हमारा युग एक विराट प्रतीक्षा का युग है

आने वाली क्रांति केवल रोटी की क्रांति, समान अधिकारों की क्रांति ही न होकर जीवन के प्रति नवीन दृष्टिकोण की क्रांति, मानसिक मान्यताओं की क्रांति तथा सामाजिक अथच नैतिक आदर्शों की भी क्रांति होगी।

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आज की वास्तविकता ही हमारे बहुजन का स्वरूप है। उसका कल का रूप या भविष्य का रूप अभी केवल युग के स्वान्त में अथवा अंतस में अंतर्निहित है।

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बाह्य जीवन का सूक्ष्म रूप ही हमारा अंतर्जीवन है।

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हमारा मन जिस प्रकार विचारों के सहारे आगे बढ़ता है, उसी प्रकार मानव-चेतना प्रतीकों के सहारे विकसित होती है।

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हमारा युग एक विराट प्रतीक्षा का युग है। एक दिन इस युग का व्यक्तित्व हमारे भीतर उतर आएगा और हमारे बाहर-भीतर के सभी विरोध उस व्यक्तित्व की महानता में निमज्जित होकर कृतकार्य हो जाएँगे।

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जिस प्रकार अनेक रंगों में हँसती हुई फूलों की वाटिका को देखकर दृष्टि सहसा आनंद-चकित रह जाती है, उसी प्रकार जब काव्य-चेतना का सौंदर्य हृदय में प्रस्फुटित होने लगता है, तो मन उल्लास से भर जाता है।

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प्रकृति से मेरा क्या अभिप्राय है, शायद इसे मैं न समझा सकूँगा। अगर किसी वस्तु को बिना सोचे-विचारे, केवल उसका मुख देखकर, मेरे मन ने स्वीकार किया है, तो वह प्रकृति है।

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कोई यथार्थ से जूझकर सत्य की उपलब्धि करता है और कोई स्वप्नों से लड़कर। यथार्थ और स्वप्न दोनों ही मनुष्य की चेतना पर निर्मम आघात करते हैं, और दोनों ही जीवन की अनुभूति को गहन गंभीर बनाते हैं।

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स्वप्नद्रष्टा या निर्माता वही हो सकता है, जिसकी अंतर्दृष्टि यथार्थ के अंतस्तल को भेदकर उसके पार पहुँच गई हो, जो उसे सत्य न समझकर केवल एक परिवर्तनशील अथवा विकासशील स्थिति भर मानता हो।

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हमारा युग जैसे लाठी लेकर आदर्श के पीछे पड़ा हुआ है। वह यथार्थ के ही रूप में जीवन के मुख को पहचानना चाहता है, और उसी को गढ़कर, बदलकर मनुष्य को उसके अनुरूप ढालना चाहता है। यह मनुष्य नियति का शायद सबसे बड़ा व्यंग्य है।

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यथार्थ का दर्पण जिस प्रकार जगत की बाह्य परिस्थितियाँ हैं, उसी प्रकार आदर्श का दर्पण मनुष्य के भीतर का मन है।

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मनुष्य का भूत और वर्तमान ही उसे समझने के लिए पर्याप्त नहीं है। भावी आदर्श पर बिंबित उसका चेहरा इन सबसे अधिक यथार्थ और इसीलिए अधिक सुंदर तथा उत्साहजनक है।

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मानव-एकता के सत्य को हम मनुष्य के भीतर से ही प्रतिष्ठित कर सकते हैं, क्योंकि एकता का सिद्धांत अंतर्जीवन या अंतश्चेतना का सत्य है।

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संस्कृति मानव-चेतना का सार पदार्थ है, जिसमें मानव-जीवन के विकास का समस्त संघर्ष नाम, रूप, गुणों के रूप में संचित है, जिसमें हमारी ऊर्ध्वगामी चेतना या भावनाओं का प्रकाश तथा समतल जीवन और मानसिक उपत्यकाओं की छायाएँ गुम्फित हैं; जिसमें हमें सूक्ष्म और स्थूल, दोनों धरातलों के सत्यों का समन्वय मिलता है।

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समस्त सत्य केवल मात्र मानवीय सत्य है, उसके बाहर या ऊपर किसी भी सत्य की कल्पना संभव नहीं है।

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सत्ता के संपूर्ण सत्य को समझने के लिए हमें व्यक्ति तथा विश्व के साथ ईश्वर को भी मानना चाहिए।
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कलाकार के पास हृदय का यौवन होना चाहिए, जिसे धरती पर उड़ेलकर उसे जीवन की कुरूपता को सुंदर बनाना है।

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साहित्य के मर्म को समझने का अर्थ है—वास्तव में मानव-जीवन के सत्य को समझना। साहित्य अपने व्यापक अर्थ में मानव-जीवन की गंभीर व्याख्या है।

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कवि-दर्शन तर्कसम्मत नहीं, भावना तथा प्रेरणा-सम्मत होता है।

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वास्तव में शृंगार का संतुलन तथा उन्नयन ही अध्यात्म है।

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काव्य का सत्य सौंदर्य के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। दूसरे शब्दों में, कविता की आत्मा सौंदर्य के पंखों में उड़कर ही सत्य के असीम छोर छूती है।

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जीवन मेरी दृष्टि में एक अविजेय एवं अपरिमेय सत्य तथा शक्ति है—देह, मन और प्राण जिसके अंग एवं उपादान हैं, आत्मा जिसकी आधारशिला अथवा आधारभूत तत्त्व है और ज्ञान-विज्ञान जिसकी अंतर्मुखी-बहिर्मुखी नियामक गतियाँ हैं।

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सुमित्रानंदन पंत (1900–1977) छायावाद के आधार स्तंभों में से एक हिंदी के समादृत कवि-लेखक हैं। उनके यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘शिल्प और दर्शन’ (प्रकाशक : रामनारायण लाल बेनी माधव, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण : 1961) से चुने गए गए हैं। सुमित्रानंदन पंत की कविताएँ यहाँ पढ़ें : सुमित्रानंदन पंत का रचना-संसार