‘रेशमा हमारी क़ौम को गाती हैं, किसी एक मुल्क को नहीं’

थळी से बहावलपुर, बहावलपुर से सिंध और फिर वापिस वहाँ से अपने देस तक घोड़े, ऊँट आदि का व्यापार करना जिन जिप्सी परिवारों का कामकाज था; उन्हीं में से एक परिवार में रेशमा का जन्म हुआ। ये जिप्सी परिवार क़बीलाई ढंग से अपना सामान लादे आवाजाही करते और इस आवाजाही में साथ देता उनकी ज़मीन का गीत। उन्हीं परिवारों में से एक परिवार में जन्मी ख्यात कलाकार रेशमा।

बोंगा हाथी की रचना और कालिपद कुम्भकार

यदि कालिपद कुम्भकार को किसी जादू के ज़ोर से आई.आई.टी. कानपुर में पढ़ाने का मौक़ा मिला होता तो बहुत सम्भव है कि आज हमारे देश में कुम्हारों के काम को, एक नई दिशा मिल गई होती। हो सकता है कि घर-घर में फिर से मिट्टी के पात्र इस्तेमाल में आ जाते। या कि हम दुनिया के सबसे बड़े टेराकोटा एक्सपोर्टर होते, कुछ भी सम्भव हो सकता था यदि कालिपद कुम्भकार जैसे खाँटी दिमाग़ को एक ज़्यादा बड़ी दुनिया, ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी से दो- चार होने का मौक़ा मिलता।

भूलने की कोशिश करते हुए

सारी आत्महत्याएँ दुनिया छोड़ने के मक़सद से या मर जाने के मक़सद से नहीं की जातीं। हम भूलना चाहते हैं, चाहते हैं कि इतनी ताक़त हासिल कर पाएँ कि साँस लेना भूल जाएँ। एक ऐसी बात भूलना चाहते हैं जिसे भूलने का विकल्प नहीं होता। स्मृति इच्छा-मृत्यु माँगती है, लेकिन पा नहीं सकती।

आज की कविता के सरोकार तथा मूल्यबोध

मैं गद्य का आदमी हूँ, कविता में मेरी गति और मति नहीं है; यह मैं मानता हूँ और कहता भी हूँ फिर भी यह इच्छा हो रही है कि आज की कविता के सरोकार तथा मूल्यबोध के बारे में कुछ स्याही ख़र्च करूँ। इस अनाधिकार चेष्टा में अंतर्निहित समस्त संभावित त्रुटियों के लिए अग्रिम रूप से क्षमाप्रार्थी हूँ।

दुस्साहस का काव्यफल

व्यक्ति जगद्ज्ञान के बिना आत्मज्ञान भी नहीं पा सकता। अगर उसका जगद्ज्ञान खंडित और असंगत है तो उसका अंतर्संसार द्विधाग्रस्त और आत्मपहचान खंडित होगा। आधुनिक युग की क्रियाशील ताक़तें मनुष्य के जगद्ज्ञान को नियंत्रित करके उसके आत्मपहचान को बदलने की कोशिश करती थीं। चाहे पूँजीवाद हो या साम्यवाद—हर पक्ष की मूल कार्ययोजना यही थी। लेकिन उस आत्मपहचान में एक अन्विति, सममिति, मुकम्म्लपन और कंसिस्टेंसी थी—ठीक आधुनिक वास्तुकला की तरह। उस अन्विति ने ही न्यूनतम सामाजिक सहमति पर महत्तर राजकीय संस्थाओं की रचना की और उन्हें मुकम्मल सहमति जुटाने का कार्यभार सौंपा।

उम्मीद अब भी बाक़ी है

रवि भाई एक बार बातों-बातों में बतलाए कि भाई, आजकल के युवा कवि अपनी कविता की कमज़ोरियों पर बातें ही नहीं करना चाहते। यदि बातें करो तो आप उनके शत्रु बन जाओ। मुझे पता था कि रवि भाई कविता के कला-पक्ष की तुलना में जन-पक्ष की तरफ ज़्यादा ध्यान देते थे। वह कहते थे कि कविता को आम जन की भाषा के नज़दीक आना चाहिए। कविता के सुपाच्य होने की वे लगातार वकालत करते रहते थे। कविता आसानी से संप्रेषित हो जाए। इसके लिए नए पाठकों का निर्माण और युवा कवियों को प्रोत्साहन देने के लिए ही ‘कवि संगम’ की परिकल्पना उन्होंने की। पहली बार देश भर से चालीस कवियों को उन्होंने निमंत्रित किया। तीस कवियों की उपस्थिति रही।

