स्मृति-छाया के बीच करुणा का विस्तार

पूर्वकथन

किसी फ़िल्म को देख अगर लिखने की तलब लगे तो मैं अमूमन उसे देखने के लगभग एक-दो दिन के भीतर ही उस पर लिख देती हूँ। जी हाँ! तलब!! पसंद वाले अधिकतर काम तलब से ही तो होते हैं। लेकिन ‘लेबर डे’ को देखने के इतने दिनों (लगभग 40-50 दिनों) के बाद भी उस पर लिखा नहीं और लिखने की इच्छा ने जब पीछा नहीं छोड़ा तो शायद इस फ़िल्म से पीछा छुड़ाने के लिए लिखना जरूरी लगा।

और फ़िल्म देखने की रिकमेंडेशन जिसने भेजी थी उसमें लिखा था कि यह ‘ब्रिजेज़ ऑफ़ मैडिसन काउंटी’ के लीग की फ़िल्म है। अब  ‘ब्रिजेज़…’ मेरी फ़िल्म है। इसीलिए उत्सुकतावश इसे शुरू किया और फिर एक बार शुरू करने के बाद रुका नहीं गया। हालाँकि मेरे लिए यह फ़िल्म ब्रिजेज़… जैसी नहीं है फिर भी है तो उत्कृष्ट। यही वजह है जिससे 2013 में आई यह फ़िल्म तब भले ही बहुत ध्यान खींचने वाली, चार या अधिक स्टार वाली नहीं रही; लेकिन नेटफ्लिक्स पर आते ही इसकी ख़ूब चर्चा हुई।

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इस फ़िल्म का क्राफ़्ट, इसकी कहानी, इसका स्क्रीनप्ले, इसमें कलाकारों का अभिनय—अलग-अलग देखें तो ऐसा कुछ भी अद्भुत नहीं है जो आपको पकड़ ले, फिर भी इस फ़िल्म में एक ऐसी बात है जो आपको थामे रखती है। फ़िल्म देखने के बाद, देर तक मैं उस बात को ढूँढ़ती रही। क्या थी या है वह बात? तो वह है मूड। इस फ़िल्म में एक मूड है जो आपके मूड को कसकर पकड़ लेता है और फिर आप नॉस्टैल्जिया की एक दुनिया में टाइम ट्रैवलिंग करने लगते हैं। 2013 जिसे गुज़रे अब 9 साल बीत गए हैं, उसी 2013 में लगभग 28-30 साल का हेनरी बचपन से किशोरावस्था में जाती उम्र में घटित घटनाओं को फ़्लैशबैक में देख रहा है। 1985-86 के आस-पास के देश-काल में बनी हुई फ़िल्म में कहानी के स्तर पर तो बहुत सारी गड़बड़ियाँ हैं; लेकिन एक धीमी गति का जीवन, जिस पर बिछे अतीत की धूल की गहरी परत के पीछे से गर्मी की रोमानी दुपहरिया, एकदम थिर एकांत और एक ठहरा हुआ भावात्मक राग दिखता है। इस फ़िल्म की ख़ामियों से भरी कहानी की सबसे बड़ी ख़ूबी है कि यह अतीत की स्मृति-छाया और अपने ही मन के भावों के बीच मंथन में डूबी है।

यह दर्शक को बुलाती नहीं है, अपनी तरफ़ खींचती नहीं है, अगर दर्शक के भीतर कहानी के इस भावात्मक सघनता और स्मृति के संगुम्फन के बीच साँस लेने का साहस है तो वह धीरे-धीरे इसमें ख़ुद ही गुँथता जाता है।

‘लेबर डे’ एक बच्चे की नज़र से अपनी माँ की ज़िंदगी की कहानी है। और यह उस बच्चे हेनरी की भी कहानी है। एक बच्चा जो किशोर हो रहा है, जिसे अपनी माँ से ऐसा प्रेम है और वह उसके प्रति अपनी भावनाओं से इस क़दर भरा हुआ है कि उसमें असुरक्षा-बोध नहीं है। असुरक्षा-बोध एक ऐसा भाव है जिससे घिरकर अक्सर हम अपने लोगों की ज़िंदगी को मुश्किल बना देते हैं। असुरक्षा-बोध और अधिकार-भाव एक भूत की तरह हमारे ऊपर क़ब्ज़ा कर लेते हैं, फिर हम जिनसे प्रेम करते हैं; उनसे कोई और प्रेम करे, स्नेह सताए या उसका कोई हिस्सा ले ले—यह हमसे बर्दाश्त नहीं होता। बेटे की नई-नई बन रही सखी, उसे इस तरीक़े के प्रति उकसाती भी है; लेकिन संतोष की बात है कि वह नहीं बदलता है।

