहीं कि हम मृत देह को वैसे ही पड़ा रहने दें और जीवन को अबाध गति से चलने दें? हमारे बीच मृत देह की उपस्थिति हमारी सामान्य गतिविधियों में ख़लल क्यों डालता है?
अपने ऊपर अवसाद को हावी होने देने से बचने के लिए बार-बार कार्ल ओवे की इन पंक्तियों की ओर लौट रहा था, मर्त्यता को एक शाश्वत सत्य की तरह स्वीकार करके इस दृश्य और परिदृष्टि के साथ टिकना चाहता था, लेकिन ‘राम नाम सत्य है’ की अबाध ध्वनि मेरे भीतर की तार्किकताओं के क्रम को बार-बार तोड़ दे रही थी और मुझे उस ध्वनि, जीवन की भंगुरता और व्यर्थता के अलावा जो चीज़ सबसे अधिक परेशान कर रही थी, वह यह थी कि मैं बनारस अपनी बहन की मेडिकल रिपोर्ट एक डॉक्टर को दिखाने ले गया था जिसे शुरुआती जाँच में कैंसर होने की संभावना थी। यह ध्वनि बार-बार मुझे किसी अशुभ की पूर्वसूचना-सी प्रतीत होती थी। अनिश्चितता से उपजा हुआ अपराध-बोध और भय मेरे ऊपर हावी हो रहा था। मुझे बिस्तर पर लेटी मेरी बीमार बहन दिखाई देती जो उम्र में मुझसे छोटी है। मुझे बिस्तर पर बीमार लेटी उस बहन का चेहरा बार-बार दिख रहा था जो आजीवन एक सुई लगवाने से डरती रही और इंशाअल्लाह ऐसी कभी कोई नौबत नहीं आई और जब आई भी तो ऐसी कि उससे बचने का कोई रास्ता नहीं था, बनारस आने से पहले उसने मुझसे कहा, ‘‘भैया, डॉक्टर से कहना कोई ऐसा इलाज बताए जिसमें सिर्फ़ दवाइयों से उसकी बीमारी ठीक हो जाए।’’
उसकी बीमारी की गंभीरता के बारे में अभी उसे नहीं मालूम था। मुझे उसका कहा बार-बार याद आता। मेरे पिता उसकी बीमारी के मासूम नकार में जी रहे थे। उसका पति मुझसे कह रहा था कि वह अपनी पत्नी नहीं खोना चाहता। हर अगले क्षण जब मुझे ध्वनि सुनाई देती तो ये सभी दृश्य और इन सबका एक संष्लिष्ट दृश्य मेरे सामने उपस्थित हो जाता और मेरा सिर चकराने लगता। घाट पर पड़े लकड़ी के ढेर दिखाई देते। जलती हुई चिताएँ दिखाई देतीं। सफ़ेद लिबास में सिर मुँडे लोग खड़े दिखाई देते। घाट पर ही एक मंदिर है जो अपनी धुरी पर झुका हुआ है। यह मंदिर समूचे दृश्य में एक अजीब भयावहता जोड़ता था, मनुष्य की मर्त्यता और जीवन की व्यर्थता का बोध लिए हुए।
दोस्त के सवाल के बाद मेरा ध्यान शराब की ओर लौटा। हम दोनों रात के क़रीब नौ बजे ट्रेन से बनारस पहुँचे थे। हमें एक डॉक्टर से मिलना था और यह मुलाक़ात एक दिन बाद ही संभव थी। हमारे पास पूरी दो रात और एक ख़ाली दिन था और हमने सोचा कि क्यों न इस समय में बनारस को थोड़ा देख-समझ लें। हमें शहर के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी और दोस्त की इच्छा थी कि कम से कम एक बार तो शराब पी जाए! जब हम ट्रेन से उतरे तो हमें यह भी नहीं