‘लिखना ख़ुद को बचाए रखने की क़वायद भी है’

संतोष दीक्षित सुपरिचित कथाकार हैं। ‘बग़लगीर’ उनका नया उपन्यास है। इससे पहले ‘घर बदर’ शीर्षक से भी उनका एक उपन्यास चर्चित रहा। संतोष दीक्षित के पास एक महीन ह्यूमर है और एक तीक्ष्ण दृष्टि जो समय को बेधती है। इस नाते वह हिंदी के अनूठे लेखक ठहरते हैं। यह बातचीत ‘बग़लगीर’ के प्रकाशित होने के आस-पास संभव हुई।

एक उपन्यास लिखने के बाद

उपन्यास के बारे में वैसे अब तक इतना कुछ कहा जा चुका है कि जब उसका—अपनी सीमा भर—मैंने अध्ययन किया, तब पाया कि सब कुछ बहुत विरोधाभासग्रस्त है। मैंने शोर के कंकड़-पत्थर, अल्फ़ाज़ों की चाँदी और ख़ामोशी के स्वर्ण से भरे हुए कितने ही उपन्यास देखे-पलटे-पढ़े। उन्होंने सामान्य और विशेष दोनों ही रूपों में मुझे प्रभावित और अंतर्विरोधयुक्त किया।

कहानी यहाँ से शुरू होती है

एक बादशाह था उसने बचपन से ही दीनी तालीम हासिल की। उसे फ़ुज़ूल मज़हबी रस्मो-रिवाज से चिढ़ थी। एक दिन उसने तमाम मज़ारों को तोड़ने का इरादा किया। बादशाह के आलिम दरबारियों ने क़ुरानो-हदीस के हवाले दे-देकर साबित किया कि ये शहीदों की मज़ारें हैं और शहीद चूँकि ज़िंदा होते हैं, उन्हें अल्लाह ता’ला से रिज़्क़ पहुँचता है, इसलिए मज़ारों का तोड़ना गुनाहे-अज़ीम में शामिल होगा।

‘भोपाल के रूप में मैंने अपना ही कुछ खो दिया’

यह 22 की उम्र में किसी लेखक से मेरा पहला इंटरव्यू था। मैं थोड़ा नर्वस भी थी। मैंने मुलाक़ात से पहले उनके दो उपन्यास ख़रीदकर पढ़े और फिर तैयारी के साथ सवाल बनाकर ले गई। मैंने उनके दो उपन्यास पढ़े हैं… सिर्फ़ इस एक बात से मंज़ूर साहब इतना खुश हो गए कि देर तक हैरानी से भरकर हँसते रहे। ‘‘जीती रहो बेटा, जीती रहो, यूँ ही पढ़ना हमेशा, किसी को भी पढ़ो, मगर पढ़ना…’’ यह कहते हुए वह देर तक हँसते ही रहे। मुझे उनकी वह हँसी आज भी याद है—हैरानी में डूबी हुई हँसी।

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