यह इस फ़िल्म की सबसे ख़ूबसूरत बात है कि 13 साल का किशोर उम्र में पाँव रखता बेटा चाहता है कि उसकी माँ को संपूर्णता में प्रेम मिले। इस फ़िल्म ने प्रेम का सबसे गहरा सबक़ यही दिया। बड़ा होता एक बेटा अपनी माँ से न सिर्फ़ प्रेम करता है, बल्कि उसके मन में गहरे यह चाहना भी है कि माँ को उसके हिस्से का प्रेम मिले, ऐसा जो उसके पिता से उसे अब नहीं मिलता है। प्रेम जो उदार बनाता है, विशाल हृदय देता है, वही उदार है। ईर्ष्या थोड़ी देर को सुख देती है कि हम इतने अहम हैं कि सामने वाला हमें लेकर ऐसा कर रहा है। कोई हमें किसी और का नहीं होने देना चाहता, ख़ुद का बनाए रखना चाहता है—यह बोध कुछ क्षण को सातवें आसमान पर ले जाता है, लेकिन यह लंबे समय तक हो तो किसी को भी घुटन होने लगती है। घुटन सिर्फ़ प्रेम में नहीं होती, बेबसी में भी होती है। यूँ तो प्रेम को लेकर यही मुख्य दो दृष्टियाँ हैं—एक मुक्त करने की, सबके प्रति उदार बनाने की और दूसरी ओर पजेशन या ईर्ष्यायुक्त अधिकार-भाव की। यह तो कोई व्यक्ति ख़ुद बता सकता है कि उस पर प्रेम का कौन-सा नशा असर करता है या चढ़ा हुआ है। किताबी लगने के बावजूद मैं कहूँगी कि वही काम्य है जो आपको हेनरी के जैसा बनाए। माँ को भी लेकर आप असुरक्षित न हों, बल्कि उसके जीवन में प्रेम अपनी संपूर्णता में आ सके; इसके लिए प्रयास कर सकें।

कोई संबंध कब चुक जाता है?

अडेल और उसके पति क्यों अलग हुए, अगर आप समझना चाहे तो बेहद अच्छे से समझ आ जाएगा। आवेग के धरातल पर जब हम जुदा हो जाते हैं तो फिर वह संबंध मर जाता है। उसकी जीवंतता नष्ट हो जाती है। यह बात हेनरी का पिता उसके काफ़ी बड़े होने के बाद उससे साझा करता है, पर यह बात तो फ़िल्म देखते हुए आपको ख़ुद भी समझ में आ सकती है कि दुख लोगों को नज़दीक भी लाता है और अलग भी कर देता है। कभी-कभी जीवन में ऐसा होता है कि एक ही क़िस्म का दुख दो लोगों पर अलग-अलग असर डालता है और जो प्रेम करते हैं, वे अपने प्रिय को दिनों-दिन शोक में डूबते देखने के अलावा कुछ नहीं कर पाते हैं। इस बेबसी में कुछ तो चुपचाप साथ देते हैं और कुछ नहीं बर्दाश्त करने की हालत में अलग भाग जाते हैं। भागने वालों को ग़लत नहीं समझना चाहिए। आसान नहीं होता प्रिय को हर ओर से गिरते और टूटते-बुझते देखना और अपने-आप को असहाय महसूस करते जाना। देखने के दर्द से बचने के लिए लोग ऐसा करते हैं, क्योंकि वे बाँट नहीं पाते।

ख़ैर! यह फ़िल्म माँ-बेटे, पति-पत्नी, बाप-बेटे और प्रेम के एक नए तरह के अनुभव से भरे कई संबंधों को उकेरती है। नायक (फ़्रैंक) एक अपराधी है, पर क्या उसने वास्तव में अपराध किया है? बेवफ़ा पत्नी से एक झड़प हो रही है, उसी क्रम में दुर्घटनावश उसकी मृत्यु हो जाती है और उस दुर्घटना के समय वह बच्चा (जिसका पितृत्व शक के दायरे में है) भी डूबकर मर जाता है। बच्चे के मरने की ग्लानि भरी स्मृति उसे बार-बार कचोटती है। ऐसा लगता है कि वह एक अच्छा आदमी है जो ग़लत वक़्त पर परिस्थितियों में फँसकर जेल चला गया। यूँ तो शुरू में एक कमज़ोर माँ-बेटे का फ़ायदा उठाना ही दिखता है, लेकिन पता नहीं होता कि जीवन में कब किस मोड़ पर प्रेम आपको पकड़ ले और फिर आप सबसे ज़्यादा मज़बूत और सबसे अधिक कमज़ोर एक ही वक़्त में हो उठते हैं।

