शोकयात्रा

काफ़ी जद्दोजहद के बाद आख़िर उसने ग़मी कोच में ही बैठकर घर जाने का फ़ैसला ले लिया।

ग़मी कोच हर ट्रेन का वह डब्बा होता है जो ग़मी (प्रियजन की मृत्यु) के यात्रियों के लिए आरक्षित होता है। इसी साल की शुरुआत में रेलमंत्री ने हर ट्रेन में एक अतिरिक्त कोच जोड़े जाने की घोषणा की। इस कोच में बैठने के लिए लोगों को पहले से कोई आरक्षण की ज़रूरत नहीं रहती। इस कोच में बैठने के लिए आपके पास ग़मी की सूचना का सबूत होना चाहिए। मसलन कोई टेक्स्ट मैसेज, ई-मेल या व्हाट्सएप्प मैसेज; हालाँकि इसमें भी फ्रॉड की संभावना तो बनी ही रहती है। कुल मिलाकर इस कोच में नियमतः ग़मी में एक शहर से दूसरे शहर जा रहे लोग होने चाहिए। हालाँकि ऐसा हो कहाँ पाता है। इस तत्काल सुविधा का लाभ कोई भी उठा लेता है और अंततः इस डब्बे की हालत भी जनरल के डब्बे जैसी हो जाती है। अधिकतर ऐसे प्रवासी जो आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं, वे इसमें यात्रा करते पाए जाते हैं। राघवन ने देखा : आरक्षण के लिए डब्बे के दरवाज़े पर लगी भीड़। ओह! वह उस दृश्य की कल्पना से ही काँप जाता।

उसे जब अचानक से यह बताया गया कि उसके पिता की तबियत नाज़ुक है और वह जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे हैं तो उसने घर जाने वाली बात पर विचार करना शुरू कर दिया और एक हफ़्ते के बाद का टिकट भी कर लिया था, लेकिन अगले ही उसे उनके स्वर्गवास की सूचना मिली और थोड़े बहुत सोच-विचार के बाद उसने ग़मी कोच में ही बैठकर तत्काल घर जाने का निर्णय लिया। असल में ग़मी कोच में अधिकतर निम्नवर्ग या निम्न मध्यवर्ग के लोग ही यात्रा करते थे। संभ्रांत लोग इस कोच में यात्रा करने से भरसक बचते ही थे। वह भी ख़ुद को संभ्रांत ही समझता था और दूसरी श्रेणी के लोगों से भरसक दूरी रखता था।

वह बहुत ही भारी मन से घर से निकला। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसके कलेजे पर कोई भारी पत्थर रख दिया गया हो। उसके मन में तमाम सवाल-जवाब चल रहे थे। उसके पिता ने उसे आख़िरी वक़्त में कितना याद किया होगा? वह अपने आख़िरी समय में बोल तक पाने में अक्षम हो गए थे। सिर्फ़ टुकुर-टुकुर इधर-उधर देखते रहते जैसे लोगों और स्थितियों को पहचानने की कोशिश कर रहे हों। उनको कितना शारीरिक कष्ट हुआ होगा? वह अपने कष्ट को कैसे चुपचाप झेल रहे होंगे? यह सब प्रश्न उसकी आँखों के सामने नाच रहे थे। उसके कलेजे का पत्थर इधर-उधर सरक रहा था और वह रह-रहकर दर्द से कराह उठता। बार-बार उसका दिल रोने को हो आता और फिर सँभल जाता। उसके मन में सबसे ज़्यादा दुःख अपने पिता को आख़िरी समय में नहीं देख पाने का था। वह कुछ समय से अपने पिता से थोड़ा अलग भी हो गया था, वैचारिक मतभेदों की वजह से; लेकिन उसके और उसके पिता के संबंध बहुत प्रगाढ़ थे। वह उनके साथ में दोस्तों जैसा समय व्यतीत करता रहा था।