मालूम था कि हमें कहाँ जाना है। फिर हमने सोचा घाट चलते हैं और वहाँ आस-पास कोई होटल लेकर रुक जाएँगे, लेकिन होटल लेने से पहले शराब लेनी थी! हमने ऑटोवाले को कहा कि वह हमें किसी ‘बार’ के पास छोड़ दे। उसने हमें एक ‘बार’ जिसका नाम ‘चाहत बार’ था के सामने लाकर उतार दिया। हम अंदर गए। अंदर पहुँचकर हम बहुत निराश हुए क्योंकि यह असल में नाम मात्र का बार था, जिसमें सस्ती और गंदी कुर्सियाँ और टेबल लगे थे और सामने ही एक छोटा-सा किचन था। दीवारों पर सस्ती और चमकीली लाइट लगी थी और रेडियो पर कोई भद्दा-सा अनसुना गाना बज रहा था। लगभग सभी टेबल पर पहले से लोग जमे हुए थे। एक आध लोगों पर नज़र मारने के बाद मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि वे लोग ज़रूर ही इलाक़े के छोटे-मोटे बाहुबली होंगे। हमें मन मारकर वहीं बैठना पड़ा। मेन्यू में दो श्रेणियाँ थीं—बीयर और वाइन। मैंने वाइन की पूरी लिस्ट पढ़ डाली और उसमें एक भी वाइन नहीं थी। बाद में पता चला कि यहाँ व्हिस्की बेचने का लाइसेंस वाइन के अंदर ही मिलता है। वेटर, जिसने मोटी मूँछ रखी हुई थी और एक पैर से लंगड़ाकर चल रहा था, ने हमें मेन्यू दिया और यह भी बता दिया कि हमें कौन-सा ड्रिंक और कौन-सी नमकीन लेनी चाहिए। हमने भी बिना अधिक दिमाग़ लगाए अपने लिए एक-एक बीयर ले ली।
बीयर की एक-एक घूँट लेते हुए मेरे मन पर एक अपराधबोध तारी था। मुझे बार-बार अपनी बहन, उसकी मेडिकल रिपोर्ट और डॉक्टर की याद आ रही थी। जब हमारे सामने ऐसी अप्रत्याशित स्थितियाँ आती हैं तो हम बहुत कुछ नया सीख जाते हैं, जैसे किस बीमारी में कौन-कौन-सी जाँच होगी, किस बीमारी के लिए कौन-सा हॉस्पिटल अच्छा होगा, कौन-सा डॉक्टर अच्छा होगा… आदि-आदि। डॉक्टर से मिलने से पहले मैंने शराब पी। जब मैं ख़ुद से यह वाक्य कहता था तो मुझे एक धक्का-सा लगता था। हमारे यहाँ शराब पीना वैसे भी ऐय्याशी और चरित्रहीनता का लक्षण माना जाता है। मेरे ऊपर यही ख़याल भारी थे। शराब पीने का बिल्कुल भी मन नहीं हो रहा था मुझे। एक बोतल ख़त्म करने में ऐसा लग रहा था मानो सदियाँ लग जाएँगी। इसी बीच बार के मालिक ने आकर हमें जल्दी-जल्दी अपने पेय ख़त्म करने के निर्देश दिए, क्योंकि दस बजे तक बार को बंद कर देने का सख़्त प्रसाशनिक आदेश था। हमने उससे पाँच-दस मिनट की मोहलत माँगी और जल्दी से अपना कार्यक्रम ख़त्म किया। जब हम बाहर जाने के लिए गेट की ओर बढ़ने लगे तब मालिक ने हमें वापस बुलाया और दो मिनट इंतिज़ार करने को कहा। फिर उसने हमें उसके पीछे-पीछे चलने को कहा और एक सुरंग जैसे तंग बने रस्ते से बाहर ले आया। बाहर आकर मैंने उससे घाट जाने का रास्ता पूछा। वह मुझे अँग्रेज़ी में रास्ता बताने लगा। मुझे समझ में नहीं आया कि वह मुझसे अँग्रेज़ी में क्यों बात कर रहा है।
