रहिमन दाबे ना दबैं जानत सकल जहान
रहीम की कविता समय की कला-दीर्घा में लगी हुई एक अद्भुत कला-प्रदर्शनी है। उनकी कविता में चार सौ साल पुराने भारतीय जीवन के क्लैसिक चित्र मिलते हैं। वे चित्र कलात्मक ढंग से जीवन की मर्मस्पर्शी सच्चाइयों का बयान करते हैं :
सर सूखे पच्छी उड़े, औरे सरन समाहिं।
दीन मीन बिन पच्छ के, कहु रहीम कहँ जाहिं।।
यह प्रकृति से लिया गया एक बिंब है। तालाब के सूखने पर पक्षी उड़ जाते हैं। पक्षियों के पास पंख हैं। लेकिन मछलियों के पास पंख नहीं हैं। पानी के अभाव में प्राण गँवा देना ही उनकी नियति है। कैसा गहरा क्लेश, कैसी छटपटाहट है इन पंक्तियों में। युद्ध, अकाल, बाढ़, महामारी, दंगों के कारण इंसान को अपनी बसी-बसाई जगह को छोड़कर चले जाना पड़ता है। हज़ारों लोग चले जाते हैं, हज़ारों पीछे ही छूट जाते हैं। पीछे छूटे लोग भी सबके साथ जाना चाहते हैं, लेकिन नहीं जा पाते। यह विस्थापन की विभीषिका का चरम रूप है, जहाँ इंसान अपनी ही जगह पर, अपने में ही मरने को अभिशप्त है। हम आए दिन अस्पतालों के बाहर मृत्यु की प्रतीक्षा में पड़ी हुई अनाथ स्त्रियों, वृद्धों, बच्चों को देखते हैं। रहीम ने इन्हीं को बिना पंखों की मीन कहा है।
संकट की भयावहता यह होती है कि अँधेरे में रास्ता दिखाने वाले दीपक की लौ से वस्त्र जल जाते हैं :
जेहि अंचल दीपक दुर्यो, हन्यो सो ताही गात।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु हृै जात।।
रहीम का एक-एक दोहा फ़्रेम में जड़ी कालजयी मिनिएचर पेंटिंग है। यह चित्र देखें जिसमें मेंढक, मोर और किसान बादलों की ओर ताक रहे हैं। फिर यह चित्र, जिसमें तारा जड़ी रातों में चाँद का आकार घट-बढ़ रहा है। यह कोलाज़ जिसमें इंसान अपनी कुछ बातों को सबसे छिपाना चाह रहे हैं, पर वे छिप नहीं रही हैं।
अगले चित्र में एक चोर किसी बड़े घर में चोरी करने घुसा हुआ है। यह चुराऊँ कि वह चुराऊँ, इसी में सारी रात निकाल दी। उधर से सूरज गड़रिया किरनों की भेड़ें लेकर चला आ रहा है। कुछ लोग, कुछ करना है, कुछ करना है, करते हुए जीवन निकाल देते हैं। इसी के बिल्कुल पास लगी हुई यह होली की पेंटिंग है। चोरी के ईंधन से रची होली, धू-धू कर जलते हुए राख हो रही है। ग़लत तरीक़े से कमाए हुए धन को भी इसी तरह छार-छार हो जाना है। सीमित, तंग, ओछी सोच के आदमी की जगह रहीम ने कुत्ते का चित्र बनाया है। ऐसे लोगों की न तो दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी। कुत्ता काटे या चाटे दोनों ही तरह से गड़बड़ है।
एक यह चित्र जिसमें चौपड़ जमी है। खेलने वाले ने पासे खेल दिए हैं। उसकी आँखों में उदासी है। उसके खेले पासे में वे डोर नहीं आए जो वह चाहता था। कोशिश इंसान के हाथ में है, सफलता उसके हाथ की बात नहीं है।
एक चित्र में एक आदमी खीरे पर नमक लगा रहा है। कहना यह कि आदमी के स्वभाव को देखकर व्यवहार करना चाहिए। आपको पता है कि आपके लिए कोई कड़वाहट लिए बैठा है। आपको उससे पेश आते समय ऐसी तैयारी रखनी होगी कि उसके मन में भरी कड़वाहट कुछ कम हो सके।
और उनका वह बहुचर्चित चित्र जिसमें बिना आगे-पीछे की सोचे जीभ ने बकवास की, जूते सिर पर पड़ रहे हैं। रहीम के समय में बैंक तो होते थे, पर ऐसे नहीं जैसे हम आजकल देखते हैं। इस चित्र में बैंक में लाइन में लगे लोगों के चेहरों पर चिंता की गहरी लकीरें हैं। वे भी दुखी हैं जो पैसे जमा करा रहे हैं और वे भी जो जमा पैसा निकाल रहे हैं। बैंक के बाहर एक बुढ़िया ख़ुशी-ख़ुशी घास बेच रही है। यह जानते हुए भी कि आज की कमाई से आज का ही चूल्हा जलेगा।
दादुर मोर किसान मन, लग्यौ रहै घन माँहि।
रहिमन चातक रटनि हू, सरवर को कोउ नाहिं।।
जे रहीम बिधि बड़ किए, को कहि दूशन काढ़ि।
चन्द्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बाढ़ि।।