यही सब सोचते और दुःख स्मृति आदि में डूबते-उबराते वह न जाने कब स्टेशन पहुँच गया।

स्टेशन पर बेहिसाब भीड़ थी। लोगों के ऊपर लोग। उसने स्टेशन पर जाकर आने वाली ट्रेनों की सूची का बोर्ड देखा तो वहाँ से सब ग़ायब। डिस्प्ले ख़ाली। हड़बड़ी में पूछताछ काउंटर पर पहुँचा। किसी तरह अपने शहर जाने वाली ट्रेन का नंबर, समय और प्लेटफ़ॉर्म नंबर पता किया और प्लेटफ़ॉर्म की ओर दौड़ा। ट्रेन के खुलने में सिर्फ़ दस मिनट थे और प्लेटफ़ॉर्म सबसे आख़िर में था। ओवरब्रिज से अपने प्लेटफ़ॉर्म पर जाते हुए कई लोगों से लड़ा-भिड़ा और किसी तरह अपने प्लेटफ़ॉर्म तक पहुँचा। ओवरब्रिज की सीढ़ियों से उतरकर जैसे ही वह प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँचा तो देखा कि ग़मी कोच का डिस्प्ले वहीं पर लगा था। इससे उसको बहुत राहत मिली। कम से कम अब तो और न दौड़ना पड़ेगा। सामने रेलवे का ही एक खानपान भंडार दिखा तो वह जल्दी से उधर की ओर दौड़कर पानी और जूस की एक बोतल ले आया और जूस की बोतल गटक गया। पानी की बोतल को बैग में रखा और वापस अपनी जगह पर आ गया, जैसे ही वहाँ आकर वापस खड़ा हुआ उसे लगा कि इस पूरी प्रक्रिया में वह दुखी रहना भूल गया है और फिर से दुखी हो गया। जैसे ही वह दुखी हुआ कहीं शोर जैसी आवाज़ सुनाई दी। देखा कि वह जहाँ खड़ा था, वहाँ पर भीड़ लगी हुई थी और एक पुलिसवाला कुछ कह रहा था। भीड़ के कुछ निकट जाने पर उसने उसे सुना :

‘‘ग़मी कोच वाले पीछे जाओ। कोच यहाँ से पीछे आएगी। बी-वन वाले इधर आओ। वह कोच इधर ही लगेगी। ग़मी कोच वाले पीछे जाओ। सब ग़मी कोच वाले पीछे जाओ।’’

पुलिसवाला अपना डंडा हिलाता रहा। किसी ने भीड़ में से पूछ दिया कि डिस्प्ले पर तो यहीं का दिखा रहा है।

‘‘अरे भाड़ में जाए डिस्प्ले। यह तो हमेशा ही ग़लत दिखता है। मैं जहाँ कह रहा हूँ उधर जाओ।’’ पुलिसवाले ने घुड़ककर कहा।

ग़मी कोच वाले सभी लोग अपना उदास-सा मुँह लेकर पीछे की ओर चल पड़े और उसने मन ही मन यह कहा कि आज भी मनुष्य ख़ुद व्यवस्था से अधिक विश्वसनीय समझता है।

वह भी भीड़ के पीछे-पीछे चल दिया और कौतुक के बाद की उदासी फिर से ओढ़ ली। उदास सिर गड़ाए हुए उसकी नज़र प्लेटफ़ॉर्म से नीचे पटरियों पर पड़ी तो देखा कि एक मोटा-सा चूहा या छछूंदर भागा—जैसे उसकी उदासी और असफलता पर व्यंग्य कस रहा हो। चूहे को देखकर उसे ख़याल आया कि न जाने कितने ऐसे चूहे ट्रेन की पटरियों के नीचे कटकर मर जाते होंगे और पल भर में उसकी विचारधारा मरने वाले चूहे से हटकर अन्ना कारेनिना की ओर मुड गई। अन्ना कारेनिना ऐसे ही किसी पटरी पर रेल के आगे गिर गई होगी। उसका मन और खिन्न हो गया।

