एक नैतिक उपदेश

भूख और भोजन कुछ इस प्रकार के विषय हैं कि इन पर नैतिक उपदेशों की कोई कमी नहीं है। लेकिन यह समय नैतिकता और उपदेश दोनों के लिए ही कठिन है। इसकी पड़ताल की जानी चाहिए कि बाल-बच्चेदारों और गृह-त्यागियों दोनों ने ही नैतिकता और उपदेश से सलीक़े का मामला रखना बंद क्यों कर दिया!

एक उपन्यास लिखने के बाद

उपन्यास के बारे में वैसे अब तक इतना कुछ कहा जा चुका है कि जब उसका—अपनी सीमा भर—मैंने अध्ययन किया, तब पाया कि सब कुछ बहुत विरोधाभासग्रस्त है। मैंने शोर के कंकड़-पत्थर, अल्फ़ाज़ों की चाँदी और ख़ामोशी के स्वर्ण से भरे हुए कितने ही उपन्यास देखे-पलटे-पढ़े। उन्होंने सामान्य और विशेष दोनों ही रूपों में मुझे प्रभावित और अंतर्विरोधयुक्त किया।

हिंदी में विश्व कविता का विश्व

गत सौ वर्षों की हिंदी कविता पर अगर एक सरसरी तब्सिरा किया जाए और यह जाँचने-जानने का यत्न किया जाए कि हमारी हिंदी दूसरी भाषाओं में उपस्थित सृजन के प्रति कितनी खुली हुई है, तब यह तथ्य एक राह की तरह प्रकट होता है कि हिंदी का संसार अपनी सीमाओं और संसाधनों के स्थायी विलाप के बावजूद एक खुला हुआ संसार है; जिसमें अपनी शक्ति भर अपने समय में कहीं पर भी किसी भी भाषा में हो रहे उल्लेखनीय सृजन को अपनी सीमाओं और संसाधनों में ले आने की सदिच्छा है।

‘मैं अपने एकांत का रैडिकल इस्तेमाल करना चाहता हूँ’

अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कहूँगा कि मेरा कथा-मन है। मुझे कहानियाँ सुनना, देखना और काफ़ी हद तक पढ़ना भी अच्छा लगता है। कविताएँ लिखने के बावजूद मेरी कहानी कहने की महत्वाकांक्षा नहीं, आकांक्षा कभी कम नहीं हुई। इसीलिए न केवल मैंने कहानियाँ लिखीं, बल्कि अब मैं कथात्मक फ़िल्में भी बनाना चाहता हूँ।

एक कवि और कर ही क्या सकता है

एक अलग रास्ता पकड़ने वाले वीरेन डंगवाल (1947–2015) की आज जन्मतिथि है। हिंदी की आठवें दशक की कविता ने स्वयं को कहाँ पर रोका यह समझना हो तो मंगलेश डबराल को पढ़िए और वह कहाँ तक जा सकती थी यह समझना हो तो वीरेन डंगवाल को।

उर्दू सीखने की तमन्ना है तुम्हें, अभी सीन में RULG के सिवा कुछ भी नहीं

उर्दू समय के साथ-साथ हिन्दवी, ज़बान-ए-हिंद, गुजरी, दक्कनी, ज़बान-ए-दिल्ली, ज़बान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला, हिंदुस्तानी और रेख़्ता जैसे नामों से भी जानी-पहचानी गई। व्याकरण और ध्वनि में हिंदी से बहुत निकटता रखने वाली उर्दू का शब्द-संसार अरबी, फ़ारसी, तुर्की, ब्रज और संस्कृत से समृद्ध हुआ है।

माचो दोस्तों के बारे में

उन्होंने समय-समय पर हम पर इतने उपकार किए हैं कि उनकी चर्चा चलने पर हम चुप रहते हैं। हम उनकी तारीफ़ तो कर सकते हैं, बुराई नहीं कर सकते। हम उनकी बुराई करना तो दूर, सुन भी नहीं सकते।

कभी-कभी लगता है कि गोविंदा भी कवि है

गोविंदा ऐसा नहीं था, क्योंकि उसका दौर ऐसा नहीं था। आप अपने दौर के असर से बच नहीं सकते। उसकी अच्छाइयाँ आपको गढ़ती हैं और बुराइयाँ भी। यह इस प्रकार होता है कि बहुत सजगताएँ भी इसे बेहद देर से जान पाती हैं।

कल कुछ कल से अलग होगा

आलोकधन्वा के कविता-संसार की कल्पना स्त्रियों के बग़ैर नहीं की जा सकती। वह हिंदी में स्त्री-विमर्श के एक प्रतिनिधि और सशक्त कवि हैं। माँ पर कविता लिखते हुए आलोकधन्वा को एक पूरा ज़माना याद आता है।

वायरल से कविता का तापमान नापने वालों के लिए

यह पुस्तक विधिवत् लिखी गई पुस्तक नहीं है। यह पिछले छह दशकों से अशोक वाजपेयी के द्वारा कविता के बारे में समय-समय पर जो सोचा-गुना-लिखा गया, उसका पीयूष दईया द्वारा सुरुचि और सावधानी से किया गया संचयन है।

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