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे ना दबैं जानत सकल जहान।।
करम हीन रहिमन लखो, धँसो बड़े घर चोर।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जागत हृैगौ भोर।।
रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करी होरी रची, भई तनिक में छार।।
रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीति।
काटे चाटे स्वान के, दोऊ भाँति विपरीति।।
निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भाव के हाथ।
पासे अपने हाथ में, दाँव न अपने हाथ।।
खीरा सिर तें काटिए, मलियत नमक बनाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहिअत इहै सजाय।।
रहिमन जिहृा बावरी कह गई सरग पताल।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल।।
कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।
घटै बढ़ै उनको कहा, घास बेंचि जे खात।।
रहीम को हिंदू मिथकों का गहरा ज्ञान था। यह चित्र जिसमें हनुमान एक विशाल पर्वत को उठाए हुए हैं, लेकिन उनके आस-पास जय-जयकार करती भीड़ नहीं है। उधर बालक कृष्ण ने एक गाँव के छोटे-से पर्वत को क्या उठा लिया, लोग उसे गिरधर, गिरधारी, गोवर्धनधारी न जाने क्या-क्या कह रहे हैं। रहीम ने हनुमान के आस-पास लोग नहीं दिखाए हैं। हुनमान समर्थ हैं, एक क्या दस पर्वत उठा लें। बात तो तब है, जब कोई कम क्षमता के बावजूद बड़ा काम करके दिखा दे।
साँपों के कान नहीं होते, ऐसा विज्ञान कहता है। धरती शेषनाग के फन पर टिकी है, ऐसा हिंदू पुराण कहते हैं। इन धारणाओं पर आधारित यह चित्र देखिए जिसमें रहीम विधाता से गुज़ारिश कर रहे हैं कि अच्छा ही है आपने शेषनाग को कान नहीं दिए। अगर दे देते और शेषजी तानसेन का संगीत सुन लेते तो लहराए बिना नहीं रहते। शेषजी लहराते तो धरती क्या होता! महाभारत के जिस बलशाली भीम ने दस हज़ार हाथियों को आसमान में फेंक दिया था। इतना ऊँचा कि एक भी हाथी वापस नहीं लौटा है। लेकिन जीवन का खेल विचित्र है। इंसान की तमाम योग्यताएँ धरी रह जाती हैं। बुरे दिन आने पर उन्हीं भीम को वैराट नरेश के यहाँ बावर्ची का काम करना पड़ा था। जो आए वे चले गए और जो चले गए वे फिर नहीं आएँगे। लेकिन रहीम के दोहे विस्मृत नहीं होंगे। जीवन के अच्छे-बुरे मोड़ों पर वे रह-रह कर याद आएँगे :
ओछो काम बड़े करै तो न बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को गिरधर कहे न कोय।।
बिधना यह जिय जानि कै, सेसहि दिये न कान।
धरा मेरु सब डोलि हैं, तानसेन के तान।।
जो पुरूशारथ ते कहूँ, संपति मिलत रहीम।
पेट लागि वैराट घर, तपत रसोई भीम।।
जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि-बुझि कै सुलगाहिं।।
रहीम के ज़माने में कैमरे नहीं हुआ करते थे। उन्होंने अपनी आँख का कैमरे की तरह इस्तेमाल किया। ऐसा लगता है कि वह अपनी आँख के कैमरे से लोक-जीवन के फ़ोटो लेते फिरते थे। रहीम ने बहुत सारे बरवै लिखे हैं। उनमें हम उनके समय की कुँजड़िन, भटियारिन, कलारिन, मालिन, सुनारिन, धोबिन, जोगिन, राजपूतिन आदि के फ़ोटो देख सकते हैं—ब्लैक एंड व्हाइट नहीं, रंगीन।
रहीम दुर्लभ क़िस्म के कवि थे। शासन में सर्वोच्च पदों पर रहते हुए भी उन्होंने सहजता-सरलता नहीं खोई। वह रहीम जो सेनापति रहे, सूबेदार रहे, वकील रहे, भाषाओं के अध्येता रहे, उनका अंतिम समय ख़राब बीता। यह दोहा उनके दुर्दिनों का ‘आत्म-चित्र’ है :
अब रहीम दरदर फिरै माँगै मधुकरी खाही।
यारो यारी छोड़ दो, अब रहीम वे नाहीं।।
रहीम को तीन जागीरें मिली हुई थीं—रणथम्भौर, कालपी और जौनपुर। आज मैं जिस गाँवनुमा क़स्बे से ये बातें लिखकर भेज रहा हूँ। चार सौ साल पहले राजस्थान में रणथम्भौर रहीम की जागीर था।
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