ट्रेन आकर प्लेटफ़ॉर्म पर लग गई और लोग अपने-अपने डब्बों में चढ़ने लगे।

ट्रेन की बोगी में चढ़ पाना ही अपने आपमें एक युद्ध था। एक भयानक उदास भीड़ बोगी के दोनों दरवाज़े पर आक्रामक मुद्रा में खड़ी थी। कोई किसी के पैर पर पैर रखता तो कोई तो किसी के ऊपर ही चढ़ जाने को तैयार था। उसने भीड़ को थोड़ा सांद्र होने दिया, क्योंकि ट्रेन वहाँ कुछ समय के लिए रुकने वाली थी। किसी तरह करके अंत में वह भी ट्रेन में सवार हो गया।

उसकी सीट ट्रेन के वाशरूम के पास में ही थी और बैठते ही उसने पेशाब का दुर्गंध महसूस लिया। ऊपर से तुर्रा यह कि उस की सीट पर पहले से ही दो लोग बैठे थे, जो उसे देखकर ज़रा भी टस से मस न हुए। उसने जब उन दोनों यात्रियों से पूछा कि उनकी सीट कौन-सी है तो वे जवाब देने की बजाय उसे एकटक घूरते रहे। उनमें से एक जो छोटे क़द का था और जिसकी आँखें भयानक रूप से धँसी हुई थीं, होंठों पर पपड़ी पड़ी हुई थी, ने दूसरे के कान में कुछ कहा। दूसरा थोड़े स्पष्ट आवाज़ में कुछ बुदबुदाया, लेकिन उनको उनके प्रश्न का कोई जवाब नहीं मिला। उसके सामने वाली सीट पर एक सरदार जी के अलावा तीन और लोग ठुँसकर बैठे हुए थे। सरदार जी ने टोकते हुए कहा भी, ‘‘अरे भाई, भाई साहब की सीट है; उन्हें भी बैठने दो।’’ ठिगना आदमी फिर से कुछ बुदबुदाया और थोडा-सा सरकते हुए उनको बैठने का इशारा किया। वह अपना बैग अपनी में रखकर किसी तरह टेढ़े-मेढ़े होकर बैठ गया।

उसकी सीट के स्लॉट में कुल आठ सीटें थीं, जिन पर कम से कम बीस लोग पहले से ही बैठे हुए। लोगों से अधिक सामान था, बोरे और बाल्टी में भर-भरकर। पैर रखने तक की जगह न थी। कोई भी ठीक ढंग से नहीं बैठा था। सब एक दूसरे पर या तो लदे हुए थे या तो सामान पर। किसी के मुँह से शराब की भी गंध आ रही थी। ट्रेन ने जैसे ही रफ़्तार पकड़ी थी, वाशरूम से पेशाब की गंध और भी तीव्रता से कोच में भर गई। कुछ लोगों ने अपने नाक बंद कर लिए और कुछ ने अपनी नाक-भौंह सिकोड़ी। लगभग सबके चेहरे उतरे हुए थे। बग़ल वाली सीट पर एक नवविवाहिता स्त्री बैठी थी, जिसका चेहरा रोने के बाद की सूजन लिए हुए था। उसके बग़ल में बैठा आदमी उपदेश के लहजे में उसे कुछ फुसफुसाते हुए कह रहा था।

तभी किसी ने अपने फ़ोन में गाना बजा दिया।

और भीड़ में से कोई चीखा :

‘‘कैसे लोग हैं, पता नहीं कि ये ग़मी कोच है। इसमें सब लोग उदास और दुखी हैं और आप इसमें गाना बजाकर मौज कर रहे हैं।’’

गाना बजाने वाले आदमी ने ढिठाई से जवाब दिया : ‘‘जाने वाला तो चला गया तो क्या हम ख़ुद को तड़पाते रहें उसके गम में? और क्या पता मैं उस दुःख से ही ख़ुद को उबारने के लिए ये गाने सुन रहा होऊँ?’’

