आदिवासी अंचल की खोज

आज यह सोचकर विस्मय होता है कि कभी मार्क्सवादी आलोचना ने नई कविता पर यह आक्षेप किया था कि ये कविताएँ ऐंद्रिक अनुभवों के आवेग में सामाजिक अनुभवों की उपेक्षा करती हैं। आज आधी सदी बाद जब काव्यानुभव में इंद्रियानुभव की हिस्सेदारी पर विचार करें तो मामला एकदम विपरीत मिलेगा।

चोट

बुधवार की बात है, अनिरुद्ध जांच समिति के समक्ष उपस्थित होने का इंतजार कर रहा था। चौथी मंजिल पर जहां वह बैठा था, उसके ठीक सामने पारदर्शी शीशे की दीवार थी। दफ्तर की यह दीवार इतनी साफ-शफ़्फ़ाक थी कि मई महीने की जलती लू भी भीतर आ जाना चाहती थी। शीशे की दीवार ने दोपहर की तपिश के रंग को जरा हल्का कर दिया था।

उदास शहर की बातें

इन दिनों अजीब-सी बेरुख़ी है, मार्च महीने की हवा चुभ रही है। ख़ुद से लड़ाई बढ़ती चली जा रही है। जब लड़ाई ख़ुद से हो तो जीतने में कोई रस नहीं रहता, क्योंकि जो हार रहा होता है; उसमें भी हमारा होना बचा होता है।

होली है आनंद की

फूलों में काँटे भी होते हैं। कुछ नीची प्रकृति के लोग यदि बेहूदे स्वाँग भरते हों या गंदे इशारे करते हों तो आश्चर्य नहीं है। उससे होली की पवित्रता में कुछ दोष नहीं आता है। इससे उल्टी लोगों की परीक्षा हो जाती है। कुछ लोग होली के दिन अधिक शराब पीकर शराबी की ख़राबी दिखाते हैं। होटलों और दूकानों पर पीकर सभा में आकर शराब के विरुद्ध लेक्चर देने वालों से यह लोग तब भी भले हैं।

तुम गर्मी की सबसे सुंदर शुरुआत

बरस दर बरस घुमक्कड़ी मेरे ख़ून में घुलती जा रही है। ये यायावर सड़कें मुझसे दोस्ती पर फ़ख़्र करती हैं। इन ख़ाली सड़कों पर कोई मेरा इंतजार करता रहता है। उसका कोई भविष्य नहीं है और न ही अतीत! एक सजग वर्तमान है उसके पास। इसी जुगत में सारा जग जाग रहा है। धूप चढ़ते ही मैं उससे मिलूँगी—एयरपोर्ट रोड पर, जहाँ दोनों ओर बोगनवेलिया के गहरे रानी रंग के फूल और उतने ही गहरे हरे रंग के पत्ते मेरा और उसका स्वागत करेंगे।

इक्कीसवीं सदी की स्त्री-कविता : 2

वह दौर जब स्त्री-कवियों के नाम शुरू होते ही समाप्त हो जाते थे, अब विचार का अकादमिक विषय हो चुका है। अब हमारा सामना हिंदी कविता की एक बिल्कुल नई सृष्टि से है, जहाँ एक नई स्त्री है—अपनी बहुसंख्य अभिव्यक्तियों के साथ।

कोशिश मत करो

बेहतर ज़िंदगी का नुस्ख़ा ज़्यादा की चिंता में नहीं है; फ़ालतू चीज़ों पर ध्यान देने में है, सिर्फ़ वास्तविक और उस समय के लिए ज़रूरी बात पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए।

लोक के जीवन का मर्म

एक तरफ़ ऐसी सभ्यता बनाई जा रही है, जहाँ एकल परिवार का आदर्श भी अब बीते समय की बात हो चुकी है। परिवारमात्र की धारणा टूट रही है, अब व्यक्ति के अपने उपभोग-कामनाओं में आत्मेतर व्यक्ति भार सरीखा है। दूसरी ओर मिथिलेश का परिवार बहुत बड़ा है। वह परिवार की धारणा व उसके सौंदर्य को और विस्तार दे रहे हैं। इसमें पति-पत्नी-बच्चों की कौन कहे; नानी-नाना, पशु-पक्षी और पेड़-पौधे तक शामिल हैं। मिथिलेश का यह घर संसार का सबसे आत्मीय वृत्त है। यह संसार से ख़ुद को काटने वाली चहारदीवारी नहीं, बल्कि अपने गिर्द संसार से संश्रय का आत्मीय अवकाश है।

कहीं जाने की इच्छा (के) लिए

मैं बहुत दिनों से एक जगह जाना चाहता हूँ। इन दिनों मेरे पास इतना अवकाश नहीं रहता कि कुछ ज़रूरी कामों के अलावा भी मैं कुछ और कर सकूँ, लेकिन उस जगह का आकर्षण ऐसा दुर्निवार है कि किसी अन्य काम में मेरा मन एकदम नहीं लगता। आलम यह है कि मैं सो नहीं पाता जब मुझे याद आती है कि मुझे वहाँ जाना है।

हमारी इच्छाएँ हमारा परिचय हैं

यह सोचकर कितना सुकून मिलता है कि जिसे हम अपनी अस्ल ज़िंदगी में नहीं पा सके उसे एक दिन भाषा में पा लेंगे या भाषा में जी लेंगे या उसे एक दिन भाषा में जीने का मौक़ा ज़रूर मिलेगा। मुझे लगता है कि भाषा एक तरह से अंतिम विकल्प है। अंतिम समाधान। अंतिम शरणस्थल। भाषा एक तिजोरी है, जहाँ हम अपनी तमाम इच्छाओं, सपनों और कामनाओं को सुरक्षित रख सकते हैं।

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