हिंसा ही नहीं है हिंदी

कौन नहीं जानता कि समय के विभिन्न चरणों और दौरों में एक ही भाषा अत्यंत प्रगतिशील और धुर प्रतिगामी विचारों की संवाहिका हो सकती है। ऐसा भी होता है कि एक साथ कितनी ही भाव-धाराएँ एक भाषा में सचल और सक्रिय रहती हैं। इसमे कोई दो मत नहीं कि इस समय हिंदी को घृणा-भाषा के तौर पर प्रभूत तरीक़े से इस्तेमाल किया जा रहा है। वह बाँटने का उपकरण बन गई है। उसे अनाधुनिकता के वितरण और विस्तार के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। उसे ज्ञान विरुद्ध अंधता का एजेंट बना दिया गया है। लेकिन क्या इस आधार पर उसकी यह ब्रांडिंग ठीक होगी कि हिंदी मूलतः घृणा के प्रत्ययन और क्रियात्मकता की भाषा है।

शहर, अतीत और अंत के लिए

अतीत जो आपके कई सारे अंत से मिलकर बना है, यह आपको इंसान होने का एहसास दिलाता रहता है… आपको भावुक करके, क्रोधित करके, आप छटपटा सकते हैं; क्योंकि आपके हाथ में कुछ नहीं है—सिवाय याद करने के—इसलिए याद करते रहिए—अपने बचपन का अंत, स्कूल के दिनों का अंत, हर उस रिश्ते का अंत जिसमें आप प्रेम महसूस करते थे। अंत से जुड़े रहिए, इंसान बने रहिए।

गद्य की स्वरलिपि का संधान

हिंदी के काव्य-पाठ को लेकर आम राय शायद यह है कि वह काफ़ी लद्धड़ होता है जो वह है; वह निष्प्रभ होता है, जो वह है, और वह किसी काव्य-परंपरा की आख़िरी साँस गोया दम-ए-रुख़सत की निरुपायता होता है। आख़िरी बात में थोड़ा संदेह हो भी तो यह मानने में क्यों कोई मुश्किल हो कि मनहूसियत उसमें निबद्ध होती है। वह डार्क और स्याह होता है। इसकी वजह क्या यह है कि हिंदी में कविताएँ ही अक्सर डार्क होती हैं।

बोंगा हाथी की रचना और कालिपद कुम्भकार

यदि कालिपद कुम्भकार को किसी जादू के ज़ोर से आई.आई.टी. कानपुर में पढ़ाने का मौक़ा मिला होता तो बहुत सम्भव है कि आज हमारे देश में कुम्हारों के काम को, एक नई दिशा मिल गई होती। हो सकता है कि घर-घर में फिर से मिट्टी के पात्र इस्तेमाल में आ जाते। या कि हम दुनिया के सबसे बड़े टेराकोटा एक्सपोर्टर होते, कुछ भी सम्भव हो सकता था यदि कालिपद कुम्भकार जैसे खाँटी दिमाग़ को एक ज़्यादा बड़ी दुनिया, ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी से दो- चार होने का मौक़ा मिलता।

‘प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है’

सविता सिंह के इस संग्रह की कविताओं में करुण भाव के साथ-साथ हम जीवन के प्रति एक निसंग भाव भी महसूस करते चलते हैं। ऐसी मनःस्थिति अक्सर जीवन के प्रति एक गहरे लगाव के बाद किसी गहरे आघात से पैदा होती है। लेकिन इस निसंगता का अर्थ अवसाद एवं कर्तव्य विमुखता नहीं है। यह ज़िंदगी के संघर्षों से पलायन नहीं है।