‘‘तो इयरफ़ोन लगाकर सुनो न भई। सबके अंदर तुम्हारे जैसा स्टेमिना तो नहीं है न। सब लोग अलग-अलग तरीक़े से पीड़ित हैं यहाँ इस कोच में। न जाने कौन किसके चले जाने के ग़म में है।’’

ऐसा उसने कहा और ठिगने आदमी को और जगह बनाने के लिए बोला। ठिगना बेमन से उठकर दरवाज़े की ओर चला गया और उन्होंने अपना बैग गोद से उतारकर सीट पर रख दिया और थोड़ा रिलैक्स होकर बैठ गए।

पीछे किसी स्लॉट से किसी बच्चे के रोने की आवाज़ आ रही थी। रात लगभग उतर चुकी थी और ट्रेन कई सारे स्टेशन पार कर चुकी थी। उन्होंने अपने सोने की जगह बनाई और दूसरे आदमी को भी खिड़की के पास से हटने को कहा। वह आदमी भी बेमन से वहाँ से हट गया और वह अपने बैग को तकिया बनाकर लेट गए। जब टीटी आया तो पता चला कि उनमें से अधिकतर लोगों के पास तो टिकट ही नहीं था। डब्बे में लोगों का चढ़ना तब तक जारी रहा जब तक ट्रेन चल न दी।

चलने के दस मिनट बाद ट्रेन फिर से एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर रुकी, कुछ यात्री और चढ़े और ट्रेन ने धीरे से गति पकडनी शुरू कर दी। कोच की गैलरी में लोग भरे हुए थे। एक आदमी पायदान पर बैठा था और एक उसके ठीक पास में खड़ा था। ट्रेन के चलने पर ठंडी-ठंडी हवा आने लगी और लोगों को कुछ राहत की साँस मिली। तभी पीछे किसी के चिल्लाने की आवाज़ आई। पायदान के पास खड़ा आदमी चीख़ रहा था, ट्रेन अभी पूरी गति में नहीं थी। पायदान के पास वाले आदमी ने पीछे दौडकर आ रहे एक बच्चे को खींचकर ट्रेन में चढ़ाया था। बच्चा रो रहा था। गैलरी के लोगों में थोड़ी खलबली थी और पायदान के पास के आदमी ने खींचकर एक और बच्चे को ऊपर चढ़ाया और फिर एक बच्ची को। तीनों ट्रेन में चढ़ते ही समवेत स्वर में रोने लगे और मम्मी-पापा पुकारने लगे। गैलरी में खड़े लोग उन्हें चुप कराने की कोशिश कर रहे थे तो उनके रोने का स्वर और भी तेज़ हो गया।

कुछ देर में जाकर लोगों को समझ आया कि उन तीनों के माँ-बाप ट्रेन में चढ़ नहीं पाए हैं और अभी भी प्लेटफ़ॉर्म पर दौड़ रहे हैं। गैलरी में हलचल फैल गई। पायदान के आदमी ने ज़ोर से चीख़ना शुरू कर दिया, ‘‘चेन खींचो, चेन खींचो।’’ चेन के पास एक बीस-बाईस बरस का लड़का बैठा था और इतने शोर-शराबे को देखकर वह घबरा गया था। पायदान के पास वाला अपनी जगह से हिल भी नहीं पा रहा था। लोगों के ऊपर लोग भरे थे और ट्रेन फिर पूरे रफ़्तार में आ गई थी, प्लेटफ़ॉर्म को लगभग पीछे छोड़ते हुए। गैलरी में सभी लोग चीख़ने लगे, ‘‘चेन खींचो, चेन खींचो।’’

घबराकर चेन से थोड़ी दूर पर बैठा आदमी चेन की ओर मुश्किल से झुककर चेन खींच दिया और ट्रेन साँय की आवाज़ करके धीरे-धीरे करके रुक गई। अँधेरे में एक आदमी और एक औरत अभी भी प्लेटफ़ॉर्म पर दौड़े जा रहे थे। कुछ देर में वे डब्बे के पास आ गए और फिर ट्रेन में चढ़ गए। डब्बे में पैर रखने की भी जगह नहीं थी और आदमी के उपर आदमी किसी तरह से लटककर खड़ा था या ट्रेन की फ़र्श पर किसी तरह बैठा हुआ था। आदमी औरत के डब्बे में चढ़ते ही बच्चे एक बार फिर माँ-पापा करके रुआँसे हो गए और उनसे लिपट गए। ट्रेन के रुकने से उमस बढ़ गई और साँस तक लेने पर भी नाक में ऑक्सीजन की जगह बदबू जाने लगी। पायदान के पास वाला आदमी हँस रहा था और ट्रेन में अभी चढ़े हुए दंपति पर फ़िक़रे कास रहा था और बाक़ी के सभी यात्रियों से उनके बारे में मनुहार कर रहा था।

