‘दिल्ली की साहित्य-मंडी से अब कुछ नहीं जन्मेगा’

वह कहानियाँ, उपन्यास और इतिहास लिखते हैं। लेकिन इधर के उनके रचनाकर्म में बतौर एक कथाकार और इतिहासकार दोनों से ही अलग एक नए क़िस्म की बेचैनी है। इसके लिए उन्होंने विधागत कुछ नए प्रारूप गढ़े हैं जिनके माध्यम से वह अपनी साहित्य-चिंताओं के साथ साहित्य की राजनीति और उसमें आई गिरावट को दर्ज कर रहे हैं।

हिंदी का लाइव काल

भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की मासिक पत्रिका ‘आजकल’ ने अपने दिसम्बर-2020 अंक को ‘डिजिटल मंच पर हिंदी साहित्य’ विषय पर केंद्रित किया है। इस प्रसंग में एक प्रश्नावली मुझे भी इस आग्रह के साथ ई-मेल की गई कि मैं इस अवसर के लिए आयोजित परिचर्चा का हिस्सा बनूँ।

वक़्त की विडम्बना में कविता की तरह

कवि आत्मकथा कम ही लिखते हैं। उनकी जीवनियाँ भी कम ही लिखी जाती हैं। मंगलेश डबराल (1948-2020) ने भी आत्मकथा नहीं लिखी। लेकिन उनके गद्य के आत्मपरक अंश और उनके साक्षात्कारों को एक तरफ़ करके, अगर हम उनकी पूरी ज़िंदगी और जीवन-मूल्यों को जानते-समझते हुए उनके कविता-संसार में प्रवेश करें; तब हम पाएँगे कि मंगलेश डबराल ने आत्मकथा लिखी है।

र. स. के लिए

हिंदी साहित्य में दिसम्बर र. स. का महीना है। र. स. यानी रघुवीर सहाय। वह 1929 में 9 दिसम्बर को जन्मे और 1990 में 30 दिसम्बर को नहीं रहे। आज अगर वह सदेह हमारे बीच होते तब नब्बे बरस से अधिक आयु के होते, लेकिन जैसा कि ज़ाहिर है तीस बरस पहले ही उनका देहांत हो गया।

‘सारी मानवीयता दाँव पर लगी है’

साक्षात्कार या संवाद के शिल्प में नहीं इस साक्षात्कार या संवाद की शुरुआत आज से क़रीब चार वर्ष पूर्व हुई। मुलाक़ातों और सवालों के सिलसिले इसमें जुड़ते और नए होते चले गए। सवालों के जवाब देने और उन्हें माँजने के लिए यहाँ पर्याप्त वक़्त लिया गया। प्रत्येक जवाब पर एक रचना की तरह कार्य किया गया है। यह प्रयास और धैर्य अपनी ओर से आ रहे शब्दों के प्रति एक रचनाकार की ज़िम्मेदारी और नैतिकता को दर्शाता है।

‘लेकिन’, ‘शायद’, ‘अगर’ नहीं…

कोई जिया नहीं पकी हुई फसलों की मृत्यु…

‘मैं ऊँचा होता चलता हूँ’

यह लेख उनके लिए नहीं है जो मुक्तिबोध को जानते हैं, यह लेख उनके लिए है जो मुक्तिबोध को जानना चाहते हैं…

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