वक़्त की विडम्बना में कविता की तरह

कवि आत्मकथा कम ही लिखते हैं। उनकी जीवनियाँ भी कम ही लिखी जाती हैं। मंगलेश डबराल (1948-2020) ने भी आत्मकथा नहीं लिखी। लेकिन उनके गद्य के आत्मपरक अंश और उनके साक्षात्कारों को एक तरफ़ करके, अगर हम उनकी पूरी ज़िंदगी और जीवन-मूल्यों को जानते-समझते हुए उनके कविता-संसार में प्रवेश करें; तब हम पाएँगे कि मंगलेश डबराल ने आत्मकथा लिखी है।

प्यास के भीतर प्यास

विजयदेव नारायण साही के आलोचक-व्यक्तित्व की कहानी यहाँ नहीं, भदोही से सुनी जानी चाहिए। समाजवादी आंदोलन, क़ालीन मज़दूरों के संगठन, सोशलिस्ट पार्टी के सम्मेलनों और शिक्षण-शिविरों के ज़रिए सक्रिय राजनीतिक कर्म की प्रत्यक्षता ने उन्हें ऐसा आत्मविश्वास दिया कि वह आलोचना को राजनीति से स्वायत्त कर सके।

‘आलम किसू हकीम का बाँधा तिलिस्म है’

मैं इलाहाबाद, बनारस होते हुए दिल्ली पहुँचा; और मुझ तक पहुँचती रहीं कविताओं से भरी हुई हिंदी की छोटी-बड़ी अनगिनत पत्रिकाएँ। मैं हर जगह अपने वय के कवियों से जुड़ा रहा। बहुत से कवियों को उनकी पहली कविता से जानता हूँ। कई को उनके पहले सार्वजनिक पाठ से। कई कवियों की कविताओं के हर ड्राफ़्ट से वाक़िफ़ हूँ।

मैंने हिंदी को क्यों चुना

मैं अब सबके साथ होते हुए भी अकेला महसूस करती थी। ऐसा नहीं है कि मेरे पास दोस्तों की कमी थी, लेकिन मैं उन सबके बीच में होते हुए भी उन लोगों को अपने दिल की बात नहीं बता पा रही थी।

एक बड़ा फ़ुटबॉलर नहीं रहा

यह हमारे एक हिस्से का माराडोना है। ये क़िस्से हमारे एक हिस्से के माराडोना की श्रद्धांजलि के इस्तेमाल के लिए हैं।

बिल्लियों के नौ जीवन पाप से भरे हैं

लोक जब कुत्तों, गायों और घोड़ों को पालतू बना रहा था; तब बिल्लियाँ मनुष्य को पालतू बना रही थीं। कैट्स डोमेस्टिकेटेड ह्यूमन!

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