‘झूठ से सच्चाई और गहरी हो जाती है’

गजानन माधव मुक्तिबोध │ स्रोत : रमेश मुक्तिबोध

आज का प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति प्रेम का भूखा है।

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वैसे हर आदमी भला है! बुरा कौन है!—कोई नहीं! और जो बुरे हैं, वे इसलिए हैं कि उन्हें मालूम है कि खोटा सिक्का अच्छा चलता है।

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हमारे वाक्-सिद्ध-साहित्यिक अपने-आपको बहुत ‘प्रकट’ करते हैं, इस तरह अपने-आपको ख़ूब छिपाते हैं।

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वेदना बुरी होती है। वह व्यक्ति को व्यक्ति-बद्ध कर देती है।

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हर आदमी चाहता है कि दूसरा उसे पहचाने, उसके भीतर पहुँचे, और उसकी आत्मा में जो मूल्यवान तत्त्व हैं; उन्हें मान्यता प्रदान करे।

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मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं हो सकती। मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती।

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डरता सिर्फ़ इस बात से हूँ कि कहीं ‘जी हाँ’, ‘जी हुज़ूर’ न बन जाए।

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हमारे आलस्य में भी एक छिपी हुई, जानी-पहचानी योजना रहती है।

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झूठ से सच्चाई और गहरी हो जाती है—अधिक महत्त्वपूर्ण और प्राणवान।

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कोई भी व्यक्ति इतना परम प्रिय नहीं हो सकता कि भीतर का नंगा, बालदार रीछ उसे बताया जाए।

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अमिश्रित आदर्शवाद में मुझे आत्मा का गौरव दिखाई देता है।

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कला तथा साहित्य में प्रकट जो सौंदर्य है वह इस बात का विश्वसनीय प्रमाण नहीं हो सकता कि उस सौंदर्य के सृजनकर्ता का वास्तविक निज चरित्र उदार उदात्त और उच्च है।

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ख़यालों की लहरों में बहते रहना कितना सरल, सुंदर और भद्रतापूर्ण है। उससे न कभी गरमी लगती है, न पसीना आता है, न कभी कपड़े मैले होते हैं।

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अच्छाई का पेड़ छाया प्रदान नहीं कर सकता, आश्रय प्रदान नहीं कर सकता।

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जो आदमी आत्मा की आवाज़ कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है।

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सच्चा लेखक जितनी बड़ी ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ले लेता है, स्वयं को उतना अधिक तुच्छ अनुभव करता है।

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अस्ल में साहित्य एक बहुत धोखे की चीज़ हो सकती है।

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आत्मा की आवाज़ जो लगातार सुनता है और कहता कुछ नहीं है, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवक़ूफ़ है।

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पाप के समय भी मनुष्य का ध्यान इज़्ज़त की तरफ़ रहता है।

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जो आत्मा की आवाज़ बहुत ज़्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्त्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है।

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जो आदमी आत्मा की आवाज़ ज़रूरत से ज़्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। वह पुराने ज़माने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलख़ाने में डाल दिया जाता है।

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जल विप्लव है।

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आहतों का भी अपना एक अहंकार होता है।

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दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है।

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जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे, तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।

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यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘मुक्तिबोध के उद्धरण’ (चयन और संपादन : प्रभात त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण : 2017) शीर्षक पुस्तक और मुक्तिबोध की ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ (संपादक : रोहिणी अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण : 2018) से चुने गए हैं। मुक्तिबोध से और परिचय के लिए देखें : क़िस्सा-ए-मुक्तिबोधमुक्तिबोध की प्रतिनिधि और प्रसिद्ध कविताएँ