सचाई कहाँ है—मैं आज तक नहीं समझ पाया

सपने में बड़ा उल्लास है, सुंदर भी है, रहस्यमय भी है। यही सपने का अर्थ है।

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कभी-कभी थोड़ा पलायन बहुत स्वस्थ होता है।

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ज़िंदगी को फूलों से तोलकर, फूलों से मापकर फेंक देने में कितना सुख है।

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वस्तुतः यह सारा जीवन रसमय अनुभूतियों की सार्थक शृंखला न होकर—असंबद्ध क्षणों की भँवर है, जिसकी कोई दिशा नहीं।

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दुनिया की कोई भाषा नहीं जो पृथक व्यक्तियों के निगूढ़तम मर्म के बीच वास्तविक सेतु का काम कर सके।

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मृत्यु शायद किसी एक अमंगल क्षण में घटित होने वाली विभीषिका नहीं है। वह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।

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कहीं न कहीं, हमारा कोई न कोई अंश प्रतिक्षण मरता रहता है।

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सचाई कहाँ है—मैं आज तक नहीं समझ पाया।

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शिखरों की ऊँचाई कर्म की नीचता का परिहार नहीं करती।

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मैं उस मृत्यु की चिंता नहीं करता जो अकस्मात झटके से साँसों की डोर को तोड़ देगी।

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मैं उस मृत्यु के बारे में अक्सर सोचता हूँ जो क्षण-क्षण घटित हो रही है, हम में, तुम में, सब में।

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हिंदी की समकालीन समीक्षा में बार-बार जो नवलेखन से अनास्था की शिकायत की जाती है, दुर्भाग्य से उसकी प्रकृति बहुत कुछ बहेलिया-विप्र के शाप जैसी है।

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कोई ज़रूरत नहीं कि कथाकार कहानी के अंत में पाठक पर आस्था थोप ही दे।

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डरने में उतनी यातना नहीं है जितनी वह होने में जिससे सबके सब केवल भय खाते हों।

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लिखना चाहे जितने विशिष्ट ढंग से, लेकिन जीना एक अति सामान्य मनुष्य की तरह।

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साहित्य निजता की उपलब्धि है।

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यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘धर्मवीर भारती ग्रंथावली’ (खंड-4, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण : 2009, संपादक :  चंद्रकांत बांदिवडेकर) से चुने गए हैं। धर्मवीर भारती की कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ें : धर्मवीर भारती का रचना-संसार