‘यह दिमाग़ों के कूड़ाघर में तब्दील किए जाने का समय है’

उदार तबक़ों की बेरुख़ी ने हमारी उजली परंपराएँ संकीर्णता के हवाले कर दी हैं।

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हमारी ज़िम्मेदारी है—बौद्धिक और सांस्कृतिक दोनों ही—कि हम परंपरा की नई व्याख्याएँ करें, उसे अंधानुकरण से बचाकर उसकी संजीवनी, संभावना और प्रश्नवाचकता को पहचानें और सामने लाएँ।

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हमें सत्ता हथियाने की आकांक्षा से मुक्त एक व्यापक सिविल लोकनीति की ज़रूरत है।

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जब समाज में ध्रुवीकरण को तेज़ करने की वृत्तियाँ सक्रिय हों तो सृजन और विचार के समुदाय की ज़िम्मेदारी यही बनती है कि वह इनका प्रतिरोध करे, न कि इन्हें बढ़ावा दे।

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अगर कलाएँ ‘इंडिया’ के बजाय ‘भारत’ को संबोधित हों तो सुने-समझे-सराहे जाने के अधिक अवसर हैं। ‘इंडिया’ चकाचौंध देता है समझदार प्रतिक्रिया नहीं।

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यह विचारों पर भारी विचारधारा का दौर है।

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जब मंच पर लोग कुछ करते हैं तो दर्शक निष्क्रिय बैठे उसे देखते हैं और जब मंच पर निष्क्रियता है तो दर्शक को सक्रिय होकर सोचना, कल्पना करना होता है।

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एक गणराज्य कल्पना का भी होता है।

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लोकतंत्र का लगातार सत्यापन होना ज़रूरी है, इसलिए प्रतिरोध भी ज़रूरी है।

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जीवन को अर्थ देने की कोशिश में साहित्य यह कभी नहीं भूलता कि जीवन उससे बहुत बड़ा है।

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हमारा वाचाल-मुखर समय कई तरह के संवादों के बंद होने या शिथिल पड़ने का समय भी है।

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ज़्यादातर कला कलाकार की इस इच्छा से उपजती है कि उसके पास कुछ महत्त्वपूर्ण कहने-खोजने को है। पर ऐसी कला भी होती है जो जान-बूझकर यह तय कर सकती है कि उसके पास कुछ कहने को नहीं है, सिवाय अपने को संप्रेषित करने के।

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साहित्य में सिद्धांत से बड़ी जगह मानवीयता की है।

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लेखक की स्वतंत्रता सिर्फ़ इस पर निर्भर नहीं करती कि उसे समाज में कितनी स्वतंत्रता मिली हुई है, वह इस पर भी, बहुत हद तक, निर्भर करती है कि लेखकों को स्वयं लेखक-समाज में कितनी स्वतंत्रता मिली हुई है।

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प्रतिरोध अक्सर और मूल रूप से एक नैतिक कार्रवाई है जो राजनीति के रूप में देखी-समझी जाने के लिए अभिशप्त है।

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कविता विकल्प और स्वप्न की रंगभूमि होती है तब भी, जब वह कुछ मूल्यों के लिए रणभूमि में भी क्यों न बदल गई हो।

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कविता बेहतर और वैकल्पिक दुनिया की संभावना को भाषा में सजीव रखती है। वह नैतिक उपदेश नहीं देती पर हमारे नैतिक बोध को सक्रिय रखती है।

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हिंदी अंचल की सृजनशीलता सिर्फ़ साहित्य में सिमट गई है जो ख़ुद भी राजभरोसे और रामभरोसे है।

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कला कभी भी अपने समय और समाज से निरपेक्ष या मुक्त नहीं हो सकती।

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भारतीय कविता की परंपरा में संस्कृति और प्रतिसंस्कृति दोनों के ही तत्त्व और धाराएँ समानांतर रही हैं और उनमें कभी कोई शत्रुता जैसी दूरी नहीं रही है।

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कविता के पास सजग समय-बोध ही नहीं होता, काल-बोध भी होता है। कविता शुरू में भी आख़िर का ध्यान रखती है। असहमति के प्रति बढ़ती असहिष्णुता प्रमाण है कि हमारा आर्थिक विकास हमें, किसी न किसी रूप में, वैचारिक और सांस्कृतिक पिछड़ेपन की ओर ढकेल रहा है।

