‘कोरी चील म्हारी काया पर छाया करै’

जाने कितने बरस पहले का दिन रहा होगा, जब सत्यजित राय ने बीकानेर के जूनागढ़ क़िले के सामने सूरसागर तालाब किनारे पीपल पेड़ के नीचे तंदूरा लिए उसे सुना था, जिसे आगे चल उन्होंने सोनी देवी के रूप में जाना। उसकी आवाज़ में क्या था, यह तो सिर्फ़ सत्यजित रे ही जानते थे। एक मरुस्थली आवाज़, जिसमें विकल आह्वान का गान अलग ही रूप में लगता था। राय ‘सोनार किला’ की शूटिंग के सिलसिले में आए हुए थे। मुझे बरसों बाद बुज़ुर्ग मित्र कृष्णचंद्र शर्मा ने बताया कि उसकी आवाज़ फ़िल्म में ली गई। पर यह बात कितनी सच थी, यह मुझे आज भी पूरी तरह कन्फ़र्म नहीं है, क्योंकि बीकानेरी जब पूरी लय में क़िस्सागोई करने लगता है तो कल्पना और तथ्य आटा नमक के गणित को पार कर चुका होता है। तब से मैं उनके भजन सुनने को व्याकुल शहर भर की म्यूजिक शॉप्स में भटक लिया, मगर मुझे कुछ नहीं मिला। तब मेरे आकाशवाणी के मित्र ने फ़रिश्ते के रूप में मुझे समग्र सोनी देवी उपलब्ध करा दी। करीब 60 भजनों का कुछ ख़ज़ाना था जिसे मैं अविराम दिन-रात महीनों तक सुनता रहा। अजीब झुर्रियाती साँवली आवाज़ के फ़न में मैं कसा जा रहा था। वह मीरा, कबीर, गोगाजी, रामसा पीर और न जाने किन-किन लोक देवताओं के हरजस-वाणी गाती थी। संगत में सिर्फ़ तंदूरा और ढोलक। उस आवाज़ के साथ मेरा रहना कैसा था, इसे व्यक्त कर पाना असंभव है। आज सोनी देवी इस दुनिया मे नहीं हैं, किंतु उनकी आवाज़ रेतीले धोरों पर किसी ऊँटनी की तरह चली जा रही है। उनकी आवाज़ की सीडी मैंने प्रिय कवि कुँवर नारायण जी को भी सुनने को दी थी, उसे सुन उन्होंने फ़ोन कर मुझसे आग्रह किया था कि मुझे उस गायन पर लिखना चाहिए। उनकी बात मेरे ज़ेहन में रही, किंतु मैं लिखना टालता रहा। एक दिन कुँवरजी भी चले गए। क़रीब सात-आठ माह या उससे अधिक के समय में मैं उस गायन को याद करते कुछ लिखता रहा, मुझे नहीं पता वह लिखना क्या था। शायद उस आवाज़ के भजनों की दुनिया मेरे जीवन जो उतरी, उसे ही मैं लिखते सुन-पढ़ रहा था…

— अनिरुद्ध उमट

एक

जैसे सैकड़ों सफ़ेद भेड़ों के बीच एक काली बकरी अथाह प्रवाह में किसी नाव-सी आगे बढ़ रही हिचकोले खाती।

काँसे के थाल में साँवरे के लिए भोग में परोसे चावल में एक काली मिर्च रखी और पट ढाँप दिए।

बाहर मेड़ पर टोगड़ी की माँ रँभा रही थी।

झोंपड़े पर दो चार बूँदें किसी भटके बादल की गिरी और पूरी झोंपड़ी में गीली लकड़ी की महक पसर गई।

कोई कंठ था अपने भीतर सुनता। उसके सुनने पर पीर साहेब ने कान लगाए।

पीर साहेब सुध-बुध भूल कंठ के सरवर में सीढ़ी-दर-सीढ़ी उतर रहे थे।

—माँ आख़री साँस में मुक्त हो रही थी।
—तब बगल में सोई डोकरी बोली, ‘‘ए बड़भागन बोल तो सही देख तेरे कान्हे के मुख पर कई दिनों से भूखे रहने की अमावस छाई…
—माँ की गरदन झूल गई…

—बिणजारी ए हँस-हँस बोल बातां थारी रै जासी।

मैंने पीछे देखा तो याद आया माँ कहा करती थी, ‘‘पीछे मत देखना नहीं तो जो है वो भी चला जाएगा।’’
घर आ मैंने पिता से कहा, ‘‘सब चार दिनों का मेला।’’
पिता ने कहा ऐसा तो कोई सोनी देवी थी गोगागेट के पास नायकों के मुहल्ले में रहती थी, वह गाती थी रात-रात जागरणों में :

—ये संसार मसानी खेला…

वह सो गई थी, जब मैंने उसकी झर्री-झर्री छाती पर चेहरा रख दिया।
कोई गान था—सीढ़ियों को जल करता।

छल।
छल।
छल।

दो

पता नहीं चल रहा था, चिलचिलाती धूप में दूर धोरे पर क्या रखा है। ऐसे लग रहा था, जैसे खेजड़ी की कोई डाल टूटकर पड़ी है और उस पर रेत छाने लगी है।

फिर जैसे किसी ने भीतर ही भीतर कहा हो कि एक बार और पास जा देख ले।

बालू पाँवों को अपनी दहक में जला रही थी, फिर भी सुनने वाला उस जगह के पास जाने लगा। आँखों में तपते सूरज का ताप जैसे चमकता अँधेरा-सा कर रहा था।

