दुनिया के बंद दरवाज़ों को शब्दों से खोलता साहित्यकार

हिंदी के वरिष्ठ आलोचक, कवि और संपादक रामनिहाल गुंजन इस साल नवंबर में 86 साल के हो जाते। उनका जन्म पटना ज़िले के भरतपुरा गाँव के एक कृषक परिवार में 9 नवंबर 1936 को हुआ था। रामनिहाल गुंजन के दादा आर्थिक कारणों से सपरिवार अपने ससुराल आरा आ गए थे और यहीं मालगुज़ारी पर ज़मीन लेकर खेती करने लगे थे। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए रामनिहाल गुंजन बताते हैं, ‘‘पहले तो मैं पढ़ने से भागता था और अपने बचपन के दोस्त सादिक़ के साथ घूमा-फिरा करता था, लेकिन जब उसका भी स्कूल में नाम लिखवा दिया गया; तब मुझे भी मजबूरन पढ़ने जाना पड़ा।’’ 1950 में उनका दाख़िला आरा टाउन स्कूल में हुआ। यहीं उनमें हिंदी साहित्य के प्रति अभिरुचि जागृत हुई। स्कूल के बग़ल में ही बाल हिंदी पुस्तकालय था, जहाँ उन्हें पढ़ने के लिए पुस्तकें मिलीं। इसी दौरान उन्होंने साहित्य सृजन की शुरुआत की।

आदिवासी अंचल की खोज

आज यह सोचकर विस्मय होता है कि कभी मार्क्सवादी आलोचना ने नई कविता पर यह आक्षेप किया था कि ये कविताएँ ऐंद्रिक अनुभवों के आवेग में सामाजिक अनुभवों की उपेक्षा करती हैं। आज आधी सदी बाद जब काव्यानुभव में इंद्रियानुभव की हिस्सेदारी पर विचार करें तो मामला एकदम विपरीत मिलेगा।

चोट

बुधवार की बात है, अनिरुद्ध जांच समिति के समक्ष उपस्थित होने का इंतजार कर रहा था। चौथी मंजिल पर जहां वह बैठा था, उसके ठीक सामने पारदर्शी शीशे की दीवार थी। दफ्तर की यह दीवार इतनी साफ-शफ़्फ़ाक थी कि मई महीने की जलती लू भी भीतर आ जाना चाहती थी। शीशे की दीवार ने दोपहर की तपिश के रंग को जरा हल्का कर दिया था।

उदास शहर की बातें

इन दिनों अजीब-सी बेरुख़ी है, मार्च महीने की हवा चुभ रही है। ख़ुद से लड़ाई बढ़ती चली जा रही है। जब लड़ाई ख़ुद से हो तो जीतने में कोई रस नहीं रहता, क्योंकि जो हार रहा होता है; उसमें भी हमारा होना बचा होता है।

होली है आनंद की

फूलों में काँटे भी होते हैं। कुछ नीची प्रकृति के लोग यदि बेहूदे स्वाँग भरते हों या गंदे इशारे करते हों तो आश्चर्य नहीं है। उससे होली की पवित्रता में कुछ दोष नहीं आता है। इससे उल्टी लोगों की परीक्षा हो जाती है। कुछ लोग होली के दिन अधिक शराब पीकर शराबी की ख़राबी दिखाते हैं। होटलों और दूकानों पर पीकर सभा में आकर शराब के विरुद्ध लेक्चर देने वालों से यह लोग तब भी भले हैं।

तुम गर्मी की सबसे सुंदर शुरुआत

बरस दर बरस घुमक्कड़ी मेरे ख़ून में घुलती जा रही है। ये यायावर सड़कें मुझसे दोस्ती पर फ़ख़्र करती हैं। इन ख़ाली सड़कों पर कोई मेरा इंतजार करता रहता है। उसका कोई भविष्य नहीं है और न ही अतीत! एक सजग वर्तमान है उसके पास। इसी जुगत में सारा जग जाग रहा है। धूप चढ़ते ही मैं उससे मिलूँगी—एयरपोर्ट रोड पर, जहाँ दोनों ओर बोगनवेलिया के गहरे रानी रंग के फूल और उतने ही गहरे हरे रंग के पत्ते मेरा और उसका स्वागत करेंगे।

कहीं जाने की इच्छा (के) लिए

मैं बहुत दिनों से एक जगह जाना चाहता हूँ। इन दिनों मेरे पास इतना अवकाश नहीं रहता कि कुछ ज़रूरी कामों के अलावा भी मैं कुछ और कर सकूँ, लेकिन उस जगह का आकर्षण ऐसा दुर्निवार है कि किसी अन्य काम में मेरा मन एकदम नहीं लगता। आलम यह है कि मैं सो नहीं पाता जब मुझे याद आती है कि मुझे वहाँ जाना है।

हमारी इच्छाएँ हमारा परिचय हैं

यह सोचकर कितना सुकून मिलता है कि जिसे हम अपनी अस्ल ज़िंदगी में नहीं पा सके उसे एक दिन भाषा में पा लेंगे या भाषा में जी लेंगे या उसे एक दिन भाषा में जीने का मौक़ा ज़रूर मिलेगा। मुझे लगता है कि भाषा एक तरह से अंतिम विकल्प है। अंतिम समाधान। अंतिम शरणस्थल। भाषा एक तिजोरी है, जहाँ हम अपनी तमाम इच्छाओं, सपनों और कामनाओं को सुरक्षित रख सकते हैं।

सात युवाओं का नज़रिया

नई पीढ़ी के लेखन से ही हिंदी साहित्य और समाज को नई ऊर्जा मिलेगी। उसे पता है कि बाजार के लिए लिखना बाज़ारू होना नहीं है। विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय युवा अपनी न केवल अपनी अस्मिता को लेकर सजग हैं, बल्कि अपनी ज़िम्मेदारी को भी बख़ूबी समझ रहे हैं। वे उन ख़तरों से भी गहरे वाक़िफ़ हैं जिनको खत्म किए बिना समाज लोकतांत्रिक और समावेशी नहीं हो सकता।

एक ख़त मैकॉले के नाम

श्रीमान मैकॉले साहब, आप मुझे नहीं जानते। जानेंगे भी कैसे? आपके और मेरे बीच वक़्त का फ़ासला बहुत ज़्यादा है। इसे घड़ी की सुइयों से नहीं नापा जा सकता। इस फ़ासले में काल के सैकड़ों भँवर हैं।

ट्विटर फ़ीड

फ़ेसबुक फ़ीड