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जहाँ विचारों की उपेक्षा हो और ज्ञान की अवज्ञा वह सच्चा और टिकाऊ लोकतंत्र नहीं हो सकता।

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साहित्य और कलाएँ, अँधेरे समयों में, यही करती या कर सकती हैं : वे हमें हमारी दबी-छुपी शिरकत के रू-ब-रू करती हैं।

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वे हमें अपने पाक-साफ़ होने की खुशफ़हमी से मुक्त करती हैं।

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सत्ता से सच बोलने के पहले हमें अपने से भी सच बोलने की ताब होना चाहिए।

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संस्कृति के गहरे संस्कारी रूपों से हमारे मीडिया का लगभग संबंध और संवाद विच्छेद हो चुका है।

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सच्चा लेखक प्रतिनिधित्व का भ्रम नहीं पालता है।

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साहित्य चूक भी बताता है, चौकसी भी करता है।

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हम सब कहानियाँ हैं—एक-दूसरे से कही जाती हुई, अक्सर अनसुनी, अनपहचानी, अनजानी कहानियाँ।

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हम कहाँ और क्यों जा रहे हैं, ऐसे प्रश्न हमने पूछना बंद कर दिया है। जा रहे हैं और तेज़ी से जा रहे हैं, यह हमें संतोषप्रद लगता है।

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हमें यह उदास स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम अँधेरे में लालटेनें हैं। हमसे रास्ते रोशन नहीं होते किसी और के, हम अपनी विपथगामिता पर चौकसी करते चौकीदार भर हैं।

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कला का सचाई के बिंब से नहीं बिंब की सचाई से ताल्लुक़ होता है।

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कला और साहित्य को कुछ हम रचते हैं और कुछ वे ख़ुद अपने को रच लेते हैं।

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असहमति और आलोचना देशद्रोह नहीं लोकतंत्र की आत्मा हैं।

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अच्छी आलोचना वह होती है जो ‘कला के स्तर पर उन्नीत’ हो जाए।

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सभी पूर्वग्रह अनुचित हों, यह ज़रूरी नहीं है।

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युवा वह है जो दी हुई दुनिया को जस-का-तस मानने से इनकार करता है।

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हम तकनीकी दृष्टि से सबसे सक्षम लेकिन मानवीय दृष्टि से सबसे बर्बर समय में जी रहे हैं।

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साहित्य सत्याग्रह है तो ज़्यादातर कविता के कारण ही।

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हमारे समय में जैसे सच भोथरा होता गया है, वैसे ही सपने भी टुच्चे होते गए हैं।

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जब सब चकाचौंध से प्रभावित हों, तब अँधेरों की शिनाख़्त करना कविता का कर्तव्य है।

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यह दिमाग़ों के कूड़ाघर में तब्दील किए जाने का समय है।

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इतिहास सिर्फ़ हामी और समर्थन से नहीं, नहीं और प्रतिरोध से भी बनता है।

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आज झूठ बहुत फैल पा रहे हैं तो इसका एक बड़ा कारण उनका ख़बरों में बने रहना है।

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कविता कठिन समय में आत्मा की जासूस होती है।

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ज़िम्मेदारी, सजगता, साहस और सचाई से लिखना अपनी सभ्यता का उपक्रम आगे बढ़ाना है।

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बड़ा कलाकार वह है जो अपनी अभिव्यक्ति को इतना विशाल बना दे कि वह सबकी अभिव्यक्ति बन जाए।

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कविता भाषा, स्मृति और प्रकृति को बचाने की स्वाभाविक विधा है।

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पत्रकारिता अपने श्रेष्ठ अर्थों में नागरिक चौकसी है।

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अब हम देखते नहीं, देखे जाना चाहते हैं।

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भाषा हमें उस मुक़ाम पर थामती है, जहाँ सचाई और सपना एक हो जाते हैं।

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तोड़फोड़ के अभागे समय में रचना एक तरह का प्रतिरोध है।