फिर मेरे दोस्त ने बताया कि शायद वह मुझे अँग्रेज़ समझ रहा हो, क्योंकि एक तो मेरे बाल लंबे थे और ऊपर से मैंने थोड़े अलग तरीक़े के कपड़े पहन रखे थे। इस बात पर मुझे बहुत हँसी आई और हम देर तक हँसते रहे। हालाँकि शराब पीने का अपराधबोध बीच-बीच में वापस आ जाता था।
वहाँ से घाट अधिक दूर नहीं था। हम रात की ठंडी हवा में टहलते-टहलते घाट पर पहुँच गए। दूर-दूर तक फैला गंगा का विस्तार और पुल हमारे सामने था अब। नदी के किनारे पहुँचते ही जैसे मानो सभी दुःख उतर जाते हों! नदी की शीतल हवा और दूर तक पसरे हुए भव्य घाट! बनारस के घाट अपने आप में एक विश्व हैं। हमने थोड़ी देर घाट पर बिताकर होटल ढूँढ़ने का फ़ैसला किया। यह सोचकर हम घाट पर घूमने लगे। बहुत देर तक भटकते-भटकते जब थोड़ी थकान का एहसास होने लगा तो हमने किसी से पूछा कि होटल कहाँ मिलेगा। फिर हम घाट पर इधर-उधर भटकने लगे, तस्वीरें लेने लगे। घाट पर समय बिताने का अपना ही आनंद है। नदी किनारे, ख़ासकर गंगा नदी किनारे जाकर मुझे अक्सर यह समझ में आता है कि हिंदुओं में आख़िर नदियों को इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है! दोस्त ने कहा कि घाट पर बिताया गया यह समय संभवतः हमारी इस यात्रा का सबसे बेहतर समय साबित हो! और यूँ भटकते-भटकते हम मणिकर्णिका घाट पहुँच गए। रात के बारह से भी अधिक का समय हो रहा था और हमें किसी ने बताया कि हमें से दूसरे घाट जाने के ऊपर जाकर और घूमकर वापस आना पड़ेगा, क्योंकि बीच में कॉरिडोर निर्माण का काम चल रहा है। हम दूसरे घाट जाने के लिए ऊपर चढ़ गए। तंग घुमावदार गलियाँ थीं, जिनमें अँधेरा पसरा हुआ था। कहीं-कहीं इक्के-दुक्के लोग थे और बीच-बीच में एक-आध पुलिसवाले। लोगों से रास्ता पूछकर हम आगे बढ़ते जा रहे थे। रास्ता वाक़ई लंबा था और हम पहले ही थके हुए थे। तभी हमें सड़क के किनारे एक घर पर ‘तिवारी लॉज’ का बोर्ड दिखा। मैंने बोर्ड पर दिए नंबर पर फ़ोन किया और एक ब्राह्मणनुमा आदमी दरवाज़ा खोलने के लिए बाहर आया।
उसने हमें कमरे दिखाए और हमने इतनी रात गए कहीं और भटकने की बजाय यहीं रात गुज़ारना उचित समझा।
यही वह होटल था जिसमें मेरा बिस्तर दीवार के साथ लगा था जिसकी एक ओर तंग गली थी और दूसरी ओर गौशाला। यह गली ठीक मणिकर्णिका घाट को उतरती थी।
जैसे-तैसे रात कटी।
