मृतकों का अपना जीवन है
मुझे अपनी कविताओं से भय होता है, जैसे मुझे घर जाते हुए भय होता है।
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अच्छे आदमी बनो—रोज़ मैं सोचता हूँ। क्या सोचकर अच्छा आदमी हुआ जा सकता है? अच्छा आदमी क्या होता है? कैसा होता है? किसकी तरह?
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यथार्थ! यह संसार का सबसे कठिन शब्द है। करोड़ों जीवन यथार्थ को समझते-समझाते बीत गए। यह तब भी सबसे विकट, गूढ़ और रहस्यमय शब्द है। अतियथार्थ और अयथार्थ भी दरअसल यथार्थ हैं। मानसिक यथार्थ भी भौतिक यथार्थ है। भाषा इसके सामने अपर्याप्त है।
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पहले मैं हर चीज़ की, हर व्यक्ति की प्रशंसा करता था। सोचता था कि शमशेर की तरह मैं भी चीज़ों का उजला पहलू ही पहले देखूँगा। पर अब मैं ज़्यादातर चीजों की आलोचना और भर्त्सना करने लगा हूँ। मुझे उनका खोट ही सबसे पहले दिखता है।
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यह सभी की समस्या रहती होगी कि हम मनुष्य के रूप में कैसे हैं। मेरा व्यक्तित्व कैसा है? मुझे कैसा होना चाहिए? क्या मुझे ख़ामोश रहना चाहिए या वाचाल? ख़ामोश होता हूँ तो वैसी कविता नहीं लिख सकता जैसी लिखना चाहता हूँ और बातूनी होने पर ख़राब आदमी होने का भय है। क्या मुझे मुस्कराते रहना चाहिए या उदास बने रहना चाहिए? इसी द्वंद्व में मैं ख़ुश होता हूँ तो उदास दिखता हूँ और उदास होता हूँ तो हास्यास्पद लगता हूँ।
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मैं ऐसे छोटे-छोटे झूठ बोलता हूँ जिनसे दूसरों को कोई नुक़सान नहीं होता। लेकिन उनसे मेरा नुक़सान ज़रूर होता है। मसलन, झूठ बोलना ही अपने आपमें एक बड़ा नुक़सान है।
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जाने क्या है कि धोखा खाने, ठगे जाने में मुझे एक अजब-सा संतोष मिलता है। शायद थोड़ी ख़ुशी भी होती है। कोई चीज़ खो जाए तो कुछ देर को अच्छा लगता है। बाज़ार से कोई चीज़ ख़रीदता हूँ—मसलन क़मीज़, जूता, बैग या माचिस—और वह ख़राब या नक़ली निकलती है तो एक राहत महसूस होती है।
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कहीं रास्ता भटक जाता हूँ तो घबराहट ज़रूर होती है, लेकिन यह भी लगता है कि अच्छा है इस रास्ते ने मुझे ठग लिया। यानी यह एहसास कि यह वह नहीं है या था जो वह सचमुच होता या होना चाहिए था। यह ‘वह’ भी नहीं हैं जो ‘वह’ की शक्ल में प्राप्त हुआ। वह कुछ और है और उसे पाने की कोशिश में ठगा जाता हूँ। यह ठीक भी है। कोई उधार लिया पैसा लौटाता है तो अचानक लगता है कि मैंने कुछ ठगी कर ली है।
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कविता में कभी अच्छा मनुष्य दिख जाता है या कभी अच्छे मनुष्य में कविता दिख जाती है। कभी-कभी एक के भीतर दोनों ही दिख जाते हैं। यही एक बड़ा प्रतिकार है। और अगर यह ऐसा युग है, जब कविता में बुरा मनुष्य भी दिख रहा है तब तो कविता में अच्छा मनुष्य और भी ज़्यादा दिखेगा।
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कविता अपने समय के संकटों को पूरी सचाई से कभी व्यक्त नहीं कर पाती, इसलिए उसमें हमेशा ही संकट बना रहता है।
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ख़राब किया जा रहा मनुष्य आज जगह-जगह दिखाई देता है।
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पूर्णकाम न हो सके लोगों का एक पूरा देश है जो हमारे संतुष्ट-सुरक्षित संसार को हिलाता रहता है।
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हिंदी अगर एक छोटी-सी भाषा होती, लोग उसे प्रेम और मनुष्यता के साथ बरतते तो उसका लेखक इतना अकेला नहीं होता।
