‘शुद्ध प्रेम सत्य की भाँति आदर्श है’
साहित्य हमारी सुख और तृप्ति की भावना से ऊपर है।
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मनुष्य अपने आपमें अधूरा है, लेकिन वह पूर्ण होना चाहता है। इस प्रयास में क्रमशः वह भाषा का अविष्कार कर लेता है, लिपि भी बनाता है।
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साहित्य का सत्य तो यह है कि मनुष्यता एक है। वह इसी सत्य को निरंतर खोजता है और निरंतर अपनी भावना और रचना से वह उसको निकट लाता है।
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कवि स्वयं एकाकी होता है। स्नेह से वह भीगा है और अपनी नस-नस में ग़रीब है।
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विज्ञान प्रथमावस्था में साहित्य है।
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अपने को स्वयं अतिक्रमण कर जाने की चाह को ही साहित्य की मूल प्रेरणा समझिए।
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आर्टिस्ट निर्मम नहीं हो सकता? ऐसी धारणा ग़लत है। ज्ञातव्य वस्तु के संबंध में उसे ममताहीन वैज्ञानिक होना चाहिए।
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यदि आपमें साहित्य की माँग नहीं तो यही कारण है कि आप असली-गहरी चीज़ों से आँख फेरे हुए हैं।
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सत्य बड़ी भयंकर चीज़ है। हम जब समझते हैं कि हममें यह है, वह है, तब हम दंभ में पड़ते हैं। फिर सत्य ही उसे काटता है।
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आपकी हवा को जो स्वच्छ रखता है, आप उसकी ओर ध्यान नहीं देते, ऐसे साहित्य आपके ख़याल की दुनिया को साफ़ रखता है।
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क्रांति जहाँ भी हुई है, पहले मन में हुई है।
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दूरदर्शी पहले यह देखता है कि ख़याल की दुनिया में क्या होता है।
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जो बात वास्तविक दुनिया में आती है, वह पहले हमेशा ख़याल की—आइडिया की—दुनिया में हो चुकी होती है।
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जिल्दसाज़ किताब को जानता है उसके जुज़ से, विक्रेता जानता है उसकी क़ीमत से; लेकिन आपको गहरे जीवन के ही ज़रिए से उसे जानना चाहिए।
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पेट वह चीज़ नहीं है जिसे सिर्फ़ रोटी की ही ज़रूरत हो—हृदय बिना पेट का भी काम नहीं चलता।
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ज़िंदगी का मंत्र क्या है? मेरे ख़याल में वह मंत्र है—प्रेम।
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हमारी असमर्थताएँ और सीमाएँ हमें बाध्य करती हैं कि हम समाज में दर्जों को, श्रेणियों को देखें—उनका अनुभव करें।
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साहित्य की बात करते समय किसी को किसी का प्रतिनिधि बनने की आवश्यकता नहीं है।
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प्रेम से बाहर होकर साहित्य के अर्थ में कुछ भी जानने योग्य बाक़ी नहीं रहता।
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जो जानता है कि वह विद्वान है, ऐसे महापंडित को सँभालने की शक्ति शायद साहित्य में नहीं है।
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जिस व्यक्ति का एक भी दुश्मन है, उसके व्यक्तित्व में कुछ न कुछ खोट है। लेकिन जब आदमी को बुरा कहने वाला कोई नहीं रहता, तब आदमी मर चुका होता है। मरने पर कोई दुश्मन नहीं रहता।
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जिससे कोई व्यक्ति विचलित नहीं होता, ऐसा पुरुष और ऐसा साहित्य निर्जीव है।
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शुद्ध प्रेम सत्य की भाँति आदर्श है, अतः अप्राप्य है।
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प्रेम की चरम-सीमा वहाँ है, जहाँ व्यक्ति तन्मय हो जाता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति प्रेम करता नहीं है, स्वयं प्रेम होता है।
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मानव पशु-तुल्य ही हो सकता है, पशु नहीं हो सकता।
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भय की भावनाओं पर धर्मों का प्रारंभ हुआ, यह बात झूठ नहीं है।
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कला में आत्म-दान है। आत्मदान सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ी नीति है, सबसे बड़ा उपकार है और सबसे बड़ा सुधार है।
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सुख-दुख को सिर्फ़ कल्पना नहीं कहा जा सकता। कल्पनाएँ जहाँ से उपजती-उगती हैं, सुख-दुख उन जड़ों को ही भिगो देते हैं।
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यदि मनुष्यता एक नहीं है, यदि उसमें विग्रह है, कलह है, विच्छेद है, तो वह मिथ्या है।
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आज फिर ईसा पैदा हो सकता है और हम फिर उसे सूली दे सकते हैं, लेकिन यह कभी नहीं हो सकता कि उसका प्रेम का संदेश कभी फलित न हो।
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जैनेन्द्र कुमार (1905–1988) अत्यंत प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। उनके यहाँ दिए गए उद्धरण ‘जैनेन्द्र के विचार’ (संपादक : प्रभाकर माचवे, प्रकाशक : हिंदी-ग्रंथ-रत्नाकर-कार्यालय, बम्बई, संस्करण : दिसम्बर-1937) से चुने गए हैं।