मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ

मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ तो हमेशा लाल रंग की कलम या हाईलाइटर साथ में रखता हूँ। जो भी कोई शब्द, पंक्ति या परिच्छेद महत्त्वपूर्ण लग जाए या पसंद आ जाए वहाँ बेरहमी से क़लम या हाईलाइटर चला देता हूँ—चाहे किताब कितनी भी महँगी और साफ़-सुथरी हो। हाँ, यह हरकत हमेशा केवल अपनी ही किताबों में करता हूँ। सफ़र तक के लिए भी जब किताब निकालता हूँ तो साथ में लाल क़लम या हाईलाइटर रखना नहीं भूलता। पढ़ते वक़्त कुछ बात मन में कौंधती है तो उसे भी उसी पृष्ठ के किनारे पर लिख डालता हूँ। ऐसा करते मैंने और भी लोगों को देखा है।

एक लेखक को किन चीज़ों से बचना चाहिए?

न समझे जाने के डर से—एक लेखक पर यह दबाव बहुत बड़ा होता है कि उसका लिखा ठीक उसी तरह समझा जाए जिस तरह वह लिख रहा है। आसान ज़ुबान में लिखने की सलाह इसी से निकलती है। लेकिन लेखक को कई बार वह भी कहना होता है जिसे समझने के लिए कोशिश करनी पड़े, संवेदना और विचार के नए इलाक़ों में जाना पड़े। ऐसा कुछ कह सकने के लिए लेखक को इस डर से मुक्त होना होगा कि पता नहीं उसका लिखा समझा जाएगा या नहीं।

समय प्रश्नमय

एक नई सामुदायिक साहित्यिकता निर्मित हो रही है, जिसमें अत्यंत युवा अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। इस उमड़ते-घुमड़ते आस्फोट के लिए लेखक संगठनों की अंतर्कलह और उसमें व्याप्त औसतपन और अहंवाद और गिरोहवाद और वैचारिक जड़ताएँ बहुत कारगर नहीं हो सकतीं। नई उच्छलता नए निर्माण-बोध के साथ आगे आ रही है। उस पर बेवजह का संदेह क्यों किया जाए।

सभी ज़ुबानों को सुनते रहिए

कभी-कभी मेरे पास कुछ व्यक्तिगत संदेश आ जाते हैं कि भाषा सुधारने में मैं उनकी कुछ मदद करूँ। अनुमान है कि ये संदेश युवाओं से आते होंगे, जिनके पास मुझसे बहुत अधिक ऊर्जा और नई दृष्टि है। मैं क्या जवाब दूँ?—जिसकी भाषा ख़ुद इतनी बिगड़ी हुई हो, वह दूसरे की क्या सुधारेगा? मेरी साहित्य या भाषाओं में कोई शिक्षा न हो सकी। स्वाध्याय भी कुछ न हो पाया। अब तो समय भी इतना नहीं बचा। अपने उन अँधेरों में मैंने जो किया, वह आपसे बाँट सकता हूँ।

रचना में नया क्या

बहुत आसानी से कहा जा सकता है कि रचना में नई अंतर्वस्तु और उसका विन्यास ही नया माना जाएगा। सवाल उठता है कि नई अंतर्वस्तु क्या है? रचना में नई महत्त्वाकांक्षाओं को नया माना जा सकता है, जिसके प्रतिफल नई संरचना और नया रूप-विधान हो सकते हैं—नई कला और नई असहमति और पुराने की नई तरह से पहचान—आविष्कार और उद्भावना।

वह आवाज़ हर रात लौटती है

तवायफ़ मुश्तरीबाई के प्यार में पड़े असग़र हुसैन से उनके दो बेटियाँ हुई—अनवरी और अख़्तरी, जिन्हें प्यार से ज़ोहरा और बिब्बी कहकर बुलाया जाता। बेटियाँ होने के तुरंत बाद ही, असग़र हुसैन ने अपनी दूसरी बीवी, मुश्तरीबाई को छोड़ दिया। उस मुश्किल घड़ी में मुश्तरीबाई को अपनी दोनों बेटियों के साथ ख़ूब संघर्ष करना पड़ा। वे मासूम-जान, जब चार बरस की हुई तो कहीं से ज़हरीली मिठाई खा ली। उनकी तबीयत ख़राब होने लगी। दोनों को अस्पताल ले गए, जहाँ ज़ोहरा ने दम तोड़ दिया। लेकिन बिब्बी जैसे-तैसे बच गई।

हिंसा ही नहीं है हिंदी

कौन नहीं जानता कि समय के विभिन्न चरणों और दौरों में एक ही भाषा अत्यंत प्रगतिशील और धुर प्रतिगामी विचारों की संवाहिका हो सकती है। ऐसा भी होता है कि एक साथ कितनी ही भाव-धाराएँ एक भाषा में सचल और सक्रिय रहती हैं। इसमे कोई दो मत नहीं कि इस समय हिंदी को घृणा-भाषा के तौर पर प्रभूत तरीक़े से इस्तेमाल किया जा रहा है। वह बाँटने का उपकरण बन गई है। उसे अनाधुनिकता के वितरण और विस्तार के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। उसे ज्ञान विरुद्ध अंधता का एजेंट बना दिया गया है। लेकिन क्या इस आधार पर उसकी यह ब्रांडिंग ठीक होगी कि हिंदी मूलतः घृणा के प्रत्ययन और क्रियात्मकता की भाषा है।

शहर, अतीत और अंत के लिए

अतीत जो आपके कई सारे अंत से मिलकर बना है, यह आपको इंसान होने का एहसास दिलाता रहता है… आपको भावुक करके, क्रोधित करके, आप छटपटा सकते हैं; क्योंकि आपके हाथ में कुछ नहीं है—सिवाय याद करने के—इसलिए याद करते रहिए—अपने बचपन का अंत, स्कूल के दिनों का अंत, हर उस रिश्ते का अंत जिसमें आप प्रेम महसूस करते थे। अंत से जुड़े रहिए, इंसान बने रहिए।

गद्य की स्वरलिपि का संधान

हिंदी के काव्य-पाठ को लेकर आम राय शायद यह है कि वह काफ़ी लद्धड़ होता है जो वह है; वह निष्प्रभ होता है, जो वह है, और वह किसी काव्य-परंपरा की आख़िरी साँस गोया दम-ए-रुख़सत की निरुपायता होता है। आख़िरी बात में थोड़ा संदेह हो भी तो यह मानने में क्यों कोई मुश्किल हो कि मनहूसियत उसमें निबद्ध होती है। वह डार्क और स्याह होता है। इसकी वजह क्या यह है कि हिंदी में कविताएँ ही अक्सर डार्क होती हैं।

मैं लेखकों की तरह नहीं लिख सकता

यात्रा का कोई सिरा नहीं होता, जैसे जीवन का—यह बात उस समय और अधिक साफ़ हो जाती है, जब हम उन रास्तों से गुज़रते हैं, जो देहरादून के पहाड़ों के बदन को चीर कर बनाए गए हैं। ये रास्ते पहाड़ों की नस जान पड़ते हैं और उन पर रेंगने वाली दुनिया—उन नसों में दौड़ता ख़ून। यहाँ चारों दिशाएँ एक दिशा की तरफ़ जाती हुई प्रतीत होती हैं। कहीं खड़े हो जाओ तो समूची प्रकृति आपके मुक़ाबले में खड़ी नज़र आती है और मन में कोई आतंक-सा जन्म लेता है—ख़ुद को ‘एलियनेट’ पाने का आतंक।

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