फिर भी जाने वाला रुका नहीं।

उसके सर पर आकाश के चिलकाव में चीलें किसी कुएँ की सीढ़ियों में जैसे फिसल रही थी।
उसने देखा वह कोई डाल नहीं बल्कि कोई तंदूरा है।
उसके देखते ही तंदूरे के तार झनझन करने लगे।
जैसे खोए हुए को कोई लेने आ गया हो।

दूर किसी अस्पताल में उसी वक़्त मेरी माँ की बग़ल के बेड पर कोई उस तंदूरे-सा ही लेटा था।

मुझे पता नहीं था कि कौन जीवन से जाने वाला है—टूटी डाल की तरह। कौन जाते-जाते फिसलकर लौट आने वाला है—तंदूरे के झनझन करते तारों की तरह।

मुझे कुछ नहीं पता था।

रोही में रेत थी। रेत में किसी ने घर बनाने को पैर नहीं डाल रखा था।
माँ की अधमुँद पलकों और हिचकती साँसों में मेरा कोई पैर अटक गया था। तब बग़ल के बिस्तर पर लेटी डोकरी ने अपने काँपते हाथों मेरा सर पकड़ चूमा था, ‘‘म्हारो कान्हो, कित रैयो इत्ता दिन…’’

मैं कहना चाहता था कि मैं वह नहीं वह कहना चाहती थी कि वह ही मीरा वह ही डोकरी वह ही सोनी देवी है।

फिर वह गाने लगी—कफ़ से भरी छाती खड़खड़ करने लगी।

अरे खोल टोगड़ी भीजे।

अरे, मैंने कहा, ‘‘माँ ने पलकें खोलीं।’’

पूरे वार्ड में सूनी पलकें थीं।
वार्ड में एक आलाप था, ‘‘अरे कान्हा थे, किस विध भूल गया…’’

डबडब आँखें पथरा गईं!

दूर ढाणी में अकेली रह गई, टोगड़ी ने देखा—सोनी देवी धोरे में धँस रही थी।

: म्हाने अब के बचा ले म्हारी माँ, बटाऊ आयो लेवण नै :

तीन

वह गाती है तो लगता है, जैसे : धोरों पर की सर्पिल लकीरें उसकी देह में से गूँज रही हैं। उसकी आवाज़ बालू के कणों में जाने किसको ढूँढ़ती। उसका ठाकर कोई और नहीं, उसी का ग़ुलाम है।

वह गुहार लगाए तो ठाकर की देह में नीलापन पसरने लगता।

वृक्षों के काँटों में से गिरगिट पूछता है, ‘‘क्या कर रही सोनी?’’

वह उसे कुछ कहती, इस बीच पूछने वाला तपती बालू में अपने बिल में समा जाता।

फिर वह हेला लगाती।
बोरटी बोरटी को झकझोरती।

सब गान—उसका एक गान।
कोई शिकायत नहीं, सिर्फ़ मनुहार।

चूल्हे की ठंडी राख से ठाकर जी की प्रतिमा को माँझती खो जाती, जैसे : कोई उसे माँझ रहा। रोही में लू के साथ एक भीगा सुर दिशाओं में साँय-साँय करता।

‘‘म्हारो थांरे बिन कुंण रे… थे हेलो लगार गुम जाओ अर मैं धरती-अम्बर ढूँढू…’’

तंदूरा हो गई काया, और अँगुलियाँ जाने किस कथा में खो गई।

‘‘पूछण आलो पाछो कदैई नी आवे
कोरी चील म्हारी काया पर छाया करै’’

चार

हुकुम होवै जन्ने ही मिलणो होय—

उसने खेत में साँझ पड़े एक गढ्ढा खोदा और उसमें एक काला पत्थर रख मुझे कहा, ‘‘अब तू भी रख…’’
मैंने एक फूटी हाँडी की ठीकरी ली और काले पत्थर के पास रख दी। फिर उसकी आँखों में देखने लगा जो दिन भर कूकती कमेड़ी-सी दिख रही थी।

उसने कहा, ‘‘यहाँ कुछ भी नहीं है रे बावले, उधर देख खड्डे में…’’

काले पत्थर के पास रखी ठीकरी साँवली हो गई थी।

‘‘आओ अब हम इसमें उतर जाएँ, तू पत्थर मैं ठीकरी…’’

हम धरती के गर्भ में थे।

दूर बैठे मोर ने देखा किन्हीं हथेलियों को रेत पर थपथपाते। जीव-जिनावर अपने-अपने नीड़ ठिकानों को लौट रहे थे।

‘‘कबीरा तू ने जुग को जीत लिया रे
या चादर साहेब संग रांची रे’’

पाँच

डोकरी के रूप में डोकरी नहीं कोई और था। शायद ईश्वर उसकी देह के संस्पर्श से जी जाना चाहता हो।

घर में हमान दस्ता, सिला-लोढ़ा, घट्टी, ओखली, हटड़ी उसकी आवाज़ है।

खेत में मुड़ती पगडंडी में लोप होती।
पुकार में उसकी समूचा वन घुल जाता।
दौड़ता हिरण उसकी छाया में जा सिमटता।

कोई दुख नहीं गाया उसने। दुख ने ज़रूर उसे गा ख़ुद से ख़ुद को हल्का करना चाहा।

टिड्डे उसका खेत चर गए।

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