प्रेम, दुर्घटना, छत और बीते दिन…

प्रेम जितना बराबर की चीज़ महसूस होता है, उतना है नहीं। हमें लगता है, हम बराबर चलेंगे। पर कभी बराबर चलते नहीं। हमारे प्रेम का आदर्श लैला-मजनूँ हुआ करते हैं। हममें से आधे मजनूँ हो जाना चाहते हैं। चाहते हैं कि किसी को इस हद तक इश्क़ करें कि क़ुर्बान हो जाएँ। पर उतनी न तो हिम्मत हममें हुआ करती है, न जुनून।

इस वर्ष के इक्कीस कवि

वर्ष 2021 में हमने ‘हिन्दवी’ पर ‘इसक’ के अंतर्गत ऐसे 21 कवियों की कविताएँ प्रस्तुत कीं, जिन्होंने गए इक्कीस वर्षों में हिंदी कविता संसार में अपनी अस्मिता और उपस्थिति को पाया और पुख़्ता किया। इसक—यानी ‘इक्कीसवीं सदी की कविता’ का संक्षिप्त रूप—की परिकल्पना को प्रकट और स्पष्ट करते हुए गत वर्ष हमने कहा था कि इसक हमारी मुख्य योजनाओं में सम्मिलित है और यह हमारा वार्षिक आयोजन होने जा रहा है। इस प्रसंग में ही अब प्रस्तुत है—’इसक-2022′

अथ ‘स्ट्रेचर’ कथा

यह सच है कि मानवीय संबंधों की दुनिया इतनी विस्तृत है कि उस महासमुद्र में जब भी कोई ग़ोता लगाएगा उसे हर बार कुछ नया प्राप्त होने की संभावना क़ायम रहती है। बावजूद इसके एक लेखक के लिए इन्हें विश्लेषित या व्यक्त करते वक़्त यह इतना सरल नहीं हो पाता।

प्रसिद्धि की विडंबना

प्रसिद्धि के साथ एक मज़े की बात यह है कि जब तक प्रत्यय की तरह इसके साथ विडंबना नहीं जुड़ती, तब तक इसके छिपे हुए अर्थ हमारे सामने पूरी तरह उजागर नहीं होते। लेकिन इससे भी ज़्यादा मज़े की बात शायद यही हो सकती कि ज़्यादातर मामलों में विडंबना शोहरत का पीछा करने में ज़्यादा देर भी नहीं लगाती।

रोशनी की प्रजाएँ

दीपावली अर्थात् नन्हे-नन्हे दीपकों का उत्सव। रोशनी के नन्हे-नन्हे बच्चों का उत्सव! ‘जब सूर्य-चंद्र अस्त हो जाते हैं तो मनुष्य अंधकार में अग्नि के सहारे ही बचा रहता है।’ ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ के ऋषि का यह बोध हमारे दैनिक अनुभव के मध्य होता है। एक-एक नन्हा दीपक सूर्य, चंद्र और अग्नि का प्रतिनिधि बनकर हमारे घरों… continue reading

अक्टूबर हर पेड़ का सपना है

वह पतझड़ का मौसम था। सारी पत्तियों ने उस पेड़ का साथ छोड़ दिया था। मुझे लगा मेरा मन उस पेड़ पर लगी कोई ताज़ा हरे रंग की पत्ती है, जिसके साथ का सपना पेड़ हर अक्टूबर में देखता है।

प्रति-रचनात्मकता : रचनात्मकता का भ्रम और नया समाजशास्त्र

तकनीक और सुविधाओं के इस भँवरजाल में जीते हुए हमने अपना समयबोध और रचनाबोध दोनों ही गँवा दिया है, ऐसा जान पड़ता है। सूचनाएँ हम तक इतनी तीव्र गति से पहुँचती हैं कि हम अभी पुरानी सूचना को पचा ही पाएँ, तब तक एक नई सूचना हमारे सामने होती है। घटनाएँ, दुर्घटनाएँ तक टिकती नहीं; जैसे सब कुछ किसी तीव्र गति के प्रवाह में हो और इसकी गति को नियंत्रित ही न किया जा सके?

कविता सीढ़ियों नहीं, छलाँगों की राह है

कविता अगर यह व्रत ले ले कि वह केवल शुद्ध होकर जिएगी, तो उस व्रत का प्रभाव कविता के अर्थ पर भी पड़ेगा, कवि की सामाजिक स्थिति पर भी पड़ेगा, साहित्य के प्रयोजन पर भी पड़ेगा।

दो दीमकें लो, एक पंख दो

हमारी भाषा में कहानी ने एक बहुत लंबा सफ़र तय किया है। जो कहानियों के नियमित पाठक हैं, जानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी में कहानी का जैसे पुनर्जन्म हुआ है। हिंदी की कहानी अब विश्वस्तरीय है और इतनी विविधता उसमें है कि जो पाना चाहें वह आज की कहानियों में मिल सकता है—कहन का अनूठा अंदाज़, दृश्यों का रचाव, कहानी का नैसर्गिक ताना-बाना, सधा हुआ, संतुलित, निर्दोष शिल्प और इन सबके संग जीवन की एक मर्मी आलोचना।

वह क्यों मेरा सरनेम जान लेना चाहता है

घड़ी की सुइयाँ रुक गई हैं। वक़्त अब भी बीत रहा है। हम यहाँ बैठे हैं। वक़्त के साथ-साथ हम भी बीत रहे हैं। हम रोज़ सुबह उठते हैं और रात को सो जाते हैं। वक़्त से आधा घंटा देर से खाना खाते हैं। रात देर तक फ़ोन से चिपके रहते हैं। इस पूरी दिनचर्या में एक वक़्त ऐसा नहीं जाता, जब इस घड़ी के बारे में न सोच रहे हों। लेकिन पाँच मिनट निकालकर इस घड़ी में सेल डाल सकने की इच्छा को उगने नहीं दे रहे हैं।

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