ग्रामदेवता

यह गाँव मेरा संपूर्ण भूगोल है, मेरी संपूर्ण पृथ्वी है। मैं इस पर हर जगह, हर क़दम नृत्य करना चाहता हूँ। मैं इस घर की परिक्रमा करूँगा कहकर—वह घर की परिक्रमा करने लगे। जब दरवाज़े से थोड़ा नीचे उतरते तो नाली के पास आकर ठिठक जाते। ज़मीन से कुछ उठाते-से और दूर फेंक देते फिर आगे बढ़ जाते। बच्चे उनके पीछे हो-हो करके जाते, वह घुड़ककर पीछे देखते तो वे वापस लौट आते फिर वह आगे बढ़ जाते। उनकी परिक्रमा संपूर्ण थी, ठीक दरवाज़े से निकलते, नाली पर करके पीछे की गली में घुसते बग़ीचे में पहुँचकर कुछ पल रुकते और ऊपर पेड़ों की डालियों-पत्तों-फलों को ध्यान से देखते और बंकिम मुस्कान छोड़ देते।

शोकयात्रा

मी कोच हर ट्रेन का वह डब्बा होता है जो ग़मी (प्रियजन की मृत्यु) के यात्रियों के लिए आरक्षित होता है। इसी साल की शुरुआत में रेलमंत्री ने हर ट्रेन में एक अतिरिक्त कोच जोड़े जाने की घोषणा की। इस कोच में बैठने के लिए लोगों को पहले से कोई आरक्षण की ज़रूरत नहीं रहती। इस कोच में बैठने के लिए आपके पास ग़मी की सूचना का सबूत होना चाहिए। मसलन कोई टेक्स्ट मैसेज, ई-मेल या व्हाट्सएप्प मैसेज; हालाँकि इसमें भी फ्रॉड की संभावना तो बनी ही रहती है।

मेरे लिए इक तकलीफ़ हूँ मैं

पिछले कुछ महीनों से उसने अपने बाल बढ़ा लिए थे, माथे पर जूड़ा बाँधने लगा था और ख़ुद को ख़ुद ही उष्णीष कहने लगा था। पिछले कुछ समय से वह बीमार हो चला है। उसके चेहरे का हिस्सा ठीक से काम नहीं कर रहा। उसकी एक आँख झपकती ही नहीं। चेहरा अजीब विद्रूप दीखता है। कंप्यूटर के सामने बैठा वह मेज़ पर रखे बुद्ध की छोटी-सी पिंगल प्रतिमा को निर्निमेष देखता। तनाव, दुःख और क्षोभ उस पर हावी हो रहे हैं। उसने कंप्यूटर की ब्लैक स्क्रीन में अपना चेहरा देखा। फिर अजीब-अजीब तरह की भंगिमा बनाकर ख़ुद को निहारता रहा।

दुनिया के बंद दरवाज़ों को शब्दों से खोलता साहित्यकार

हिंदी के वरिष्ठ आलोचक, कवि और संपादक रामनिहाल गुंजन इस साल नवंबर में 86 साल के हो जाते। उनका जन्म पटना ज़िले के भरतपुरा गाँव के एक कृषक परिवार में 9 नवंबर 1936 को हुआ था। रामनिहाल गुंजन के दादा आर्थिक कारणों से सपरिवार अपने ससुराल आरा आ गए थे और यहीं मालगुज़ारी पर ज़मीन लेकर खेती करने लगे थे। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए रामनिहाल गुंजन बताते हैं, ‘‘पहले तो मैं पढ़ने से भागता था और अपने बचपन के दोस्त सादिक़ के साथ घूमा-फिरा करता था, लेकिन जब उसका भी स्कूल में नाम लिखवा दिया गया; तब मुझे भी मजबूरन पढ़ने जाना पड़ा।’’ 1950 में उनका दाख़िला आरा टाउन स्कूल में हुआ। यहीं उनमें हिंदी साहित्य के प्रति अभिरुचि जागृत हुई। स्कूल के बग़ल में ही बाल हिंदी पुस्तकालय था, जहाँ उन्हें पढ़ने के लिए पुस्तकें मिलीं। इसी दौरान उन्होंने साहित्य सृजन की शुरुआत की।

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