अगले दिन हमारा बहुत सारा समय खाने-पीने की जगहें ढूँढ़ने, एक जगह से दूसरी जगह जाने, दूसरा होटल ढूँढ़ने और भटकने में खप गया। सुबह नाश्ता करके हमने कुछ समय घाट पर बिताया और फिर शाम को बनारस ही रहने वाले एक दोस्त से मुलाक़ात के बहाने कुछ देर घाट और काफ़ी देर तक एक रेस्त्राँ में बैठे रहे। दोस्त के वापस जाने के बाद मैं और मेरा साथी वापस आकर बहुत देर तक घाट पर बैठे रहे। देर शाम से रात ढलने तक का समय अवसाद के हावी होने का समय था। देर तक हम अपनी पारिवारिक और आर्थिक समस्याओं पर चर्चा करते रहे जिसमें बीच-बीच में आर्थिक और सामाजिक असमानता जैसे मुद्दे भी आते रहे, हमने बहुत देर तक साल 2008 की आर्थिक मंदी और उसके कारणों पर भी चर्चा की और अंत में थक-हारकर उदास मन से होटल लौट आए। अगला दिन डॉक्टर से मुलाक़ात का दिन था और मुझे बहुत घबराहट और चिंता हो रही थी। सुबह मेरा दोस्त ट्रेन से वापस घर चला गया और मैं दिन भर बहन की मेडिकल रिपोर्ट लेकर इस अस्पताल से उस अस्पताल के चक्कर लगाता रहा। जिस डॉक्टर से मुझे मिलना था, उसने दिन में दो बार अपना समय बदला और मीटिंग कैंसिल कर दी। शाम को जब अंततः डॉक्टर को मैंने रिपोर्ट दिखा ली तो उसकी बात सुनकर मुझे बहुत सुकून मिला; क्योंकि रिपोर्ट के अनुसार मेरी बहन सर्जरी के बाद पूरी तरह से ठीक हो जाएगी, ऐसा उसने मुझे बताया। इसी राहत की बात के साथ मैंने बनारस शहर में भागदौड़ और अवसाद भरे एक थकाऊ दिन का समापन किया।
मैंने जिस किसी को भी यह बताया कि मैंने रात मणिकर्णिका घाट पर एक होटल में बिताई है, वह हम पर या तो हँसा या अचंभित होकर कहता, ‘‘ओह! वह भी कोई रात बिताने की जगह है?’’ अंततः तो वहीं ठहरना है। उसी दिन मैं घर वापस आ गया। मुझे नहीं मालूम था कि जिस एक दृश्य से बचने के लिए मैंने इतने जतन किए जल्द ही वह इतना सार्वभौमिक हो जाएगा कि वह भयावह नहीं लगेगा, बल्कि कोई दृश्य भयावह नहीं रह जाएगा। हम सभी एक अनिश्चितता में स्थगित हो जाएँगे। मृत्यु के भय और मर्त्यता के प्रश्न के प्रति एक अजीब क़िस्म की उदासीनता हो जाएगी और हम नियति के सम्मुख आत्मसमर्पण कर देंगे।
घर लौटने के कुछ ही दिन बाद कोविड-19 की महामारी वापस से विकराल रूप धारण कर चुकी थी। जीवन वापस से घरों में बंद रहने वाली अवस्था में पहुँच गया था। दिन भर इंजन की तरह कुछ न कुछ करते रहते। दिन बीतते-बीतते थकान और अवसाद तारी हो जाता। रात भर सपने में ऑक्सीजन सिलिंडर और आईसीयू बेड के लिए गुहार लगाते लोगों के दृश्य दिखाई देते रहते हैं। यही जीवन है इन दिनों, ऐसा लगता मानो किसी गल्प में जी रहे हों, सभी पुराने सुख-दुःख विस्मृत हो गए थे। आल्बेयर कामू के उपन्यास ‘द प्लेग’ जैसे दृश्य हर ओर दिखाई देने लगे थे। वैसा ही हाहाकार, वैसी ही निराशा, वैसी ही सत्ता की अव्यवस्था और निरंकुशता अनिश्चितता और वैसी ही जिजीविषा और सामाजिक सहयोग!
