इक्कीसवीं सदी की स्त्री-कविता

हिंदी में उपस्थित स्त्री-कविता का यह स्वर्णकाल है। इस संभव-साक्ष्य को पाने के लिए हमारी भाषा बेहद संघर्ष करती रही है। स्त्री कवियों की संख्या का विस्तार अब इस क़दर है कि उन्होंने पूरे काव्य-दृश्य को ही अपनी आभा से आच्छादित किया हुआ है।

‘तथता’ के रास्ते ‘इयत्ता’ की खोज

यह कथा अलग-अलग तरीक़ों से सुनाई जाती रही है। तरह-तरह के विद्वानों ने इस कथा के श्रोत/तों की ओर इशारा किया है, पर हमारे सामने सवाल इस कथा की अनुवांशिकी खोजने का नहीं है। सवाल यह है कि एक कथा कविता में कैसे बदलती है? क्यों बदलती है?

पुकार, जो अनंत कामनाओं का अक्षत जंगल है

कविता शब्द-संभवा है। कविता शब्दों के ज़रिए ही संभव होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी ‘कविता क्या है’ में लिखा है कि कविता शब्दों का व्यापार है। इसलिए शब्द कवि के सबसे महत्त्वपूर्ण औज़ार होते हैं।

कोरोना समय में हिंदी कविता

साल 2019 के आख़िरी महीने में दृश्य में आई कोरोना महामारी ने गत वर्ष सारे संसार को प्रभावित और विचलित किया। साहित्य का संसार भी इस आपदा से अछूता नहीं रहा। संसार की कई भाषाओं में इस दरमियान कोरोना-केंद्रित साहित्य रचा गया।

‘भाषा से प्रेम अब कम हुआ है’

इस संसार में—साहित्य और कलाओं के संसार में—एक बहुत सक्रिय और संपन्न आयु जी चुके अशोक वाजपेयी के साक्षात्कारों की हिंदी में कोई कमी नहीं है। वे पुस्तकों के रूप में, संकलनों और पत्रिकाओं में हद से ज़्यादा फैले हुए हैं। बावजूद इसके उनसे बात करने की आकांक्षाएँ बराबर बनी हुई हैं—तमाम असहमतियों के रहते। इस प्रकार के व्यक्तित्व हिंदी के सांस्कृतिक इलाक़े में पहले भी कम ही थे, अब भी कम ही हैं और लगातार कम होते जा रहे हैं।

पहचान की ज़मीन पर

वीरू सोनकर के पास कविता में घूरकर देखने का ‘हुनर’ भले कम हो, साहस की कमी नहीं है। यह साहस ही इस कवि के लिए कविता में संभावनाएँ और दुर्घटनाएँ लेकर आता है। उसके भीतर का ग़ुस्सा संग्रह की तमाम कविताओं में मद्धम-मुखर दिखाई पड़ेगा।

‘मेरी सारी कविताएँ मेरे प्रेम की कविताएँ हैं’

नरेश सक्सेना एक ऐसे विलक्षण कवि हैं, जिन्हें अपनी लगभग समग्र काव्य-पंक्तियाँ और उनके स्रोत याद हैं। वह कविता में ‘कम’ के पक्षधर हैं, लेकिन वार्तालाप में बेहद मुखर हैं; इतने कि सारे प्रश्न पहले से ही जान लेना चाहते हैं।

पुरुषों की दुनिया में स्त्री

मेरी समझ से हर पाठक की कविता से अपनी विशिष्ट अपेक्षाएँ होती हैं। ये अपेक्षाएँ कई बार बहुत मनोगत और अकथनीय भी हो सकती हैं। मैं आपकी तो नहीं कह सकता, लेकिन अपनी सुना सकता हूँ।

‘क़र्ज़ किस-किस नज़र के हम पर हैं’

सुधांशु फ़िरदौस (जन्म : 1985) का वास्ता इस सदी में सामने आई हिंदी कविता की नई पीढ़ी से है। गत वर्ष उनकी कविताओं की पहली किताब ‘अधूरे स्वाँगों के दरमियान’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक पर एक आलेख ‘हिन्दवी ब्लॉग’ पर प्रकाशित हो चुका है। इसके साथ ही सुधांशु फ़िरदौस इसक-2021 के कवि भी हैं।

इक्कीस के इक्कीस कवि

हिन्दवी ने इसक को अपनी मुख्य योजना में सम्मिलित किया है। यह हमारा वार्षिक आयोजन होने जा रहा है। इसकी शुरुआत इसक-2021 से हो रही है।

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