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हिंसा से अंततः कुछ हासिल नहीं होता, वह आत्म-पराजय ही लाती है।

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लेखक सिर्फ़ साहित्य के नहीं, व्यापक स्वतंत्रता के चौकीदार होते हैं।

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अँधेरों की भीषण जकड़बंदी में भी वसंत की कामना क्षीण नहीं होती।

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इस समय हम शब्दों और बिंबों से लगातार घेरे जाते लोग हैं।

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आलोक और छाया दोनों के लिए ज़रूरी है शब्दों की जीवंत सार्थक विपुलता, उनकी अतर्कित बहुतायत नहीं।

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कविता एक अर्थ में मनुष्यता का सत्यापन है तो दूसरे अर्थ में मनुष्यता की संभावना।

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झूठ के स्थापित साम्राज्य में सच का स्वराज हर समय सक्रिय रहता है।

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कला में सबके लिए जगह है, पर वहाँ किसी के वर्चस्व की इजाज़त नहीं है।

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तर्क से परे हज़ारों ऐसे अनुभव हैं जो हमें घेरते रहते हैं।

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कविता छूट गया इतिहास हो सकती है और इतिहास अधूरी रहने को अभिशप्त कविता।

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इतिहास में कविता की तुलना में आत्मविश्वास अधिक होता है और आत्मसंशय अक्सर बहुत कम।

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इतिहास सत्ता से आक्रांत होता है और प्रायः हमें भी सत्ता से आक्रांत करता है: कविता, इसके बर-अक्स, सत्ता के आतंक से मुक्त होती है और हमें भी मुक्त करती है।

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जो कथा में संभव है, वह कविता में नहीं। पर उतना ही सही यह भी है कि जो कविता करती है, वह कथा नहीं कर पाती।

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कविता के सभी सच संशयग्रस्त और अधूरे होते हैं जो मानवीय शिरकत से ही मुक्त और पूरे हो पाते हैं।

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सत्ताएँ अभिधा ही समझती हैं, व्यंजना की बारीकियाँ उनकी पकड़ में नहीं आतीं।

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साहित्य और कलाएँ ही वे जगहें हैं जहाँ कोई ‘दूसरा’ नहीं होता।

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साहित्य को कोई ज़िम्मेदारी नहीं देता, उससे सिर्फ़ अपेक्षाएँ की जाती हैं।

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कविता आत्म की अभिव्यक्ति से अधिक आत्म की रचना भी हो सकती है।

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हमारी दुनिया, विचित्र और दुखद ढंग से, दूरियों की दुनिया हो गई है।

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हिंदी साहित्य हिंदी समाज का राजनैतिक विपक्ष है।

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शब्द भी यथार्थ हैं, उनके बिना कोई भी यथार्थ हम विन्यस्त नहीं कर सकते।

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भारतीय राजनीति में जैसे-जैसे लोकतंत्र की आयु बढ़ती गई वैसे-वैसे उसमें भाषा, साहित्य और कलाओं के बारे में चिंता और सरोकार घटते गए हैं।

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कूर अमानवीय उपक्रम में कविता सविनय अवज्ञा है।

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सार्वजनिक भाषा में जो गिरावट, भदेसपन और अभद्रता, बड़े पैमाने पर आई और आ रही है, उससे स्पष्ट है कि इस समाज ने साहित्य के सहज प्रभाव से अपने को सर्वथा मुक्त कर लिया है।

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लोकतंत्र में बहस ज़रूरी है—पर समझ, ज्ञान और भद्रता भी उतने ही ज़रूरी हैं।

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साहित्य के माध्यम से ही अक्सर समाज अपने समाज होने को पहचानता है।

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धर्म का जनतांत्रिकीकरण उनकी अपार व्याप्ति के बावजूद नहीं हो पाया है।

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लोकतंत्र में राजनीति को सिर्फ़ राजनेताओं के ज़िम्मे नहीं छोड़ा जा सकता।

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अशोक वाजपेयी के यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनके बहुचर्चित स्तंभ ‘कभी-कभार’ की अनेक कड़ियों से चुने गए हैं। ‘कभी-कभार’ के बहाने एक स्तंभ यहाँ पढ़ें : विलग उपस्थिति का ‘कभी-कभार’