एक उपन्यास लिखने के बाद

उपन्यास के बारे में वैसे अब तक इतना कुछ कहा जा चुका है कि जब उसका—अपनी सीमा भर—मैंने अध्ययन किया, तब पाया कि सब कुछ बहुत विरोधाभासग्रस्त है। मैंने शोर के कंकड़-पत्थर, अल्फ़ाज़ों की चाँदी और ख़ामोशी के स्वर्ण से भरे हुए कितने ही उपन्यास देखे-पलटे-पढ़े। उन्होंने सामान्य और विशेष दोनों ही रूपों में मुझे प्रभावित और अंतर्विरोधयुक्त किया।

सत्य की व्याख्या साहित्य की निष्ठा है

मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा-पूँजी थी, उस सबको मैंने ‘वयं रक्षामः’ में झोंक दिया है। अब मेरे पास कुछ नहीं है। लुटा-पिटा-सा, ठगा-सा श्रांत-क्लांत बैठा हूँ। चाहता हूँ—अब विश्राम मिले। चिर न सही, अचिर ही। परंतु यह हवा में उड़ने का युग है।

प्रेत को शांत करने के लिए

‘‘मनहूसियत का काम मत करो।’’—नानी ने जिन शब्दों में कहा था, उसके पीछे की भावना मैं बरसों खोजता रहा। नहीं मिली। न तो वो क्रोध था, न क्षोभ, न पीड़ा, न सलाह, न तंज़, न हँसी।

उनकी नज़र और उनकी कहन इस मंज़र में लासानी थी

इस मनहूस साल के आख़िरी सप्ताह में एक और मनहूस ख़बर—शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (1935–2020) नहीं रहे। उनके भतीजे, दास्तानगो और फ़िल्म निर्देशक महमूद फ़ारूक़ी ने यह सूचना ट्विटर पर दी।

ट्विटर फ़ीड

फ़ेसबुक फ़ीड