राजनीतिक हस्तक्षेप में उनका विश्वास था

फणीश्वरनाथ रेणु की विचारधारा उनकी भावधारा से बनी थी। उन्हें विचारों से अपने भावजगत की संरचना करने की विवशता नहीं थी। यही कारण था कि वह अमूर्त से सैद्धांतिक सवालों पर बहस नहीं करते थे। उनके विचारों का स्रोत कहीं बाहर—पुस्तकीय ज्ञान में—न था।

…राजनीतिक हस्तक्षेप में उनका विश्वास था। उनके मन में एक आशा पनप रही थी। और जब ऐसा कुछ हुआ, तो रेणु अचानक सक्रिय हो गए। …मानसिक क्षमताओं के प्रशिक्षण की बात पर वह मुस्कुराते। वह विश्वास करते थे कि प्रशिक्षण के लिए ज़िंदगी स्वयं एक पाठशाला है। उनका विश्वास था कि राजनीतिक पृष्ठभूमि के कलात्मक उपयोग के लिए कार्यकर्ता की दृष्टि का विसर्जन ज़रूरी है। इससे राजनीतिक पृष्ठभूमि स्वयं अपनी गतियों को अधिक क्षमता से और अधिक स्पष्टता धारण करती है। लेखकीय प्रतिबद्धता इससे आहत नहीं होती।

…रेणु जी प्रतिबद्धता को इतनी नाज़ुक चीज़ नहीं समझते थे कि उसके लिए गुहार की ज़रूरत पड़ती रहे। वह उसे लेखक और आदमी की अविभाज्य नैतिकता मानते थे। पर साथ ही मैंने यह भी पाया था कि कतिपय राजनीतिक गतिविधियों से वह बेहद निराशा का अनुभव करते थे। …उनका विचार था कि भारत में किसी शाब्दिक ढंग की वामपंथी एकता के बदले हमें जनता के बीच की एकता के आधारों को पहचानना चाहिए।

…पर उन्हें अपने विश्वासों ने भी कम निराश नहीं किया। इसे मोहभंग न कहा जाए तो क्या कहा जाए? जिस उत्साह और सक्रियता के साथ वह सन् ‘74 के आंदोलन में शरीक हुए थे और जिस प्रकार वह उससे प्रेरित हो रहे थे, उसे बाद की स्थितियों ने जिस हद तक झुठलाया, उससे गहरी मानसिक निराशा उत्पन्न होना स्वाभाविक था।

रेणु का मोहभंग हुआ।

भारतीय राजनीति में नेतापंथी तत्त्व की वास्तविकता क्रांति से बड़ी हो जाए, यह एक दुर्घटना थी। यह रेणु के जीवन का सकरुण इतिहास बन गया।

रेणु जानते थे कि एशियाई देशों में, कृषि-उत्पादन में बृद्धि और सामाजिक न्याय, दोनों को एक-दूसरे की प्रगति में योगदान करना है। पूरा ढाँचा इस योग में बाधक है। इस ढाँचे को बदले बग़ैर कोई प्रगति नहीं होगी। मगर जब तक ढाँचा बदल नहीं जाता, तब तक गाँव सोया रहे, इससे हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है?

…लोकतंत्र और संपूर्ण क्रांति के अनिवार्य और ऐतिहासिक संबंधों को लेकर उनकी समझ स्पष्ट थी। यह समझ व्यावहारिक अधिक थी, सैद्धांतिक कम।

…वह इस तंत्र की मानसिक बनावट को ज़्यादा अच्छी तरह समझते थे। लोकतंत्र के बिना सामाजिक न्याय संभव नहीं है। मगर हम जिस लोकतंत्र में हैं, वह एक प्रकार का राज्यतंत्र है। फिर भी वह पुराने तंत्र की अपेक्षा अधिक गतिशील है। इस तंत्र के दोनों पक्षों पर उनकी सावधान दृष्टि थी। यही कारण है कि इस तंत्र की निरंकुशता के विरुद्ध जब संघर्ष प्रारंभ हुआ तो वह उसकी अगली क़तार में आ गए—नेता की तरह नहीं, कार्यकर्ता की तरह।

वह जनता की शक्ति में विश्वास करते थे। नेतृत्व के संबंध में वह अवश्य इतने आश्वस्त न थे। यही कारण है कि संपूर्ण क्रांति के संदर्भ में वह तमाम तथाकथित क्रांतिकारी शक्तियों की एकता को लेकर कभी आश्वस्त न हो सके थे। मगर अपनी इस भावना को उन्होंने रणनीति के ऊपर कभी नहीं थोपा। वह जानते थे कि इससे आंदोलन में बाधाएँ आएँगी और उसकी भावनात्मक शक्ति क्षीण होगी।

जयप्रकाश नारायण के क्रांतिकारी व्यक्तित्व और कर्त्तव्य में उनकी आस्था लगभग ध्रुव थी।

…‘परती परिकथा’ में विस्तार से प्रस्तुत कुबेर सिंह और जितेंद्र के संबंध में वामपंथी एकता को लेकर उनकी टकराहटों की चर्चा कई दृष्टियों से महत्त्व की हो जाती है। कांग्रेस के राजनीतिक प्रभुत्व को तोड़े बिना यह संभव न होता। पर क्या इस एकाधिकार को केवल अकेली पार्टी-शक्ति पराजित कर सकती है? वामपंथी शक्तियों की एकता के पीछे यही समझ कार्य करती दिखाई पड़ती है।

रेणु कम्युनिस्ट न थे, पर उनका समाजवाद इस अर्थ से ज्यादा नीति-निपुण और उदार था। फ़्रांस और इटली के अनुभवों से उनकी वामपंथी एकता की समझ पुष्ट होती थी।

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साहित्य अकादेमी से प्रकाशित विनिबंध ‘फणीश्वरनाथ रेणु’ (लेखक :  सुरेन्द्र चौधरी) के अध्याय : ‘एक अंतर्कथा’ से।