होटल किनारे की तंग गलियाँ और ‘राम नाम सत्य है’ की अवसादपूर्ण ध्वनि जल्द ही एक राष्ट्रीय परिदृश्य में तब्दील हो गई थी। महामारी ने देश के सभी श्मशानों की हालत लगभग वैसी ही कर थी, जैसी मणिकर्णिका की वह रात थी। जिससे बात करो वह शोकग्रस्त था। पूरा राष्ट्र भयानक आपदा के चंगुल में फँसा था और सोशल मीडिया और फ़ोन कॉल्स और टेक्स्ट श्मशानों के दृश्यों और शोक समाचारों से भर गए थे। फिर मुझे अपनी बनारस-यात्रा एक गल्प जैसी लगने लगी, ऐसा महसूस होने लगा जैसे मैंने उन लम्हों को जिया नहीं है, बल्कि किसी सपने में देखा है, ऐसा दुःस्वप्न जो अभी के यथार्थ से कहीं बेहतर था। होटल के उस कमरे से लौट आने के महीनों बाद भी मणिकर्णिका का वह दृश्य मेरी आँखों के सामने से नहीं हटता था। समूचा जनजीवन न सिर्फ़ अस्त-व्यस्त था, बल्कि सब कुछ एक तात्कालिक ख़तरे में था। दिन भर फ़ोन की घंटी SOS कॉल्स और मैसेज से बजती रहती थी, किसी को हॉस्पिटल बेड चाहिए था, किसी को प्लाज़्मा, किसी को ऑक्सीजन तो किसी को दवाइयाँ। कहीं भी जाओ, किसी भी रेत, किसी भी पर्दे में सिर छुपा लो, मणिकर्णिका से मुक्ति नहीं मिलने वाली थी। जिन श्मशानों पर दिन में दो तीन लाशें जलतीं थीं, उन पर सैकड़ों लाशें जलने लगी थीं। मणिकर्णिका की वह एक रात इस त्रासदी के सामने छोटी लगने लगी थी। हर दिन बीतने पर ऐसा लगता था मानो पिछले दिनों का भय और अवसाद आज के भय और अवसाद से कहीं हल्का था। बिन जलाए नदियों में बहा दी गईं लाशों के उपराने की ख़बरें आने लगीं। चहुँओर अवास्तविक दृश्य विद्यमान थे।
कुछ दिन बाद एक दोस्त का एक मैसेज आया :
‘‘मेरी माँ को कोविड हो गया है और उनकी तबियत बहुत ख़राब है। अगर तुम आस्तिक होते तो उनके बेहतर स्वास्थ्य के लिए अपने ईश्वर से दुआ माँगने के लिए कहती।’’ मैंने ईश्वर और प्रार्थना के विषय से दूरी बरतते हुए अपनी सद्भावना ज़ाहिर की। कुछ ही दिनों में उसकी माँ का देहावसान हो गया। मेरे पास तब भी कुछ कहने के लिए नहीं था और अब भी नहीं था। दुःख और सद्भावना व्यक्त करने के लिए कौन-से शब्द उचित होंगे, उनका चयन करना मेरे लिए हमेशा मुश्किल रहा है। अपनी तार्किकता में मैं यह जानता था कि इस त्रासदी और अव्यवस्था के सम्मुख हम सब सिर्फ़ और सिर्फ़ लाचार हैं। मैं उसके पास जा भी नहीं सकता, क्या दिलासा देता? क्या सांत्वना देता? कहता ही क्या? हर आठ-दस परिवार में से एक-आध परिवार शोकाकुल था। कितने ही परिचित लोग और रिश्तेदार असमय काल-कलवित हो गए। बहुत बार ऐसे मौक़े भी आए, जब अपना परिवार और अपना जीवन भी ख़तरे में दिखा।
अब इस कहे को आप चाहे समाचार समझिए, चाहे आपबीती, चाहे गल्प…
~•~
आदित्य शुक्ल की कविताएँ यहाँ पढ़ें : आदित्य शुक्ल का रचना-संसार