दुस्साहस का काव्यफल

व्यक्ति जगद्ज्ञान के बिना आत्मज्ञान भी नहीं पा सकता। अगर उसका जगद्ज्ञान खंडित और असंगत है तो उसका अंतर्संसार द्विधाग्रस्त और आत्मपहचान खंडित होगा। आधुनिक युग की क्रियाशील ताक़तें मनुष्य के जगद्ज्ञान को नियंत्रित करके उसके आत्मपहचान को बदलने की कोशिश करती थीं। चाहे पूँजीवाद हो या साम्यवाद—हर पक्ष की मूल कार्ययोजना यही थी। लेकिन उस आत्मपहचान में एक अन्विति, सममिति, मुकम्म्लपन और कंसिस्टेंसी थी—ठीक आधुनिक वास्तुकला की तरह। उस अन्विति ने ही न्यूनतम सामाजिक सहमति पर महत्तर राजकीय संस्थाओं की रचना की और उन्हें मुकम्मल सहमति जुटाने का कार्यभार सौंपा।

ग्रामदेवता

यह गाँव मेरा संपूर्ण भूगोल है, मेरी संपूर्ण पृथ्वी है। मैं इस पर हर जगह, हर क़दम नृत्य करना चाहता हूँ। मैं इस घर की परिक्रमा करूँगा कहकर—वह घर की परिक्रमा करने लगे। जब दरवाज़े से थोड़ा नीचे उतरते तो नाली के पास आकर ठिठक जाते। ज़मीन से कुछ उठाते-से और दूर फेंक देते फिर आगे बढ़ जाते। बच्चे उनके पीछे हो-हो करके जाते, वह घुड़ककर पीछे देखते तो वे वापस लौट आते फिर वह आगे बढ़ जाते। उनकी परिक्रमा संपूर्ण थी, ठीक दरवाज़े से निकलते, नाली पर करके पीछे की गली में घुसते बग़ीचे में पहुँचकर कुछ पल रुकते और ऊपर पेड़ों की डालियों-पत्तों-फलों को ध्यान से देखते और बंकिम मुस्कान छोड़ देते।

शोकयात्रा

मी कोच हर ट्रेन का वह डब्बा होता है जो ग़मी (प्रियजन की मृत्यु) के यात्रियों के लिए आरक्षित होता है। इसी साल की शुरुआत में रेलमंत्री ने हर ट्रेन में एक अतिरिक्त कोच जोड़े जाने की घोषणा की। इस कोच में बैठने के लिए लोगों को पहले से कोई आरक्षण की ज़रूरत नहीं रहती। इस कोच में बैठने के लिए आपके पास ग़मी की सूचना का सबूत होना चाहिए। मसलन कोई टेक्स्ट मैसेज, ई-मेल या व्हाट्सएप्प मैसेज; हालाँकि इसमें भी फ्रॉड की संभावना तो बनी ही रहती है।

मेरे लिए इक तकलीफ़ हूँ मैं

पिछले कुछ महीनों से उसने अपने बाल बढ़ा लिए थे, माथे पर जूड़ा बाँधने लगा था और ख़ुद को ख़ुद ही उष्णीष कहने लगा था। पिछले कुछ समय से वह बीमार हो चला है। उसके चेहरे का हिस्सा ठीक से काम नहीं कर रहा। उसकी एक आँख झपकती ही नहीं। चेहरा अजीब विद्रूप दीखता है। कंप्यूटर के सामने बैठा वह मेज़ पर रखे बुद्ध की छोटी-सी पिंगल प्रतिमा को निर्निमेष देखता। तनाव, दुःख और क्षोभ उस पर हावी हो रहे हैं। उसने कंप्यूटर की ब्लैक स्क्रीन में अपना चेहरा देखा। फिर अजीब-अजीब तरह की भंगिमा बनाकर ख़ुद को निहारता रहा।

नई कविता नई पीढ़ी ही नहीं बनाती

किसी भी समय की कविता हो, उस कविता में आने वाले परिवर्तन या उस नई कविता का चेहरा केवल उस समय आई नई पीढ़ी के कवि ही नहीं बनाते हैं। उससे पहले के जो कवि हैं, जो लिख रहे होते हैं, वह भी कहीं न कहीं उसको बनाते हैं। यह नहीं है कि जो सत्तर के दशक से या उससे भी पहले से जो रचनाकार लिखते हुए आ रहे थे, उनका इस नई सदी की कविता का चेहरा-मोहरा बनाने में कोई योगदान नहीं है।

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