‘‘हुँह, कैसे माँ-बाप हैं? बच्चों को आगे चढ़ा दिए और अपने प्लेटफ़ॉर्म पर चल रहे हैं। हैं ना भई, क्यों चाची?’’ लोगों को एक-एक करके संबोधित करके कहने लगा। दूर से उसने राघवन को भी संबोधित किया और व्यंग्य में सिर हिलाया। राघवन ने कुछ नहीं कहा। वे दोनों पति पत्नी भीगे चूहे की तरह शांत थे। अभी भी वे उस शॉक से निकले नहीं था और बच्चे उन्हें लपेटे हुए थे। तभी किसी ने भीड़ में से कहा कि अब ये ट्रेन चलेगी कब। किसी ने कहा कि जॉइंट से खुल गई है और अब जब ड्राइवर आकर सही करेगा तभी चल सकेगी। एक पुलिसवाला आकर दरवाज़े के पास खड़ा हो गया और पूछने लगा किसने चेन पुलिंग की है। पायदान के पास वाला आदमी अकबका-सा रहा और अंत में बोला हमने कराई है—इन बच्चों के माँ बाप को चढाने के लिए। पुलिसवाले ने माँ-बाप को पुकारा। बाप किसी तरह करके दरवाज़े के पास पहुँचा और कंधे उचकाकर खड़ा हो गया। पुलिसवाले ने उसका नाम पूछा। उसने कहा, ‘‘रामकुमार गुप्ता… सर…’’
‘‘कहाँ जा रहे हो?’’
‘‘गोंडा सर।’’
‘‘क्यों जा रहे?’’
‘‘सर, बाउजी का देहांत हो गया है।’’
‘‘बच्चों को आगे धकेलकर प्लेटफ़ॉर्म पर क्यों टहल रहे थे?’’
वह चुप रहा।
‘‘अगर कोई अनहोनी हो जाती तो?
‘‘…’’
‘‘अगर कोई बच्चा गिरकर कट जाता तो?’’ पुलिसवाले ने दुबारा वही सवाल पूछा और कुछ देर तक चुप रहने के बाद उसने कहा, ‘‘ग़लती हो गई सर।’’

पुलिसवाले ने हिदायतें देने के साथ-साथ उसका नाम-पता-उम्र-काम आदि पूछा और नोट किया। ट्रेन धीरे-धीरे पुनः चल दी और पुलिसवाला प्लेटफ़ॉर्म पर बड़बड़ाते हुए खड़ा रहा। पुलिसवाले के थोड़ा पीछे छूट जाने के बाद डब्बे में फिर से फुसुर-फुसुर शुरू हो गई। पायदान के पास वाले आदमी ने फिर से व्यंग्य से कहना शुरू कर दिया, ‘‘कैसे माँ-बाप हैं! अगर कहीं कोई घटना हो जाती तो…’’

इस सारे ड्रामे से ऊबकर राघवन ऊँघने लगा। उसकी सीट पर पाँच लोग किसी तरह से अड़सकर बैठे हुए थे। उसने सभी लोगों के पीठ के पीछे अपना पैर घुसाकर किसी तरह उसे सीधा करने की कोशिश की। बहुत देर तक वह अपने पैर आगे-पीछे ऊपर-नीचे करता रहा। उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था और बीच-बीच में उसे झपकी आ जा रही थी, पर झपकी आते ही कोई न कोई खटपट सुनाई दे जाती और चौंककर उसकी आँखें खुल जातीं। इसी तरह संघर्ष करते-करते कई घंटे बीत गए। इसी संघर्ष में वे लोगों की बातें, रोना-धोना और उमस भरी बदबू आत्मसात करता रहा। ट्रेन हर छोटे बड़े स्टेशन पर रुकती रही। इस सारी जद्दोजहद के बीच वह अपना असली दुःख भूलता रहा। उसे अचानक से पिताजी की याद आई और उसका माथा दर्द से चनकने लगा। उसने अपने बैग से कोई किताब निकालकर पढ़ने की कोशिश करनी शुरू कर दी, लेकिन एक-दो लाइन पढ़कर उसका दिमाग़ भटक जाता कि तभी किसी ने जली हुई आख़िरी बत्ती भी बुझा दी। डब्बे में इधर-उधर लोग ऊँघने लगे थे। कुछ देर और वह रात, अँधेरे, उमस, दुःख, बोरियत से जूझता रहा और अंत में उसकी आँख लग गई।