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कवि को कविता के बाहर और भीतर दोनों जगह एक साथ रहने का जोखिम उठाना होता है।
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राजनैतिक कविता के नाम पर ज़्यादातर जो कुछ दिखाई देता है वह शायद किसी बड़ी कविता को निर्मित कर सकने वाला कच्चा माल है। यह हम मार्क्सवादी कवियों की एक ख़ामी है कि हम कविता की सामग्री को कविता की तरह पेश करते रहते हैं और ग़ैर-कलावादी बनते हैं। हम अपनी कविता के रसोईघर को ही कविता मान लेते हैं, ताकि भोजन की असलियत भी पता चल जाए।
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मृतकों का अपना जीवन है जो शायद हम जीवितों से कहीं ज़्यादा सुंदर, उद्दात और मानवीय है। इतने अद्भुत लोग, और ज़िंदगी में उन्होंने कितना कुछ झेला और वह भी बिना कोई शिकायत किए। जो नहीं हैं, मैं उनकी जगह लेना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ, वे मेरे मुँह से बोलें।
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संस्मरणों से किसी जगह को जानना उसे स्वप्न में जानने की तरह है जिसे हम जागने के कुछ देर बाद भूल जाते हैं या सिर्फ़ उसका मिटता हुआ स्वाद बचा रहता है।
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बुख़ार की दुनिया भी बहुत अजीब है। वह यथार्थ से शुरू होती है और सीधे स्वप्न में चली जाती है। वह आपको इस तरह झपोड़ती है जैसे एक तीखी-तेज़ हवा आहिस्ते से पतझड़ में पेड़ के पत्तों को गिरा रही हो : वह पत्ते गिराती है और उनके गिरने का पता नहीं चलता। जब भी बुखार आता है, मैं अपने बचपन में चला जाता हूँ।
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एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है
मसलन यह कि हम इनसान हैं
मैं चाहता हूँ इस वाक्य की सचाई बची रहे।
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मैं थोड़ा-सा कवि हूँ और आलोचक तो बिल्कुल नहीं हूँ।
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आधुनिकतावाद भले ही अलग-अलग टुकड़ों और बारीकियों में सफल रहा हो, सारत: वह विफल हो गया।
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एक प्रसिद्ध उक्ति है कि ‘अच्छे साहित्य’ का निर्धारण आलोचक करते हैं, लेकिन ‘महान साहित्य’ वही हो पाता है जिसे समाज स्वीकृत करता है।
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पेशेवर आलोचकों की त्रासदी शायद यहाँ से शुरू होती है कि वे प्राय: कविता के संवेदनशील पाठक नहीं होते।
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यात्रा करना जितना कठिन और रोमांचक है, यात्रा की कल्पना शायद उतनी ही सरल और सुखद है।
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कभी-कभार मेरी कल्पना में ऐसी जगहें आती हैं जो दरअसल कहीं नहीं हैं या जिनके होने की सिर्फ़ संभावना है।
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यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘एक बार आयोवा’ (आधार प्रकाशन, संस्करण : 1996), ‘लेखक की रोटी’ (आधार प्रकाशन, संस्करण : 1997), ‘कवि का अकेलापन’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2008), ‘कवि ने कहा’ (किताबघर प्रकाशन, संस्करण : 2010), ‘प्रतिनिधि कविताएँ : मंगलेश डबराल’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2017) और मंगलेश डबराल की फ़ेसबुक टाइमलाइन से चुने गए हैं। मंगलेश डबराल की प्रतिनिधि और प्रसिद्ध कविताएँ यहाँ पढ़ें : मंगलेश डबराल का रचना-संसार और उन पर एक लेख यहाँ : वक़्त की विडम्बना में कविता की तरह