शहर की बनावट से अलग-थलग रहने वाले इन दोनों—माँ-बेटे—के साथ रहना जेल से भागे और छिपे हुए अपराधी के लिए काफ़ी सुरक्षित है। चोट लगने की स्थिति में उसका जाना टलता रहता है और हेनरी को अपनी माँ के जीवन में वसंत का आगमन दिखने लगता है। एक वक़्त ऐसा आता है, जब तीनों मिलकर एक सुखी परिवार जैसा समय बिता रहे होते हैं और भविष्य के सुंदर सपनों के लिए योजनाएँ भी बनाते हैं।

कभी-कभी मुझे संदेह होता है कि ऐसा प्रेम क्या अभाव से उत्पन्न हुआ है? अगर आप अडेल और फ़्रैंक दोनों के जीवन को देखेंगे तो अभाव साफ़-साफ़ नज़र आएगा। एक क़ैदी जो क़ैद से भागा है। बरसों पहले वह जिस स्त्री के साथ प्रेम में था, उसने उसे वास्तव में प्रेम नहीं किया और अब तो वह लंबे समय से जेल में है। एक स्त्री जिसका एक बच्चा है और कई बच्चों को खोकर नितांत अकेला और लगभग निर्वासित जीवन जी रही है। ये दोनों जब मिलते हैं एक-दो दिन के भीतर दोनों प्रेम में पड़ जाते हैं, ऐसा लगता है मानो मिलते ही उनकी आत्मा ने एक दूसरे को परख लिया। क्या यह भी कह सकते हैं कि दोनों ने एक दूसरे के अभाव को पूरा किया? अगर उनका प्रेम तात्कालिक आवेग से परे लंबी दूरी और अकेलेपन के बड़े स्पेस को पार करके भी बचा नहीं रहता तो ऐसा ही कहा जा सकता था। लेकिन वह एक क्षण जो आपको महसूस करवा दे कि आप ज़िंदा हैं, आप जो महसूस कर रहे हैं वह जीवन में एक अद्भुत और सदा के लिए भर देने वाला अनुभव है। ऐसा एक क्षण भी जीवन में आए तो मानो जीवन संपूर्ण हो जाता है। शायद ऐसे ही एक क्षण का साक्षात्कार कर किसी और को लगा होगा कि यह ‘ब्रिजेज़…’ की फ़्रेंचेस्का की ही जैसी कहानी है है। यह वंस इन ए लाइफ़टाइम यानी जीवन-अवधि में एक बार मिलने वाला आवेगाकुल राग है, स्पर्श जिसे गहनता देते हैं और अनिश्चितकालीन दूरी दिल को मुट्ठी में निचोड़ देने वाली कसक से भर देती है।

फ़िल्म में पीच पाई बनाने का एक लंबा दृश्य है, यह दृश्य दैहिक प्रेम और स्पर्श की गहनता से भरा हुआ है। हालाँकि एक बच्चे की नज़र से अपनी माँ के इन प्रेम-दृश्यों को देखकर आप थोड़ा अटपटा भी महसूस कर सकते हैं। दरअस्ल, हमारे परिवेश और वांग्मय में यह उस तरीक़े से नहीं आता है, फिर भी इस फ़िल्म और ‘कॉल मे बाय योर नेम’ को देखकर पीच को आप अगर पैशन और दैहिकता का प्रतीक मान लें तो ग़लत नहीं होगा। गर्मियों की दुपहर का एक आत्मिक चित्रांकन, अकुलाहट से भरा और सुख में लिपटा हुआ यह दृश्य फ़िल्म के विजुअल डिलाइट्स में से एक है, एक छोटे से घर के भीतर दृश्य में कोई बहुत बदलाव नहीं हो सकता; लेकिन दरवाज़े के पीछे से मासूम हेनरी की आँखों से दिखता माँ का सुख मोहक लगता हुआ, एक ही समय में आपको प्रेम की उदात्तता और वात्सल्य भरे मोह से भर देता है।

देखिए, क्योंकि एक मूड में ले जाने के अलावा आपकी करुणा का विस्तार भी करती है—‘लेबर डे’।

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सुदीप्ति नई पीढ़ी की कवयित्री और गद्यकार हैं। उन्होंने वादा किया है कि वह ‘हिन्दवी’ के लिए सिनेमा पर अनियमित रूप से सही, पर लिखती रहेंगी। उनकी कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ सकते हैं : प्रेमिकाएँ