इक्कीसवीं सदी की स्त्री-कविता : 2

वह दौर जब स्त्री-कवियों के नाम शुरू होते ही समाप्त हो जाते थे, अब विचार का अकादमिक विषय हो चुका है। अब हमारा सामना हिंदी कविता की एक बिल्कुल नई सृष्टि से है, जहाँ एक नई स्त्री है—अपनी बहुसंख्य अभिव्यक्तियों के साथ।

इक्कीसवीं सदी की स्त्री-कविता

हिंदी में उपस्थित स्त्री-कविता का यह स्वर्णकाल है। इस संभव-साक्ष्य को पाने के लिए हमारी भाषा बेहद संघर्ष करती रही है। स्त्री कवियों की संख्या का विस्तार अब इस क़दर है कि उन्होंने पूरे काव्य-दृश्य को ही अपनी आभा से आच्छादित किया हुआ है।

रोज़-रोज़ मुक्तिबोध

उस कमरे में उस रात गहरी चली खोज में ताखे से झाँकती दिख पड़ती है एक बीड़ी और मैं साथी को आवाज़ लगाता हूँ कि आ गए हैं मुक्तिबोध। हम स्तुति-पाठ करते हैं—‘हम घुटने पर नशा-देवता (मुक्तिबोध ने नाश-देवता लिखा है) बैठ तुझे करते हैं वंदन—तेरे अग्निकणों से जीवन…’

‘मैं ऊँचा होता चलता हूँ’

यह लेख उनके लिए नहीं है जो मुक्तिबोध को जानते हैं, यह लेख उनके लिए है जो मुक्तिबोध को जानना चाहते हैं…

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