प्रति-रचनात्मकता : रचनात्मकता का भ्रम और नया समाजशास्त्र

तकनीक और सुविधाओं के इस भँवरजाल में जीते हुए हमने अपना समयबोध और रचनाबोध दोनों ही गँवा दिया है, ऐसा जान पड़ता है। सूचनाएँ हम तक इतनी तीव्र गति से पहुँचती हैं कि हम अभी पुरानी सूचना को पचा ही पाएँ, तब तक एक नई सूचना हमारे सामने होती है। घटनाएँ, दुर्घटनाएँ तक टिकती नहीं; जैसे सब कुछ किसी तीव्र गति के प्रवाह में हो और इसकी गति को नियंत्रित ही न किया जा सके?

कविता सीढ़ियों नहीं, छलाँगों की राह है

कविता अगर यह व्रत ले ले कि वह केवल शुद्ध होकर जिएगी, तो उस व्रत का प्रभाव कविता के अर्थ पर भी पड़ेगा, कवि की सामाजिक स्थिति पर भी पड़ेगा, साहित्य के प्रयोजन पर भी पड़ेगा।

दो दीमकें लो, एक पंख दो

हमारी भाषा में कहानी ने एक बहुत लंबा सफ़र तय किया है। जो कहानियों के नियमित पाठक हैं, जानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी में कहानी का जैसे पुनर्जन्म हुआ है। हिंदी की कहानी अब विश्वस्तरीय है और इतनी विविधता उसमें है कि जो पाना चाहें वह आज की कहानियों में मिल सकता है—कहन का अनूठा अंदाज़, दृश्यों का रचाव, कहानी का नैसर्गिक ताना-बाना, सधा हुआ, संतुलित, निर्दोष शिल्प और इन सबके संग जीवन की एक मर्मी आलोचना।

साथ एक बड़ी चीज़ है

ये बातें अगर अपने बचपन के साथियों या माता-पिता से कहूँगा, तब वे इन पंक्तियों को सिर्फ़ पंक्तियों की तरह पढ़ेंगे या सुनेंगे नहीं। उनके अपने अनुभव और संवेदनाएँ उनके साथ जुड़ती जाएँगी। हो सकता है, जिसका आपकी दृष्टि में कोई मूल्य न हो पर जिसने वह वक़्त जिया है, जो उसका साक्षी रहा है, जिसके अनुभव में वे दिन आए हैं, उसके लिए यह बात बहुत भावुक कर जाने वाली गली की तरह खुलता हुआ रास्ता हो सकती है।

वह क्यों मेरा सरनेम जान लेना चाहता है

घड़ी की सुइयाँ रुक गई हैं। वक़्त अब भी बीत रहा है। हम यहाँ बैठे हैं। वक़्त के साथ-साथ हम भी बीत रहे हैं। हम रोज़ सुबह उठते हैं और रात को सो जाते हैं। वक़्त से आधा घंटा देर से खाना खाते हैं। रात देर तक फ़ोन से चिपके रहते हैं। इस पूरी दिनचर्या में एक वक़्त ऐसा नहीं जाता, जब इस घड़ी के बारे में न सोच रहे हों। लेकिन पाँच मिनट निकालकर इस घड़ी में सेल डाल सकने की इच्छा को उगने नहीं दे रहे हैं।

दिल्ली एक हृदयविदारक नगर है

असद ज़ैदी की कविताओं के बनने की प्रक्रिया एकतरफ़ा नहीं है। आप उसे जितनी बार पढ़ेंगे, वह आपके अंदर फिर से बनेगी और अपनी ही सामग्री में से हर बार कुछ नई चीज़ों की आपको याद दिलाएगी कि आप उन्हें अपने यहाँ खोजें—और वे आपके यहाँ पहले से मौजूद या तुरंत तैयार मिलेंगी।

बनारस : आत्मा में कील की तरह धँसा है

बनारस के छायाकार-पत्रकार जावेद अली की तस्वीरें देख रहा हूँ। गंगा जी बढ़ियाई हुई हैं और मन बनारस में बाढ़ से जूझ रहे लोगों की ओर है, एक बेचैनी है। मन अजीब शै है। दिल्ली में हूँ और मन बनारस में है। यह कभी भी, कहीं भी हो सकता है और अगर कहीं न हों तो अन्यमनस्क होकर जीना दूभर कर सकता है।

क्या पता बच ही जाऊँ

वह अपने साथियों के साथ भागता फिर रहा था। उसे शक था कि पुलिस देखते ही इन सबका एनकाउंटर कर देगी। उसने सोशल मीडिया पर अपने कई वीडियो अपलोड किए थे और लोगों से समर्थन की गुज़ारिश की थी। बदले में उसका सोशल मीडिया एकाउंट फ़ेक मानते हुए बंद कर दिया गया था। वह चाहता था कि मैं अपने चैनल में किसी तरह से इस बात की संभावना बनाऊँ कि उसके फ़ेवर में एक पॉज़िटिव ख़बर चलाई जा सके।

सपनों वाला घर और मेरा झोला

मैं घर से ख़ाली हाथ निकलना चाहता था। पर वो घर ही क्या जो ख़ाली हाथ निकल जाने दे। जब मैं बाहर के लिए निकल रहा था तो घर ने कहा कि ये झोला लेते जाओ। इसमें तुम्हारे रास्ते का सामान है। मैंने घर की तरफ़ मना करने के लिए देखा, पर घर के चेहरे पर इतनी तरह के भाव एक साथ थे कि मैंने कुछ नहीं कहा। मैंने झोला थाम लिया।

उमस भरी जुलाई में एक इलाहाबादी डाकिया

मैं सपने में अक्सर उड़ती हुई चिट्ठियाँ देखता हूँ। वे जादुई ढंग से लहराते हुए हवा में खुलती हैं और कई बार अपने लिखने वालों में बदल जाती है। तब मुझे उनकी तरह तरह की आँखें दिखाई पड़ती हैं। मैंने इन्हीं चिट्ठियों में दुनिया भर की आँखें देख रखी हैं। उनकी गहराई, उनके भीतर के सपने या उदासी, भरोसा या मशीनी सांत्वना, उनकी कोरों पर अटके हुए आँसू, सूखे हुए कीचड़… सब कुछ मैंने इतनी बार और इतनी तरह से देखा है कि अब बेज़ार हो गया हूँ। मेरे भीतर की आग बुझ गई है। उसकी राख मेरी ही पलकों पर गिरती रहती है।

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