राघवन दरवाज़े पर कुर्सी डाले बैठा था। लोग़ बाहर से अंदर और अंदर से बाहर आ जा रहे थे। घर के अंदर औरतों के सुबकने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। उसके अंदर उठकर अंदर जाकर देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी। उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे उसे पता है लोग क्यों रो रहे हैं, लेकिन वह जानना नहीं चाहता था या शायद भूल गया था और याद दिलाया जाना नहीं चाहता था। कुर्सी पर बैठे-बैठे उसे जिन भी लोगों के चेहरे दिखाई दिए उन चेहरों पर एक अजीब तरह की गंभीरता थी। लोग उसे तिरछी निगाहों से देखकर चले जा रहे थे। किसी ने उससे उसका हाल-चाल भी नहीं पूछा और न ही उसने पलटकर किसी से उसका हाल-चाल पूछा था। वह शायद बहुत दिनों बाद घर आया था। लोग उसे जितना पहचानते थे, उतना ही भूल भी गए थे। उसके बाल काफ़ी बड़े-बड़े हो गए थे और दाढ़ी भी। वह शायद खुलकर रोना चाहता था। उसके भी मन में आ रहा था कि घर के अंदर जाए और औरतों के साथ मिलकर सुबकने लगे।

तभी किसी ने आकर उससे कहा, ‘‘राघवन बाबूजी नहीं रहे।’’

उठकर वह अपने भाइयों के साथ बग़ीचे की ओर चल पड़ा। बग़ीचे में पंडित जी बैठे थे। उन्हें खाने के लिए रसगुल्ला और नमकीन दिया गया। उन्होंने वहाँ एक चूल्हा बनाया था और उस पर बनाने के लिए कुछ रखा था। गाँव का हज्जाम पंडितजी और उसके बड़े भाई को कर्मकांड के निर्देश दे रहा था। बड़े भाई पिंड-दान की प्रक्रिया में थे। पंडितजी के खा लेने के बाद सबके बाल बनने थे। सबसे पहले बड़े भाई फिर चाचा ने बाल बनवाए। फिर उसकी बारी आई। हज्जाम ने जैसे ही बाल काटने को उसके सिर पर छुरा लगाया उसकी नींद खुल गई।

उसकी आँखें खुलीं तो ट्रेन की खिड़की से देखा कि गेंहूँ के एक हरे-भरे खेत में लाल, पीले, नीले, बैंगनी रंग के कपड़े पहने स्त्रियाँ काम कर रही थीं। सोहनी का मौसम था। आगे वाले खेत में एक आदमी छाता लिए कुछ जानवरों के साथ खड़ा था। उसकी नज़र रेल की पटरी पर पड़ी तो देखा कि एक छोटा-सा साँप पटरियों के नीचे से होकर आड़े-टेढ़े गुज़र रहा है। कुछ ही दूरी पर उसका गंतव्य स्टेशन है—मनकापुर। धूप-छाँह के मौसम में बादल रेलवे कॉलोनी के घरों पर छाया किए हुए थे।

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यहाँ प्रस्तुत कथा आदित्य शुक्ल द्वारा रचित ‘मृत्यु-कथा-त्रयी’ की दूसरी कथा है। पहली और तीसरी कथा क्रमशः यहाँ पढ़िए : मेरे लिए इक तकलीफ़ हूँ मैंग्रामदेवता