एक नैतिक उपदेश

भूख और भोजन कुछ इस प्रकार के विषय हैं कि इन पर नैतिक उपदेशों की कोई कमी नहीं है। लेकिन यह समय नैतिकता और उपदेश दोनों के लिए ही कठिन है। इसकी पड़ताल की जानी चाहिए कि बाल-बच्चेदारों और गृह-त्यागियों दोनों ने ही नैतिकता और उपदेश से सलीक़े का मामला रखना बंद क्यों कर दिया!

स्मृति-छाया के बीच करुणा का विस्तार

किसी फ़िल्म को देख अगर लिखने की तलब लगे तो मैं अमूमन उसे देखने के लगभग एक-दो दिन के भीतर ही उस पर लिख देती हूँ। जी हाँ! तलब!! पसंद वाले अधिकतर काम तलब से ही तो होते हैं। लेकिन ‘लेबर डे’ को देखने के इतने दिनों (लगभग 40-50 दिनों) के बाद भी उस पर लिखा नहीं और लिखने की इच्छा ने जब पीछा नहीं छोड़ा तो शायद इस फ़िल्म से पीछा छुड़ाने के लिए लिखना जरूरी लगा।

चलो भाग चलते हैं

ये सच है कि हम हमारे गढ़े हुए तमाम संबोधनों को, दो वर्ण वाले तुकांत शब्दों को; जी नहीं पाएँगे। घर से भाग नहीं पाएँगे। भागने की तमाम वजहें हैं, हम दोनों के पास। हालाँकि भाग जाने के लिए एक वजह ही काफ़ी है। मैं तुम्हें ये नहीं समझाऊँगा कि बंदिशों और विवशताओं में कितना अंतर होता है।

‘भक्त भगवानों से लगातार पूछ रहे हैं कविता क्या है’

व्योमेश शुक्ल के अब तक दो कविता संग्रह, ‘फिर भी कुछ लोग’ और ‘काजल लगाना भूलना’ शाया हुए हैं—जिनमें तक़रीबन सौ कविताएँ हैं, कुछ ज़्यादा या कम। इन दोनों संग्रहों की‌ कविताओं पर पर्याप्त बातचीत-बहस हो चुकी है। व्योमेश जी के कवि पर भी ख़ासी बातचीत हिंदी के परिसर में होती रहती है। कविता पढ़ने के अपने शुरुआती समय से ही व्योमेश जी को मैं पढ़ता रहा हूँ और मुतासिर रहा हूँ।

उदास दिनों की पूरी तैयारी

छत पर जूठा था अमरूद। एक मिट्टी का दिया जिसमें सुबह, सोखे हुए तेल की गंध आती थी। कंघी के दांते टूट गए। आईने पर साबुन के झाग के सूखे निशान हैं। दहलीज़ पर अख़बारों का गट्ठर। चिट्ठीदान में नहीं पढ़ी गई चिट्ठियाँ। चाय का आख़िरी घूँट फेंक दिया गया। सूरज छत की बाम पे लोट गया। रात गिरने ही वाली थी कि ठिठक गयी लैम्पपोस्ट और ट्रैफ़िक सिग्नल की गोद में।

सृजनात्मकता के क्षितिज

रचनात्मक व बौद्धिक हस्तक्षेप के सहकारी उपक्रम ‘संगमन’ का 24वाँ संस्करण गत 12-13 नवंबर को चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) में आयोजित हुआ। इस बार का विषय रहा—‘सृजनात्मकता के क्षितिज’। दो दिनों में तीन सत्रों में संपन्न हुए इस आयोजन में 30 से अधिक लेखकों-कलाकारों की भागीदारी रही, जिन्हें रचनात्मक और बौद्धिक व्याकुलताओं से भरे श्रोताओं की भरपूर उपस्थिति ने बहुत ध्यान से सुना-समझा। संवाद के शिल्प में घटित ‘संगमन’ ने इस बार विषय, तकनीक से तालमेल और गरिमा के स्तर पर मौलिक, नए और अभूतपूर्व आयाम स्पर्श किए।

अक्टूबर किसी चिड़िया के बिलखने की आवाज़ है

मैं तुम्हारे नाम लिखा गया एक प्रेमपत्र था, जिसे अधूरा पढ़कर छोड़ दिया गया। लेकिन इसके अक्षरों पर जितनी बार तुम्हारी अबोध उँगलियाँ फिरीं, एक लोमहर्षक धुन गुँथती चली गई। वह धुन इस उदास अक्टूबर का विरह संगीत है। यह जिया हुआ संगीत, जो मेरी आत्मा पर बार-बार बजता है। इसे अनसुना कर पाना ख़ुद को नकारने जैसा है।

जीवन अपने भाग्य के ख़िलाफ़ आमरण अनशन है

मैं कुछ ना कुछ ऐसा करता रहता हूँ कि मुझे अपने आप से कोफ़्त होने लगती है। यही कोफ़्त फिर एक हँसी में बदल जाती है। पिछले बीस दिनों से डायरी का एक पन्ना भी नहीं लिखा। सोचा था कि खूब लिखूँगा। लेकिन सब सोचा हुआ ही रह गया। हाँ, कुछ छोटी-मोटी कविताएँ लिखीं। कुछ ख़ास पढ़ा भी नहीं। जबकि पढ़ना चाहिए था। राखी भी आकर चली गई और पंद्रह अगस्त भी।

इलाहाबाद मेरे लिए यूटोपिया में तब्दील होता जा रहा है

इलाहाबाद मेरे लिए यूटोपिया में तब्दील होता जा रहा है। वह गड्ढों-दुचकों भरा ढचर-ढूँ शहर जहाँ ढंग की कोई जीविका तक नहीं जुटा पाए हम; आज मुझे अपने स्पर्श, रूप, रस, गंध और स्वाद में सराबोर कर रहा है।

एक उपन्यास लिखने के बाद

उपन्यास के बारे में वैसे अब तक इतना कुछ कहा जा चुका है कि जब उसका—अपनी सीमा भर—मैंने अध्ययन किया, तब पाया कि सब कुछ बहुत विरोधाभासग्रस्त है। मैंने शोर के कंकड़-पत्थर, अल्फ़ाज़ों की चाँदी और ख़ामोशी के स्वर्ण से भरे हुए कितने ही उपन्यास देखे-पलटे-पढ़े। उन्होंने सामान्य और विशेष दोनों ही रूपों में मुझे प्रभावित और अंतर्विरोधयुक्त किया।

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