याद करने की कोशिश करता हूँ तो याद आता है

चाहे जितने भी दिन हो, एक दिन सब ख़त्म हो जाते हैं। ख़त्म होने के सिवा उनके पास कोई और चारा भी तो नहीं होता। यह समय कभी रुकेगा? हो सकता है, कोई कहीं कल्पना करके थोड़ी देर के लिए ऐसा कर पाए। उस कल्पना के बाहर ऐसा होता हुआ नहीं लगता। सब इसी धरती के घूमने के बाद सुलझ जाता है। कहीं कोई प्रश्न, शंका कुछ भी आड़े नहीं आता। यह निरुत्तर होने और सब प्रश्नों के उत्तर मिलने जैसा वाक्य बन गया है।

यह जो ख़ाली जगह है

आज का दिन देर से शुरू हुआ। बेकार-सा दिन रहा। बोगस भी कह सकते हैं। आज काढ़ा सुबह नाश्ते से पहले नहीं पिया। मन थोड़ा आज अलग ही स्तर पर था। पेट सही नहीं लग रहा है। उसी के चलते दोनों ने दुपहर का भोजन भी नहीं किया। अंदर से ही इच्छा नहीं हुई। साढ़े बारह बजे दवाई खाई और साढ़े तीन बजे लेट गया। भाई पहले ही सोने के लिए तत्पर था। वह सो रहा था। काढ़ा सिर्फ़ एक बार पिया। शाम को लगभग छह बजे।

साथ एक बड़ी चीज़ है

ये बातें अगर अपने बचपन के साथियों या माता-पिता से कहूँगा, तब वे इन पंक्तियों को सिर्फ़ पंक्तियों की तरह पढ़ेंगे या सुनेंगे नहीं। उनके अपने अनुभव और संवेदनाएँ उनके साथ जुड़ती जाएँगी। हो सकता है, जिसका आपकी दृष्टि में कोई मूल्य न हो पर जिसने वह वक़्त जिया है, जो उसका साक्षी रहा है, जिसके अनुभव में वे दिन आए हैं, उसके लिए यह बात बहुत भावुक कर जाने वाली गली की तरह खुलता हुआ रास्ता हो सकती है।

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